Tuesday, June 30, 2020

जाति न पूछो शब्द की

जो समाज अपनी भाषा के प्रति लापरवाह होता है, उसके हाथों से उसकी संस्कृति फिसल जाती है। भारत में, वह भी उत्तर भारत में, उस पर भी उत्तर प्रदेश में हिंदी भाषा की परीक्षा के परिणाम आश्चर्य से अधिक क्षोभ से भर देते हैं।
राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति की महानता का ढोल पीटने वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी तो आशा जगी कि अब संस्कृत और हिंदी भाषा का उद्धार हो जाएगा। लेकिन इसी सरकार के कार्यकाल में संस्कृत की पढ़ाई के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लग गए। विश्विद्यालयों में हिंदी भाषा और संस्कृत भाषा की स्थिति दयनीय हो गई।
कलाओं के संवर्द्धन के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक पूरा प्रकल्प ‘संस्कार भारती’ के नाम से चलता है। इस प्रकल्प की स्थापना के पीछे भी यही सोच थी कि कविता, नृत्य, संगीत और लोककलाओं की इम्यूनिटी बढ़ाई जाए तो सांस्कृतिक प्रदूषण से देश की सेहत बची रहेगी। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य पुरस्कारों की सूची में से कविता और साहित्य को बाहर करने में मिनिट नहीं लगाया। सूर, तुलसी, निराला, प्रसाद, महादेवी, बच्चन जैसे कवियों का उत्तर प्रदेश कवियों को सम्मानित करने से पल्ला झाड़ गया।
वामपंथी सरकार में हों तो उनका भारतीय कलाओं और भारतीय संस्कृति से विशेष वैर है ही। कविता के नाम पर जो कुछ वे पढ़ाते हैं उससे अच्छे-ख़ासे कवियों का मोहभंग हो जाए। हाँ, मानवतावाद का उनका दृष्टिकोण स्तुत्य है किंतु वे उस समस्या के दूसरे चरम पर खड़े हो जाते हैं, जिसके एक छोर पर राष्ट्रवाद खड़ा है।
वामपंथियों की सत्ता विश्विद्यालयों में रही तो उन्होंने लालित्य से हीन भाषा और संस्कृति से हीन कलाओं को थोपकर भाषा और कलाओं का बेड़ा गर्क किया। समाजवादियों और सेक्यूलरों के पास भी राजनीति की व्यस्तताएँ इतनी अधिक हैं कि इन्होंने भी भाषा और शिक्षा के प्रति कोई विशेष गंभीरता नहीं दिखाई, लेकिन इन दोनों ने शिक्षा में भाषा की स्थिति को दयनीय बनाने का भी कोई उपक्रम नहीं किया। अब ये आए तो इन्होंने स्वयं को इतना महान मान लिया कि मीरा, सूर, कबीर को पाठ्यक्रम से नदारद करने में भी संकोच नहीं किया क्योंकि उन पृष्ठों पर विचारधारा को पोषित करनेवाली सामग्री प्रकाशित करनी आवश्यक लगी होगी।
जिस ज़मीन को कविता की जुताई नसीब न हो, उस पर न तो संस्कार बोए जा सकते हैं, न ही संस्कृति। एक समय में उत्तर प्रदेश का हिंदी पाठ्यक्रम सर्वश्रेष्ठ होता था। डॉ मुरली मनोहर जोशी ने विज्ञान का शोध हिंदी भाषा में इसी प्रदेश से किया। यहाँ की बोलियों का लालित्य, यहाँ की भाषा, यहाँ का उच्चारण, यहाँ का लोक साहित्य... यह सब छिन गया तो संस्कृति का नाम संग्रहालयों में भी नहीं मिलेगा।
विचारधाराओं के इस नाटक में भाषाएँ नेपथ्य में जा रही हैं और कलाएँ बेचारगी के साथ कोने में पड़ी कुम्हला रही हैं। कलाकार का नाम जानने से पहले उसकी वैचारिक जाति पूछी जाती है। कविताओं से उनका गोत्र और सहित्य से उसका आधार कार्ड मांगा जा रहा है। विमर्शों की महामारी से ग्रस्त हिंदी साहित्य पहले ही जर्जर हुआ जाता है, ऐसे में प्रतिभा से उसकी जाति पूछकर सरकारी तंत्र करेले की बेल को नीम पर चढ़ाने का काम कर रहा है। इन हालों आप समाज से उसकी भाषा छीन लेंगे, और गूंगा समाज अपने नेताओं के जयकारे भी नहीं लगा पाता।

© चिराग़ जैन

Monday, June 29, 2020

राम, अधर मोरे पत्थर कर दे!

मैंने हैमंथस फैमिली के फायरबॉल लिली के फूल की फ़ोटो पोस्ट की और सहज परिहास में उसका शीर्षक लिखा ‘कोरोना फ्लॉवर’। नीचे कमेंट में कुछ गंभीर लोगों ने लिखा - ‘जानकारी न हो तो प्रकृति का मज़ाक न बनाएँ। इसका नाम फुटबॉल लिली है। हास्य के लिए नेता कम हैं क्या भारत में?’
मुझे समझ नहीं आया कि इसमें कैसे मैंने प्रकृति का अपमान कर दिया? राजनीति पर हास्य की चुटकी लो, तो कहा जाता है कि आप कवि हो, कविता लिखो, राजनीति मत करो। पति-पत्नी संबंधों में सहज हास्य की बात करो तो वहाँ नारी विरोधी होने का आरोप लगने लगता है। पुराने किस्से-कहानियों और पात्रों पर कुछ लिख दो तो भावनाएँ आहत हो जाती हैं। सरदारों, जाटों, बंगालियों, मारवाड़ियों, बनियों, जैनियों, ब्राह्मणों, ख़ानों, पठानों को क़िरदार बनाकर कुछ कह दो तो यह जातीय अपमान का मामला बन जाता है। भारतीयों की प्रचलित आदतों पर चुटकी ले ली जाए तो देश का अपमान हो जाता है। और अब प्रकृति पर एक सहज परिहास पर भी अंकुश लग गया।
सरकार पर मत हँसो क्योंकि यह प्रधानमंत्री का अपमान है, विपक्ष पर मत हँसो क्योंकि यह सत्ता का प्रोपेगेंडा है, न्यायालय पर मत हँसो क्योंकि यह न्यायालय का अपमान है... मुझे समझ नहीं आता कि इस देश के लोगों को ईश्वर ने ओंठ फैलाने की सुविधा दी ही क्यों है।
हास्य विद्रूपताओं से जन्मता है। जो समाज अपनी ख़ामियों पर हँसना छोड़ देता है, उसे उन ख़ामियों को सुधारने का अवसर नहीं मिलता। किसी की कमी बताने का हास्य से अधिक उपयुक्त कोई साधन हो ही नहीं सकता। अन्य किसी भी माध्यम से किसी को उसकी कमी बताई जाए तो युद्ध, झगड़े और क्लेश तक की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जो लोग परिहास को भी अपमान समझते हैं वे कुरुक्षेत्र में होम हो जाते हैं और जो लोग व्यंग्य को भी हँसकर स्वीकार करते हैं, वे युगनायक कृष्ण और राम कहलाते हैं।
और हाँ, उस पौधे का नाम फुटबॉल लिली भी नहीं है। फुटबॉल से रूप साम्य होने के कारण उस बेचारे हैमंथस फायरबॉल लिली को फुटबॉल कहकर चिढ़ाना अच्छी बात नहीं है।

© चिराग़ जैन

Sunday, June 28, 2020

जनता और राजनीति

जनता इतनी मूर्ख नहीं है, जितनी वो समझते हैं। लेकिन इतनी समझदार भी नहीं है, जितनी ये समझते हैं। 

© चिराग़ जैन

Saturday, June 27, 2020

लोककल्याणकारी गणतंत्र

शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय, सुरक्षा और आजीविका -ये किसी भी सामाजिक मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। इसके अतिरिक्त सड़क, यातायात आदि भी अनेक सुविधाएँ हैं, जो राज्य, नागरिकों के लिए जुटाता है, और नागरिक इसके एवज में सरकार को कर देता है। आपदा के समय सरकारें जो मुआवजा देती हैं, वह भी इन्हीं मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के उद्देश्य से दिया जाता है।
भारत में शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी व्यवस्थाओं की हालत इतनी ख़स्ता है कि यदि कोई अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाता है तो सामाजिक दृष्टि से यह उसके निकम्मेपन और बच्चों के प्रति लापरवाही का प्रमाण बन जाता है। सरकारें बदलती हैं तो इतिहास का पाठ्यक्रम बदल जाता है लेकिन सरकारी स्कूलों का ढर्रा नहीं बदलता।
निजी शिक्षण संस्थान बच्चों के अभिभावकों की हैसियत देखकर बच्चे को प्रवेश देते हैं। सरकारें ‘लोककल्याण’ का ढोल पीटने के लिए ‘बीपीएल कोटा’ जैसी व्यवस्थाएँ करती हैं, लेकिन इन योजनाओं का क्या हश्र होता है, यह कमोबेश सबको पता है। इस विषय पर कटाक्ष करते हुए इसी देश में ‘हिंदी मीडियम’ नाम से एक फ़िल्म भी बनी। क़माल यह है कि जिस फ़िल्म को देखकर हमारी आँखें शर्म से गड़ जानी चाहिए थीं, उसे हमने एक कॉमेडी फिल्म से ज़्यादा महत्व नहीं दिया।
सरकारी अध्यापकों के पास पढ़ाने के अतिरिक्त अनेक दायित्व हैं। पोलियो की दवाई पिलाना, वोटर लिस्ट बनाना, वोटर पर्ची बाँटना, राजनेताओं के दौरे के समय बच्चों को मंत्री जी की जय बोलने की ट्रेनिंग देना और इस प्रकार के तमाम कार्यों में बेचारे इस हद्द तक उलझे रहते हैं कि बच्चों की पढ़ाई के लिए समय ही नहीं मिलता।
किताबें धरी रह जाती हैं और बच्चे व्यवस्था की जटिलताओं और तंत्र की नाकामियों के बीच जीवित रहने के गुर सीख जाते हैं। बिना स्कूल जाए हाज़िरी कैसे लगवाई जाए यह विद्यार्थियों की व्यवहारिक शिक्षा का प्रथम अध्याय बन जाता है।
अव्वल तो पाठ्यक्रमों के आधार पर पढ़ाई होती नहीं, और जहाँ होती भी है, वहाँ पूरी शिक्षा व्यवस्था सभ्य नागरिकों का निर्माण करने में विफल होती दिखाई देती है। सड़कों पर फैली गंदगी, बेतरतीब दौड़ते वाहन, किशोर अवस्था के अपराध, पढ़े-लिखे लोगों द्वारा ऑनलाइन की जा रही ठगी, सार्वजनिक संपत्ति का ध्वंस, सोशल मीडिया पर आग की तरह फैलती भ्रामक जानकारियाँ और ‘कृपया यहाँ न थूकें’ जैसी तख्तियाँ इस बात की गवाही हैं कि हमारी शिक्षा व्यवस्था सभ्य नागरिकों का निर्माण करने में विफल हुई है।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी ख़ज़ाने का बड़ा हिस्सा वितरित किया जाता है। लेकिन सरकारी स्तर पर नागरिकों को स्वास्थ्य के लिए कितनी प्रताड़ना झेलनी पड़ती है; यह कहने की ज़रूरत नहीं है। शिक्षा की तरह ही यदि आप अपने घरवालों का इलाज सरकारी अस्पताल में करवा रहे हैं, तो समाज आपको बेचारा करार दे देता है।
मैं इस बात की गवाही देता हूँ कि भारत के सरकारी अस्पतालों में सर्वश्रेष्ठ उपचार उपलब्ध है, किन्तु जनसंख्या के अनुपात में इन अस्पतालों की मात्रा इतनी कम है कि उपचार की प्रतीक्षा में सरकारी अस्पतालों के गलियारों में घिसट रहे नागरिकों को देखकर मन खिन्न हो जाता है।
उधर निजी अस्पतालों में मरीज के स्वास्थ्य से अधिक वरीयता अस्पताल के आर्थिक लाभ को दी जाती है। मुर्दों को वेंटिलेटर पर रखकर बिल बनाए जाने की अमानवीयता तक इस देश ने झेली है। टेस्ट लेबोरेटरी से लेकर मेडिकल स्टोर तक इतना पुख़्ता और ईमानदार माफ़िया सक्रिय है कि एक बार बीमार होने के बाद आप निजी स्वास्थ्य सेवाओं की किसी भी दुकान पर चले जाइये, आपसे की हुई कमाई पूरे तंत्र में ईमानदारी से बाँट ही ली जाएगी। आपका नाम एक बार पंजीकृत हुआ नहीं कि डॉक्टर, अस्पताल, मेडिकल स्टोर, दवाई कम्पनी और पैथोलॉजी लैब तक सबका मीटर डाउन हो गया। एक डॉक्टर एक बार टहलने निकलता है; जिसे दौरा या विज़िट कहते हैं; इस बीच जिस-जिस ग्राहक के बिस्तर के पास से गुज़रेगा उस-उसके बिल में डॉक्टर साहब के विज़िटिंग चार्ज जुड़ जाएंगे। आजकल कोरोना की बदौलत ‘आपदा में अवसर’ तलाशते हुए पीपीई किट के चार्ज भी जुड़ गए हैं। एक ही पीपीई किट को पहनकर एक वार्डबॉय सौ मरीज़ों का बुखार नापेगा और वह एक किट सौ मरीजों के बिल में प्रकट हो जाएगी। डॉक्टर के चार्ज अलग, शल्य चिकित्सा के चार्ज अलग, दवाइयों के चार्ज अलग, नर्सिंग स्टाफ के चार्ज अलग, सफाई कर्मचारी तक के चार्ज जोड़ दिए जाते हैं। अस्पताल की पार्किंग ख़ूब महंगी और अस्पताल के केफिटेरिया तक में खुली लूट। बाहर से खाने-पीने का सामान लाने की अनुमति नहीं, क्योंकि यदि बाहर से 10 रुपये की चाय लेकर अस्पताल में आ सके तो अस्पताल की सत्तर रुपये की चाय कौन पियेगा।
इन सबसे तंग आकर यदि आपने अदालत का दरवाज़ा खटखटा दिया तो समझ लीजिए आपका शेष जीवन व्यस्त हो गया। सब जानते हैं कि अदालतों में केस लड़ते-लड़ते आदमी की उम्र गुज़र जाती है, इसीलिए ‘कोर्ट-कचहरी के झमेलों में कौन पड़े’ और ‘अदालत के चक्कर काटते-काटते एड़ियाँ घिस जाएंगी’ जैसे वाक्य हमारे नागरिक जीवन का अंग बन गए हैं। अदालत की इसी व्यवस्था का लाभ उठाकर पेशेवर ठग जनता को लूटते रहते हैं। शिक़ायत करनेवाला अदालत जाने से डरता रहता है और अपराध करनेवाला अदालत का नाम सुनते ही ख़ुश हो जाता है, क्योंकि वह जानता है कि शिक़ायत होने के बाद फैसले आने से पहले हौसले टूट जाते हैं।
अदालतें कहती हैं कि मुआमले ज़्यादा हैं इसलिए न्याय में देरी होती है; लेकिन मन कहता है कि न्याय में देरी होती है, इसलिए मुआमले ज़्यादा हैं। बिल्डर ने पैसे लेकर फ्लैट नहीं दिया। इस मुआमले में भी जब दशक बीत जाते हैं तो न्याय व्यवस्था की नीयत पर से विश्वास उठ जाता है।
सुरक्षा के लिए नागरिकों के बीच जो सरकारी व्यवस्था है, वह पुलिस कहलाती है। पुलिस की कार्यवाही के दो पक्ष हैं। एक उन फिल्मों की तरह है जिनमें हीरो ईमानदार पुलिसवाला है, उससे पता चलता है कि ईमानदारी के साथ पुलिस महकमे में काम करना कितना असम्भव है। दूसरा उन फिल्मों की तरह है जिसमें हीरो अपराधी है, उनसे यह पता चलता है कि पुलिस को ख़रीदना और पुलिस को चकमा देना कितना आसान है। दोनों ही स्थितियों में आम आदमी पुलिस व्यवस्था से निराश हो जाता है। पुलिसिया भ्रष्टाचार और थानों में किया जाने वाला व्यवहार सभ्य नागरिक को थानों में जाने से बचने की सलाह देता है। इज़्ज़त और सभ्यता से पुलिस विभाग का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है। पुलिस यह तर्क देती है कि यदि वे सख्त न हों तो जनता उनकी बात नहीं मानेगी। इस सबसे वह दौर याद आता है जब अंग्रेजों की शासन व्यवस्था में पुलिस का काम भारतीय जनता के बीच डर क़ायम रखना था। सत्ता बदल गई, लेकिन पुलिस का काम करने का ढर्रा वही रहा। दरोगा को माई-बाप और जनाब कहने की हमारी आदतों ने हमें कभी यह आभास ही नहीं होने दिया कि हमारे जन्म से पहले 15 अगस्त 1947 को आज़ादी का नाटक इस देश में खेला जा चुका है।
रह गई आजीविका। उसमें प्रारम्भ से अब तक जो कुछ किया गया है वह ऊँट के मुँह में जीरा ही साबित हुआ है। इसमें अकेले सरकार दोषी नहीं है। जो नागरिक सरकारी नौकरियों में लग गए उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा भत्ते, रिश्वत, आरम्परस्ती और छुट्टियाँ गिनने में खपा दी। अव्वल तो स्टाफ ही नहीं है, जो स्टाफ है वह अपनी कुर्सी पर बैठकर स्वयं को सरकार ही समझता है। काम करने से ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि टेबल के उस पार खड़ा नागरिक कुर्सीवाले का आदर कर रहा है या नहीं। यह आदर प्रदर्शित करने में जुड़े हुए हाथ, टिके हुए घुटने, रिरियाता चेहरा उपयोगी सिद्ध होता है। हाँ, जो नागरिक टेबल के नीचे हाथ घुसाकर करारी आवाज़ से साहब को प्रसन्न कर दे, उसके लिए मापदंड अलग हैं। दफ्तरी संस्कृति में कितने ही परिवारों की ज़िंदगी घुट-घुटकर दम तोड़ चुकी है। कितनी आश्चर्यजनक बात है, जो व्यवस्था हमारे जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए लागू की गई, उसकी जटिलताओं में ही जीवन होम हुआ जा रहा है।
स्कूल हैं तो पढ़ाई नहीं है, पढ़ाई है तो परीक्षा की प्रक्रिया, उससे बच निकले तो कॉपी जाँच के भ्रष्टाचार में मारे जाओगे। वहाँ से भी बचे तो परिणाम में मिस्टेक रहेगी, वह नहीं हुआ तो नौकरी ढूंढने के महाव्यूह, फिर जॉइनिंग की जटिलताएँ... सिस्टम तब तक आपका पीछा करेगा जब तक आप थककर गिर न पड़ें।
जो राज्य में विश्वास न रखे उसे अराजक कहा जाता है। मैं अराजकता का समर्थन नहीं करता लेकिन राज्य पर विश्वास कैसे किया जाए - यह उपाय जानने का उत्सुक हूँ।
इस लेख को पढ़कर अनेक लोग मुझे भाजपाई, कांग्रेसी, वामपंथी, समाजवादी और न जाने किन किन खेमों में खड़ा करेंगे। लेकिन मेरी लेखनी केवल उनके लिए है जो इन सब झरोखों से दूर होकर एक ख़ालिस भारतीय के जूते में पैर रखकर चिंतन करने को तैयार हो। क्योंकि मैं जानता हूँ कि नेहरू जी के अंदाज़े की ग़लती से जो युद्ध हुआ था उसका खामियाजा भी नागरिक ने ही भुगता था और मोदी जी ने जल्दबाज़ी में जो निर्णय लिए उनका खामियाजा भी नागरिक ही भुगत रहा है।
अगर न्यायपालिका और पुलिस में से किसी एक गलियारे को दुरुस्त किया जाए तो इसका प्रभाव पूरे देश के तंत्र पर दिखने लगेगा। और तब सही अर्थों में राज्य ‘लोककल्याणकारी’ बन सकेगा। झंडों का रंग हो तो हो, लेकिन आँसुओं का कोई रंग नहीं होता साहब।

© चिराग़ जैन

Wednesday, June 24, 2020

विज्ञापन का जनहित

कोरोना वायरस लॉन्च होते ही साबुनों के विज्ञापन की भाषा बदल गई। हमें बताया गया कि ‘कोरोना वायरस से बचाव के लिए अमुक साबुन से बीस सेकेंड तक हाथ धोएँ।’ च्यवनप्राश कम्पनियों ने बताया कि ‘कोरोना वायरस से बचाव के लिए इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए अमुक च्यवनप्राश खाएँ।’ डिजिटल फाइनेंस कम्पनियों ने बताया कि ‘डिजिटल पेमेंट अपनाएँ, ख़ुद को कोरोना के ख़तरे से बचाएँ।’ रिटेल होम डिलीवरी सर्विसेज ने बताया कि ‘घर से बाहर निकलकर कोरोना को आमंत्रित न करें, हम आपका सामान आपके घर पहुँचा देंगे।’ दवाई कम्पनियाँ भी ठीक इसी तर्ज पर ‘पहले से उपलब्ध दवाइयों को बेचने के लिए’ कोरोना की परिस्थितियों का लाभ उठा रही हैं।
मज़े की बात यह है कि इनमें से एक भी कम्पनी अपने विज्ञापन में शत प्रतिशत झूठ नहीं बोल रही। यह बाज़ार की सामान्य प्रवृत्ति है कि वह कोई भी चोगा पहन ले, लेकिन उसका प्राथमिक उद्देश्य व्यापार ही होगा।
बाज़ार हमारे भय का लाभ उठाता है। उसे पता है कि इस समय हम कोरोना से भयभीत हैं, इसलिए इस भय का नाम लेकर जो कुछ बेचा जाएगा, वह बिक जाएगा। इसी भय का लाभ अधकचरे ज्योतिष, पोंगा पंडित, नीम हकीम, तंत्र-मंत्रवाले बाबा, झाड़-फूँक वाले मौलवी भी उठाते हैं।
बाज़ार पहले मांग पैदा करता है, फिर माल बेचता है। और अगर किसी प्राकृतिक कारण से कोई मांग स्वतः उत्पन्न हो जाए तो अपने माल की पैकेजिंग उसकी पूर्ति के अनुरूप कर लेता है।
भूकम्प, बाढ़, महामारी, भुखमरी, अकाल जैसी परिस्थितियों में ऐसी नई पैकेजिंग अक्सर दिखाई देती है। जब कोई बड़ा भूकम्प आ जाए तो सरिया, सीमेंट और फ्लैटबेचने वाले तुरन्त चिल्लाने लगते हैं- ‘भूकम्परोधी सरिया ले लो; भूकम्परोधी सीमेंट ले लो; भूकम्परोधी फ्लैट ले लो!’ कोई आश्चर्य नहीं कि किसी दिन कोई साबुन कम्पनी यह दावा कर दे कि जो हमारी साबुन से नहाएगा उसकी खूबसूरती भूकम्प के मलवे से ख़राब नहीं होगी। और कोई आश्चर्य नहीं कि हम इसको सच मान लें, क्योंकि हम पानी में डूबी कुर्सी देखकर फेविकोल के मजबूत जोड़ की बात को सच मानते ही आए हैं।
बाज़ार चाहे मजहब का चोगा पहन ले, चाहे समाजसेवा का; चाहे अस्पताल का चेहरा लगा ले, चाहे मीडिया का; चाहे कविता के मंच पर सवार हो, चाहे राजनीति के गलियारों में; उसका प्राथमिक उद्देश्य मुनाफ़ा ही होगा। उसकी नीतियाँ भी बाज़ारू ही होंगी। वह जनता की अभिरुचियों का अध्ययन करते हुए उसके अनुरूप अपने प्रोडक्ट की पैकेजिंग करेगा। ध्यान रहे, वह प्रोडक्ट नहीं बदलता सिर्फ़ पैकेजिंग बदलता है। विज्ञापन का शरीर लोककल्याण की भाषा बोलता है लेकिन उसकी आत्मा बाज़ार की फड़ पर खड़ी होकर माल बेचने में संलग्न होती है।
जो लोग बाज़ार तलाशते हुए साहित्यकार या कवि बने फिरते हैं, वे समाज को न तो कोई नया विचार दे पाते हैं, न ही कोई नई बात। यदि समाज उद्वेलित हो तो वे भड़काऊ लेखन से उनके उद्वेलन में वृद्धि करने लगते हैं। वे अपने लेखन के दम पर समाज का मूड बदलने का कोई उपक्रम नहीं करते, वरन समाज का मूड देखकर अपने लेखन की भाषा बदल लेते हैं।
इस सबसे ज़्यादा भयावह यह है कि अब राजनीति भी बाज़ार के सिद्धांतों पर चलने लगी है। वही डर का सिद्धांत। पहले तंत्र की अनियमितताओं को उजागर किया जाता है। वर्तमान सरकार के प्रति असंतोष को बढ़ावा दिया जाता है। और जैसे ही जनता असंतोष से भर जाती है, तो बेनक़ाब करनेवाले ख़ुद वोट मांगने के लिए झोली पसार देते हैं।
यह कथन किसी भाजपा, किसी कांग्रेस, किसी वामपंथ, किसी समाजवाद पर ही नहीं अपितु वर्तमान राजनीति की पूरे चरित्र पर लागू होता है।
ऐसे में सही राजनेता, सही साहित्यकार, सही दवा विक्रेता, सही मीडिया और सही मजहब की पहचान करने का तरीका क्या है। हो सकता है मेरा मत शत प्रतिशत सटीक न सिद्ध हो, किन्तु यदि गम्भीरता से विचार करें तो सम्भवतः हम वर्तमान बाज़ारवाद के शिकंजे को कुछ तो ढीला कर सकेंगे।
‘समाज की सामान्य सोच के विपरीत बात कहनेवाला व्यक्ति इस बात की पुष्टि करता है कि वह व्यक्तिगत रूप से हानि उठाकर भी अपनी बात कहने के लिए कटिबद्ध है। ऐसे व्यक्ति की बात को भी यदि हम आँख बंद करके सुनने की बजाय थोड़ा-सा विवेक लागू करके सुनें/समझें तो बाज़ार के हो-हल्ले में शायद सच की हल्की-सी आवाज़ हमारे कानों तक पहुँच सके।’

© चिराग़ जैन

Tuesday, June 23, 2020

घाटे की भरपाई

रेलवे अपना घाटा पूरा करने के लिए निकट भविष्य में कोई नई भरती नहीं करेगा। सरकार अपना घाटा पूरा करने के लिए पैट्रोल-डीज़ल के दाम बढ़ा रही है।
एयरलाइंस अपना घाटा पूरा करने के लिए स्टाफ कम करेंगी। क्रेडिट कार्ड, टेलीकॉम और अन्य सेवाओं पर पैसे लेने का द्वार खुला है। सेवा में कोई गड़बड़ होने पर शिक़ायत करने की लाइनें कोरोना के कारण बन्द हैं।
सप्लाई कम होने के कारण हर चीज़ के दाम बढ़ गए हैं। सब्ज़ी, दाल, राशन, मसाले और यहाँ तक कि मेडिकल प्रोडक्ट्स तक के दाम बढ़ गए हैं। बच्चों को ऑनलाइन पढ़ाने के लिए जो चोचले लागू किये गए हैं, वह एक नया ख़र्च है। ईंधन महंगा होने के कारण बढ़ी हुई क़ीमतें और बढ़ रही हैं
रोज़गार ख़त्म और ख़र्चे डबल! क्या कोई बताएगा कि साधारण जनता अपना घाटा कैसे पूरा करेगी? और इन परिस्थितियों के कारण अगर अराजकता बढ़ गई तो यह देश अपनी ‘लोककल्याणकारी डींगों’ का घाटा कैसे पूरा करेगा?

© चिराग़ जैन

Monday, June 22, 2020

ज़िम्मेदार मीडिया : धोखेबाज़ क़ायनात

21 जून बीत गया और दुनिया समाप्त नहीं हुई। यह बड़ी शर्मनाक बात है। एक प्रतिष्ठित समाचार चैनल ने इतनी शिद्दत से दुनिया के समाप्त होने की घोषणा की थी, क्या उस चैनल की इज़्ज़त का भी ख्याल न किया, डूब मरना चाहिए ऐसी बेशर्म दुनिया को। आज अगर दुनिया समाप्त हो गई होती तो वह चैनल टीआरपी के सारे रिकॉर्ड तोड़ चुका होता।
यह ढीठ रवैया पहली बार देखने को नहीं मिला है। इससे पहले भी कई छोटे-बड़े अवसर ऐसे रहे हैं जब नियति ने अंतिम समय पर अपना निर्णय बदलकर हमारे मीडिया की साख पर बट्टा लगाया है। अभी कुछ दिन पहले ही तूफान ने पर्सनली फोन करके मीडिया को बताया कि इस बार मुंबई को नेस्तोनाबूद करने की पूरी तैयारी हो चुकी है। मीडिया के कर्मठ कर्मवीरों ने मुम्बई के चप्पे-चप्पे पर कैमरे और ओबी वैन तैनात कर दिए, नरीमन पॉइंट से लेकर जुहू चौपाटी तक पत्रकारों ने मोर्चा संभाल लिया कि जिस जगह से भी तूफ़ान एंट्री करेगा वहीं से लाइव कवरेज जारी हो जाएगी। एक-एक मिनिट पर नई प्लेट्स बनती रही। ग्राफिक डिजाइनरों ने सारी ताक़त झोंक दी कि कहीं तूफ़ान की एंट्री के शॉट्स फीके न रह जाएँ, ऐसा न हो कि तूफान मुंबई को तबाह कर दे और हम उसके ग्राफिक्स में कमज़ोर रह जाएँ। हर लहर का एक्सट्रीम क्लोज़ अप ऑन एयर हुआ। कौन जाने किस लहर पर तूफ़ान की सवारी आ जाए। मुंबई बचे या न बचे, लेकिन तूफान की एंट्री में चूक न हो जाए।
बेचारे पत्रकार लहर-लहर का नमक फाँकते रहे और तूफ़ान फुस्स हो गया। मुंबई को तबाह होते देखने के अरमान लिए बैठी जनता को निराशा से बचाने के लिए एकाध गिरे हुए पेड़ों को क्लोज़ अप शूट करके तबाही का टिपर चलाना पड़ा। एकाध जगह उड़ी टीन शेड के शॉट्स को मजबूरी में छतें उड़ने के वॉइस ओवर के साथ एयर करना पड़ा। तूफ़ान ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में यहाँ तक कहा कि समुद्र के किनारे पड़े भारी-भरकम पत्थर हवा में उड़ने लगेंगे। तूफान के इस बड़बोलेपन को सच मानकर मीडिया ने एक सप्ताह तक माहौल बनाए रखा। कई चैनल्स ने तो भूत-प्रेत और सास-बहू जैसे महत्वपूर्ण बुलेटिन तक तूफ़ान की अगुआई में न्यौछावर कर दिए। लेकिन तूफ़ान शेख़चिल्ली की औलाद निकला। जो-जो मीडिया को बताया था, उसमें से एक भी बात सच नहीं निकली। दुनिया मुम्बई को तबाह होते देखने के लाइव नज़ारों से वंचित रह गई और निराश पत्रकार अपना साजो-सामान उठाकर ब्यूरो में वापस लौट आए।
बहुत दुःख होता है साहब। मीडिया के साथ यह खिलवाड़ अच्छा नहीं है। ख़ुद सूर्य ने मीडिया को फोन किया था कि इस बार के सूर्यग्रहण से दुनिया तबाह हो जाएगी। हालाँकि तूफ़ान वाले झूठ के ज़ख़्म अभी भरे नहीं थे, लेकिन फिर भी हमारी मुस्तैद मीडिया सूर्य के एक फोन कॉल का सम्मान करते हुए ज्योतिषियों, खगोल शास्त्रियों, वैज्ञानिकों और गणितज्ञों को लेकर स्टूडियो में बैठ गई। जब ये सब लोग स्टूडियो में पहुँच गए तब एंकर को ध्यान आया कि इनमें से किसी ने भी अगर कोई ग़लत बात बोल दी, तो उससे जनता में अफ़रा-तफ़री मच जाएगी। यह विचार आते ही एंकरों ने मोर्चा संभाला और ख़ुद बोलना शुरू कर दिया। जब तक बुलेटिन चला तब तक नॉनस्टॉप बोलते रहे। विशेषज्ञों से सवाल पूछे गए क्योंकि यह एंकरिंग का कर्तव्य था, लेकिन उन्हें जवाब देने का अवसर नहीं दिया गया क्योंकि यह एंकर का धर्म था। पहले से प्राप्त जानकारियों को ब्रेकिंग न्यूज़ बनाया गया, क्योंकि इस ग्रहण के बाद इतनी तबाही मचने वाली थी कि फिर शायद ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ का वह स्पॉट देखने का मौका बेचारे दर्शकों को कभी न मिल पाता, इसलिए ‘तीन बजकर दस मिनिट पर ग्रहण समाप्त होगा’ - यह बात भी ब्रेकिंग न्यूज़ बना दी गई। इधर चंद्रमा ने सूर्य को एक कोने से घेरना शुरू किया, उधर एंकरों का स्वर ओज़ोन लेयर पार करने लगा। फायर रिंग का दृश्य बना और एंकर ऐसे उतावले होने लगे जैसे पहले से देखी हुई एक्शन फ़िल्म को दोबारा देखते हुए पड़ोसी को आगे का सीन बताने की उतावली में कोई कुर्सी का हत्था तोड़ दे। एंकरों का स्वर चंद्रमा पर पड़े विक्रम लैंडर से टकराने लगा। चंद्रमा अपनी गति के अनुसार सूर्य और पृथ्वी के बीच से गुज़र गया। दुनिया बच गई लेकिन मीडिया मर गया। दुनिया तबाह नहीं हुई। सूरज की फोन कॉल फेक निकली।
क्या-क्या याद करें साहब। भारत में कोयले का स्टॉक ख़त्म होने की ख़बर हो या कोसी की बाढ़ में पूरा उत्तर भारत बह जाने की ख़बर; धूमकेतु टकराने की पक्की जानकारी हो या धरती के भीतर चल रही हलचल का आँखों देखा हाल; मीडिया हर ख़बर को सीरियसली लेता रहा और प्रकृति धोखा देती रही।
जनता सच से वंचित न रह जाए इसलिए बेचारे दूसरे देशों के राष्ट्राध्यक्षों के मन के भीतर भी ट्रांसमीटर फिट कर आए हैं। ट्रम्प हो या पुतिन, चीन हो या पाकिस्तान; उनके मन में जैसे ही कोई विचार आता है तुरंत यहाँ प्रोम्पटर पर बीप होने लगती है। चैनल्स तुरन्त उस विचार को अपने दर्शकों तक पहुँचा देते हैं। अब अगर कोई अपने मन में आए विचार पर न टिके तो इसमें मीडिया क्या करे? बात से पलटते हैं ट्रम्प और नाम बदनाम होता है भारतीय मीडिया का। ऐसी ही हरक़तों के कारण ‘हड़प्पा न्यूज़’ और ‘मोहनजोदड़ो टीवी’ जैसे चैनल्स किसी इनपुट को इग्नोर कर गए और उस समय दुनिया की तबाही की फुटेज तैयार न हो सकी। तब प्रकृति ने गच्चा न दिया होता तो आज उन सभ्यताओं के विनाश की वजह का ‘अनुमान’ न लगाना पड़ता। बस एक पैन ड्राइव खोजनी होती और सारा सीन एचडी फॉरमेट में देख पा रहे होते।
पर इस बार कम से कम हमारे देश में ऐसा बिल्कुल नहीं होगा। हमारी जनता मीडिया के साथ है। इतनी सब बातें झूठ निकलने के बावजूद, जनता ख़बरों पर अटूट विश्वास करती है। क्योंकि जनता जानती है कि पूरी क़ायनात हमारे चैनल्स को झूठा सिद्ध करने पर उतारू है। लेकिन हम इस सत्यवादी मीडिया को झूठा मानकर इसका साथ नहीं छोड़ सकते। हमने मीडिया को अभयदान दे रखा है कि सूरज, चांद, मंगल, धूमकेतु, बाढ़, तूफ़ान, भूकम्प, बादल, ट्रम्प, इमरान, पुतिन, कैमरून और कोरोना तक जहाँ से जो इनपुट मिले उसे जस का तस सुंदर ग्राफिक्स के साथ ब्रॉडकास्ट करो। क्योंकि अगर किसी दिन कोई इन्फॉर्मेशन सही निकली और दुनिया तबाह हो गई तो हमारा मीडिया दुनिया को क्या मुँह दिखाएगा।

© चिराग़ जैन

Saturday, June 20, 2020

आपातकाले मतभेद नास्ते

22 मार्च 2020 के बाद हमारी ज़िंदगी पूरी तरह बदल चुकी है -यह हमें स्वीकार करना चाहिए। वायरस की दहशत से शुरू हुई इस अंधी सुरंग से हमारे मन-मानस को कब और कैसे मुक्ति मिलेगी इसका सही-सही अनुमान लगाना कठिन है।
सरकारें अपनी-अपनी क्षमता और प्रवृत्तियों के अनुरूप निरंतर सक्रिय हैं। राजनैतिक उठापटक और पक्ष-विपक्ष की छीछालेदर भी अनवरत जारी है। इधर प्रकृति नित नई मुसीबत खड़ी कर रही है, उधर पड़ोसी राष्ट्रों की ओर से भी इस सुरंग के अंधकार को भयावह बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है।
जब सूरज तपता है, तो ग़रीब की झोपड़ी भी तपती है और अमीर की कोठी भी। जब बादल बेकाबू होता है, तो पानी की मूसल भाजपाई को भी सताती है और कांग्रेसी को भी। जब भूकम्प आता है, तो मंदिर के गुम्बद भी थर्राते हैं और मस्जिद की मीनारें भी। जब बम गिरता है, तो डालियाँ भी ध्वस्त होती हैं और तने भी।
संकट, समस्त विविधताओं को एकाकार करने का अवसर है। पीड़ा, समस्त विवादों को मौन कर देती है। जब हवा सुहानी हो तो हम देह को विस्तार देकर उसका भोग करते हैं किन्तु जब आंधी आती है तो हम संकुचित होकर आत्मरक्षा करते हैं।
इस समय बीमारी, बेकारी और बमबारी की चिंताएँ सुरसा की तरह मुँह बाए देश की सुख-शांति को लील रही हैं। यह समय न तो इतिहास की भूलों को कोसकर वर्तमान की विफलताओं पर पर्दा डालने की अनुमति देता है, न ही वर्तमान की सत्ता को पदच्युत करके भविष्य के सपने देखने का अवसर देता है।
मँझधार में नाव नहीं बदली जाती। भारतीय लोकतंत्र में चाहे-अनचाहे लगभग हर सामाजिक व्यक्ति किसी न किसी राजनैतिक दल अथवा विचारधारा से जुड़ाव और असहमति महसूस करता है। ऐसे में वर्तमान सरकार से भी कुछ लोगों के मतभेद होना स्वाभाविक है। लेकिन यह भी सत्य है कि शत्रु का आक्रमण होने के बाद अपने पक्ष को समर्थन देना ही एकमात्र धर्म होता है। चुनौती के समाप्त होने तक अच्छा या बुरा, जो भी व्यक्ति हमारी ओर से मोर्चे पर खड़ा हो उसका समर्थन करना आवश्यक है। किसी सरकार की नीतियों और सोच को परिमार्जित करने का कार्य शांतिकाल में समीचीन होता है। यदि कोई सुझाव देना भी हो तो उसकी भाषा कटाक्ष अथवा उपालंभ से रहित होनी आवश्यक है।
उधर, भागदौड़ से भरी ज़िंदगी यकायक ठहर गई है। एकाकीपन और निठल्लापन जनता को भीतर ही भीतर खाए जा रहा है। जनता अवसाद और नकारात्मकता के माहौल से घिरती जा रही है। ऐसे में सरकार का भी दायित्व है कि वह जनता की भावनाओं को सम्मान दे। जनता के क्षोभ और नैराश्य को बढ़ानेवाली कोई भी घटना, बयान या हरक़त इस समय सरकार की ओर से न हो, तो जनता का सरकार पर विश्वास बढ़ेगा।
समय विपरीत हो तो विनम्रता से सबको एक सूत्र में बंध जाना चाहिए। माला कितनी भी बेतरतीब हो, लेकिन वह अलग-थलग पड़े मोतियों से तो ज़्यादा ही महत्व रखती है।

© चिराग़ जैन

Friday, June 19, 2020

सस्ता है तो महंगा पड़ेगा

कोई लागत से भी कम क़ीमत पर माल बेच रहा है, तो समझ लो कि वह व्यापार नहीं कर रहा, वरन बाज़ार पर कब्ज़ा कर रहा है। बाज़ार का एक ही धर्म है, मुनाफ़ा। जो आज इस धर्म से विमुख दिख रहा है, उसका कल कट्टर होना तय है। क़ीमत बहुत कम हो तो नीयत ख़राब होगी। सुनते हैं, दूध-दही पीनेवाले देश में चाय मुफ़्त बाँटी गई थी। लोगों ने मुफ़्त में चाय की चुस्की ली और चाय के व्यापारियों ने देश लूट लिया।
हमारे देश में एक मध्यमवर्गीय आदमी टैक्सी करने से डरता था। टैक्सीवालों की मनमानी और उनकी गुंडागर्दी से त्रस्त लोगों को जैसे ही आठ रुपये प्रति किलोमीटर का रेट दिखा तो लोग लपककर रेडियो टैक्सी में घूमने लगे। कूपन, ऑफर और न जाने कितना पैसा फेंककर इन कम्पनियों ने डेढ़ साल में हर मोबाइल में अपनी उपस्थिति बना ली। लोग पुरानी टैक्सियों और ऑटो रिक्शा को छोड़कर, धड़ल्ले से रेडियो टैक्सी की सुविधा के अभ्यस्त हो गए। फिर कोई कूपन नहीं, सर्ज लगने लगा, रेट बढ़ते-बढ़ते औसतन बीस-पच्चीस और कभी-कभी तीस-पैंतीस रुपये प्रति किलोमीटर तक जाने लगे।
खिलौनों की क़ीमतें अचानक से बाज़ार में औंधे मुँह गिरीं। शानदार पैकेजिंग के साथ चीनी सामान ने भारतीय व्यापार पर कब्ज़ा कर लिया। चीन का दृष्टिकोण व्यापक था। वह सस्ते खिलौने बेचकर भारत की अर्थव्यवस्था से खिलवाड़ कर रहा था। आज भारतीय बाज़ारों से चीन को खदेड़ना कितना महंगा पड़ रहा है, यह हम सबके सामने है।
हम कलाकारों के पास बहुत से लोग आते हैं कि हम आपका प्रमोशन मुफ्त में करना चाहते हैं। हम आपका डिजिटल मार्केटिंग का सारा काम करेंगे, आपको कोई पैसा नहीं ख़र्च करना पड़ेगा। सारा काम हम करेंगे, और आपको कुछ पैसा भी दे देंगे। इतनी विनम्रता हमें ख़ुश कर देती है और हम ख़ुशी-ख़ुशी जंगल के शेर से सर्कस के शेर बनने को तैयार हो जाते हैं।
जब कोई टेलीकॉम कंपनी मुफ्त में मोबाइल सेवा देती है, जब कोई पैथोलॉजी लैब नगण्य क़ीमत में हज़ारों रुपये के टेस्ट करने का दावा कर रही हो, जब कोई राजनैतिक दल मुफ़्त समान बाँटकर वोट मांग रहा हो तो हमें सतर्क हो जाना चाहिए। ये सब व्यापारी हमारी लालची प्रवृत्ति और स्थापित व्यापारियों की बेध्यानी या गुंडागर्दी का लाभ उठाकर बाज़ार में दस्तक देते हैं।
अगर कोई दोस्त आवश्यकता से अधिक अपनापन दिखाकर आपके घर पर पैसा लुटा रहा है तो उसकी दोस्ती को टटोल लेना आवश्यक है।
बाज़ार की यह नीति अब राजनीति में भी धड़ल्ले से चल रही है। हमारी सरकार आई तो आपको बिजली फ्री मिलेगी; हम आपको राशन फ्री देंगे; हम आपका कर्ज़ा मुआफ़ कर देंगे; हम आपसे बस में यात्रा के पैसे नहीं लेंगे... इन जुमलों से सत्ता हथियाने में सभी दल सक्रिय हैं।
आपको भूख लगने पर रोटी कमाने की शिक्षा देनेवाला व्यक्ति देखने में क्रूर लग सकता है लेकिन वह वास्तव में आपका गुरु होता है, जो आपको आत्मनिर्भर बनाना चाहता है। लेकिन भूख लगने पर आपकी झोली में रोटी डाल देनेवाला व्यक्ति चुपके से आपको भिखारी बना रहा होता है।

© चिराग़ जैन

Thursday, June 18, 2020

डर जाएगा चीन

चीनी बॉर्डर पर करो, सबको क्वारन्टीन।
अपने ही हथियार से, डर जाएगा चीन।।

© चिराग़ जैन

सिस्टम का तम

हम खोखले आदर्शों और तन्त्रीय विफलताओं के एक ऐसे शिकंजे में जकड़े जा चुके हैं, जिसमें से निकलने के लिए शिकंजे को जड़ समेत उखाड़ देने की शक्ति से कम बात न बनेगी।
संविधान एक ऐसी किताब है, जिसको किसी लोकतंत्र की रीढ़ कहा जा सकता है। किन्तु इस रीढ़ में स्लिपडिस्क कैसे किया जाता है, यह कला हमारी विधायिका को बख़ूबी मालूम है। विधायिका इसे हारमोनियम की तरह प्रयोग करती है। सुर इसमें सारे हैं, लेकिन किस खटके को कब दबाकर अपने मतलब का राग अलापा जाए, यह ज्ञान राजनीति के ककहरे में सिखा दिया जाता है। सत्ता संभालने से पूर्व इसी किताब की शपथ उठाई जाती है। जब शपथ-ग्रहण चल रहा होता है, तब शपथ लेनेवाले को भी ज्ञात होता है कि इस शपथ से बड़ा झूठ दुनिया में कोई नहीं है। शपथ दिलानेवाला भी जानता है कि शपथ की शब्दावली पूर्ण होने तक भी यह शपथ नहीं टिकेगी। लेकिन शपथ-ग्रहण की औपचारिकताओं का अभिनय चलता रहता है और विनम्रता की भूमिका अदा करता ‘जनप्रतिनिधि’ बिना पैसा ख़र्च किये एक मिनिट से भी कम समय में पूरे देश को यह बता देता है कि ‘मैं (नया मसीहा) अब तुम्हारा देश चूसने के लिए अधिकृत हो गया हूँ।’ 
ये शब्द सुनते ही पूरी ब्यूरोक्रेसी उसके जूते के नम्बर के मुताबिक अपनी खोपड़ी सेट कर लेती है। वह जिस क्षेत्र पर पिकनिक मनाने निकलता है, वहाँ तहलका मच जाता है। इससे अधिक क्या तबाही होगी कि उस क्षेत्र के सरकारी कर्मचारियों की नींद उड़ जाती है। अधिकारी रात-दिन दफ़्तर में रहकर चप्पे-चप्पे पर अपनी और अपने कर्मचारियों की खोपड़ियाँ बिछाते हैं कि पता नहीं किस चप्पे पर साहब का मन जूता मारने को मचल उठे, वह चप्पा ख़ाली रहा तो साहेब को कितनी निराशा होगी। ध्यान रहे कि हमारी संवेदनशील ब्यूरोक्रेसी यह सब श्रम साहेब को ख़ुश करने के लिए करती है, जनता को ख़ुश करने के लिए नहीं। साहेब भी यह बात अच्छी तरह जानते हैं, इसलिए ब्यूरोक्रेसी का दिल दुखाये बिना, वे ख़ुश होकर लौट आते हैं। दोनों के बीच का यह समर्पण देखकर जनता की आँखों में ख़ुशी के आँसू आ जाते हैं।
सब कुछ अभिनय मात्र है। औपचारिकताओं की इतनी लंबी फेहरिस्त है कि जीवन और औपचारिकताओं की होड़ में जीवन हमेशा छोटा रह जाता है।
संविधान में एक मज़ेदार बात और लिखी है कि संविधान का अपमान करनेवाले को बख़्शा नहीं जाएगा। इस बात ने संविधान को धर्मग्रन्थ बना दिया है। अब अगर किसी को इस किताब को जलाते, पटकते, गिराते, फाड़ते देखा गया या इस किताब पर प्रश्नचिन्ह लगाते देखा गया तो वह राष्ट्रद्रोही माना जाएगा लेकिन अगर कोई विधिवत इसको पढ़कर इसके साथ खिलवाड़ करे तो उसे पकड़ना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।
हमारा संविधान इतना लचीला है कि अगर मेरा इस तंत्र के किसी रेशे से पंगा हो जाए तो इस लेख में संविधान को महज एक किताब कहने के अपराध में मुझ पर कार्रवाई हो जाएगी और मुझे तंत्र के रेशों को ख़ुश करना आ जाए तो फिर पूरी किताब मेरे पक्ष में काम करने लगेगी।
हमारे यहाँ वक़ालत में न्याय दिलाने की पढ़ाई नहीं कराई जाती, बल्कि यह सिखाया जाता है कि इस किताब को किस कब किस एंगल पर रखकर न्याय को और जटिल बनाया जा सकता है। जो जितना जटिल बना दे, वह उतना बड़ा वक़ील। न्यायाधीश अपने कोर्ट में अधिवक्ताओं के इस कौशल को देखकर प्रसन्न होते रहते हैं। न्यायाधीश जानते हैं कि वक़ील अपने लाभ के लिए केस को लंबा किये जा रहे हैं। अदालतें न्याय नहीं देतीं, वे वैराग्य देती हैं। जो दो लोग विवाद के चरम तक पहुँचकर अदालत में आए हों, उन्हें यह ज्ञान कराया जाता है कि ‘जो लोग आपस में लड़ते हैं उन्हें अदालतों के चक्कर लगाने पड़ते हैं।’ यह ज्ञान होते ही वे दोनों लड़ाके कोर्ट की कैंटीन में बैठकर हँसी-ख़ुशी आपस का विवाद सुलझा लेते हैं। दोनों पक्ष थोड़ा-थोड़ा झुक जाते हैं और विवाद सुलझ जाता है। इससे समाज में आपसी सौहार्द, विनम्रता, मेलमिलाप और भाईचारा बढ़ता है। एक पंथ, दो काज हो जाते हैं। अदालतों का मनोरंजन भी हो जाता है और विवाद भी स्वतः सुलझ जाते हैं। लेकिन ध्यान रखना कि इन अदालतों के विरोध में कुछ भी कहा तो कहीं के नहीं रहोगे।
कार्यपालिका का तो कहना ही क्या। वे इस तंत्र के सबसे सरल सोपान हैं। कोई छिपाव नहीं। कोई हिप्पोक्रेसी नहीं। कोई ड्रामेबाज़ी नहीं। सीधी बात, पैसा है तो ठीक, वरना रगड़ दिए जाओगे। अब यह मत सोचने लगना कि कैसे रगड़ दिए जाओगे। शुरू से यही बात समझा रहा हूँ। पुलिसवाला नाराज़ हो गया तो किसी को भी, किसी भी समय चार-पाँच धाराएँ लगाकर धर लेगा। वे धाराएँ सही हैं या ग़लत -इसे सिद्ध करने के लिए अदालत जाना पड़ेगा। वहाँ चल रहे मनोरंजन कार्यक्रम में बीच-बीच में एकाध सीन आपका भी जुड़ जाएगा। उसमें न्याय तलाशने के लिए संविधान टटोलोगे तो अंत में यही ज्ञान होगा कि तंत्र से पंगा नहीं लेने का, वरना धरे जाओगे!
यही बात तो मैं समझा रहा हूँ। लेकिन किसको समझा रहा हूँ। उस जनता को, जो दस-पाँच हज़ार करोड़ के घोटाले को भ्रष्टाचार मानना बंद कर चुकी है। उस जनता को, जो तंत्र के किसी तिनके से पहचान निकलते ही ख़ुद भ्रष्टाचारी होने को तैयार बैठी है। उस जनता को, जो एप्रोच और रिश्वत की सरल राह पर चलने को धर्म मान बैठी है। उस जनता को, जो दो-चार मर्डर और एकाध बलात्कार करनेवाले को वोट दे आती है। उस जनता को, जो अपनी ख़ामोशी से राजनीति को शोषक, न्यायपालिका को अकर्मण्य और कार्यपालिका को भ्रष्ट होने के अवसर उपलब्ध कराती है। 
और कौन समझा रहा है? मैं, जो इस कालखण्ड में अपनी समझ के अनुसार परत-दर-परत आकलन करने के बावजूद सम्पूर्ण क्रांति के एकमात्र उपाय की ओर इंगित करने से इसलिए बचता हूँ कि इस तंत्र से पंगा कौन ले!
हम निराशा के उस छोर को छू रहे हैं, जहाँ उम्मीदों की लाशें सड़ांध मारने लगी हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, दफ़्तर, चुनाव, कला, मीडिया, कृषि सब जगह माफ़िया काम कर रहा है। देश की जड़ों में जो घुन लगा है, वह भी अब भूखा मर रहा है। चीख़ने की ज़रूरत है और हम बोलने में भी हिचक रहे हैं।
इस तंत्र के कुछ ऐसे अंग हैं, जो गुप्त रूप से तंत्र में विद्यमान हैं। तंत्र के विविध रेशे अपनी सुविधा के अनुसार इन अंगों का उपभोग करते रहते हैं।
युवा इस बात से ख़ुश हैं कि ‘यूट्यूब पर फलाने बंदे की वीडियो देखकर मज़ा आता है, क्योंकि वो सबकी जमकर लेता है।’ जो जितना अश्लील, वह उतना हिट। और हम शालीनता के लबादे में अश्लील होने का अवसर तलाशते किंपुरुष।
युवा अबोध हैं, इसलिए बिना झिझके अश्लीलता को लाइक करते हैं। हम समझदार हैं इसलिए चोरी-छिपे मन ही मन लाइक करते हैं, पर बाहर से शालीन बने रहते हैं।
इस दोहरे चरित्र के साथ तन्त्रीय विफलताओं के इस शिकंजे को उखाड़ना असम्भव है। हम रोज़ ख़ुद से झूठ बोलते हैं कि सब सही हो जाएगा। क्योंकि ज्ञान हमें झूठ बोलना सिखाता है और व्यवहारिक ज्ञान हमें ख़ुद से झूठ बोलना सिखाता है।

© चिराग़ जैन

Tuesday, June 16, 2020

श्रद्धांजलियों का ढोंग

कभी सुना था कि आपके जीवन का आकलन इस बात से किया जाता है कि आपके दुनिया से जाने के बाद लोग आपके बारे में क्या बोलते हैं। लेकिन अब लगता है कि किसी भी व्यक्ति के भीतर के घटियापन का आकलन इस बात से किया जाना चाहिए कि वह किसी की मौत को भुनाने के लिए किस हद्द तक गिर सकता है।
हम इस हद्द तक ढोंगी हैं कि किसी की मृत्यु तक का फायदा उठाना चाहते हैं। हमारा मीडिया किसी के मरते ही न्यूज़ बुलेटिन, कैप्सूल और पैकेजिंग की मारामारी में लग जाता है। कल्पना करो, तो आत्मा काँप जाती है कि क्या माहौल होता होगा न्यूज़रूम का। अरे बॉडी के शॉट्स आए क्या, अरे प्रोम्पटर पे देख कोई अपडेट है क्या, ब्रेकिंग प्लेट बनवाओ हरे रंग के कपड़े से लटका था, हॉस्पिटल लाइन-अप करो, ओबी लगवाओ, ओए बाप के शॉट्स आ गए, जल्दी फ्लैश कर, सुसाइड का कोई पुराना एनिमेशन निकाल यार, अमिताभ का ट्वीट लगा, बहन की बाइट ले, दोस्त रो रहा है, उसको बोल क्लोज़ अप ले....!
अब तो घृणा भी नहीं होती। कुछ लोग ऐसी ख़बर आते ही तुरन्त ट्वीट करके यह जताते हैं कि मरनेवाले से उनका गहरा दोस्ताना था। हर मरे हुए आदमी को संबोधित करके ट्वीट करते हुए बची हुई दुनिया में यह ढिंढोरा पीटते हैं कि दुनिया के सारे सेलिब्रिटीज़ उनके ख़ासम-ख़ास हैं। यह और बात है, जिससे व्यक्तिगत सम्बन्धों का दावा किया जाता है, वे उनसे किसी भी सोशल प्लेटफॉर्म पर कनेक्टेड नहीं होते। कुछ स्वयंभू सेलिब्रिटी किसी के मरते ही गूगल पर उसके परिवार के सदस्यों के नाम तलाशकर ऐसा ट्वीट तैयार करते हैं, जिससे लगे कि इसका मरनेवाले से पारिवारिक संबंध था और इसे परिवार के हर सदस्य की चिंता है।
तीसरी क़िस्म के लोग मनुष्यता की सीमा के पार जाकर भी अपने एजेंडे के प्रति कटिबद्ध हैं। किसी के मरते ही उनके भीतर का हिन्दू, उनके भीतर का मुस्लिम, उनके भीतर का वामपंथी, उनके भीतर का राष्ट्रवादी, उनके भीतर का सेक्युलर, उनके भीतर का सवर्ण, उनके भीतर का दलित अथवा उनके भीतर का भारतीय सक्रिय हो जाता है और उनके भीतर मर चुके मनुष्य के शव पर नंगा नाच करने लगता है। वे बेशर्मी से बताते हैं कि मरनेवाला ग़द्दार था, उसका मर जाना ही ठीक था। वे ढिठाई से सोशल प्लेटफार्म पर लिखते हैं कि उसने फलानी फ़िल्म में मुस्लिम का रोल किया था इसलिए उसके मरने पर दुःखी नहीं होना चाहिए, उसने फलाने शो में यह कहा था, इसलिए उसका मर जाना ठीक है।
मैं कई बार सोचता हूँ कि जिस रावण ने राम जी की पत्नी का अपहरण किया, उस तक की मृत्यु पर राम संज़ीदा हो गए थे। फिर किसकी उपासना करते हैं ये मृत्यु के बाद किसी को गाली देने वाले लोग। फिर स्वतः ही उत्तर मिलता है, कि राम के जीवन के आदर्श मनुष्यों के लिए अनुकरणीय हैं, जो पहले ही अपने भीतर के इंसान की हत्या किए बैठे हैं, जिन्हें किसी मानव की मृत्यु से क्षोभ नहीं होता, उनको राम के आदर्शों की मृत्यु से कहाँ कष्ट होता होगा।
किसी की मृत्यु के बाद बची हुई दुनिया में जो काँव-काँव होती है, उसे देखकर समझ आता है कि हमारे पुरखों ने मृत्यु समाचार सुनकर दो मिनिट के लिए मौन हो जाने की परिपाटी क्यों बनाई थी।

© चिराग़ जैन

भेड़चाल

भेड़चाल के फॉर्वर्डियो!
ये जो इनबॉक्स में मैसेज कर-कर के कह रहे हो कि आत्महत्या मत करना; समझ नहीं आ रहा अपनापन जता रहे हो या याद दिला रहे हो!
कुछ भी फॉरवर्ड करने लगते हो बे! तुम्हारा तो दिल भी घास चरने गया है।

© चिराग़ जैन

Ref : Sushant Singh Rajput Suicide Case

Sunday, June 14, 2020

सुशांत सिंह राजपूत का निधन

कलाकार नीलकण्ठ होता है। सारी दुनिया का विष पचाकर उसे जीवित रहना होता है। मुस्कुराते ओंठो के कारण जो आँखों का संकुचन होता है उसमें कितने ही आँसू छिपा लिए जाते हैं। हर सफल कलाकार के निजी जीवन में झाँककर, दुनिया उस पर कीचड़ उछालना चाहती है। लेकिन उसके निजी जीवन के घावों पर मरहम रखने कोई नहीं जाता।
लोग अपने-अपने निष्ठुर निर्णय लेकर अभी भी लिख देंगे कि आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। मैं स्वयं इस बात से सहमत हूँ, लेकिन एक बार, सिर्फ़ एक बार हम अपने समाज को, अपने तंत्र को, अपनी सामाजिकता को और अपनी दुनिया को टटोलकर तो देखें कि किन परिस्थितियों में किसी को मौत ज़िन्दगी से आसान लगने लगती होगी। किन परिस्थितियों में कोई संवेदनशील मन चीख़कर कहता होगा कि - ‘मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया, तुम्हारी है, तुम ही संभालो ये दुनिया!’

अलविदा दोस्त!
मुझे नहीं पता कि तुमने क्या झेला, मुझे नहीं पता कि तुम सही हो या ग़लत, मुझे यह भी नहीं मालूम कि किस स्थिति में तुमने यह कदम उठा लिया। मैं तो बस इतना जानता हूँ कि तुम्हारी मुस्कुराहट इस बात की गवाही है कि यह क़दम उठाने के लिए तुमने ख़ुद को बहुत मुश्किल से मनाया होगा।

© चिराग़ जैन



चोरी चालू आहे...

सोशल मीडिया पर रचना का सम्मान किया जाता है, रचनाकार का नहीं। ठीक इसी प्रकार जैसे सरकार ग़रीबी के हित की चिंता करती है, ग़रीब के हित की नहीं।
लगभग प्रत्येक सोशल नेटवर्किंग साइट ने किसी की रचना बहुत पसंद आने पर उसे ‘शेयर’ करने का विकल्प बनाया है, लेकिन चूँकि बनी हुई लकीरों पर चलनेवाले लोग इतिहास में नाम दर्ज नहीं करा पाते इसलिए सोशल मीडिया के मेहनती लोग एक क्लिक के इस आलस्यपूर्ण मार्ग को छोड़कर उस सामग्री को कॉपी करते हैं, फिर अपनी वॉल पर उसे पेस्ट करते हैं। फिर उसके नीचे से रचनाकार का नाम मिटाते हैं, कुछ अतिरिक्त परिश्रमी उसके नीचे अपना नाम भी लिखते हैं। इतनी मेहनत करने के बाद इनकी पोस्ट पर जो प्रशंसात्मक टिप्पणियाँ आती हैं, उनको भी ये बड़ी विनम्रता से ग्रहण करते हैं। मूल रचनाकार इतनी सारी प्रशंसा बटोरकर पथभ्रष्ट न हो जाए इसलिए ये देवदूत प्रशंसकों को पथभ्रष्ट करके उनके हिस्से की प्रशंसा का हलाहल पचा जाते हैं।
यदि कोई टुच्चा रचनाकार इस तरह की किसी महानता पर ऐतराज़ जताता है तो इस पंथ के सभी अनुयायी इकट्ठा होकर उस रचनाकार को धिक्कारने लगते हैं। इस धिक्कार यज्ञ में जो मंत्र पढ़े जाते हैं उनका समवेत तात्पर्य यह होता है कि ‘आपकी रचना पसंद आई इसीलिए तो कॉपी-पेस्ट की, आपको तो ख़ुश होना चाहिए कि आपकी रचना को प्रचारित किया जा रहा है, आपने रचना प्रकाशित कर दी तो वह अब जनता की हो गई, आपकी सोच छोटी है इसलिए यह घटिया विवाद कर रहे हो, आदि आदि।’ ज़्यादा बहस करनेवाले लोगों से यहाँ तक पूछ लिया जाता है कि तुम्हारे पास क्या सबूत है कि तुमने ही लिखी है, हो सकता है तुमने भी कहीं से चुराई हो!
अपनी रचना चोरी होने की शिकायत करनेवाला अपराधी काफ़ी अपमानित और शर्मिंदा होने के बाद ब्लॉक हो जाता है। ब्लॉक होते ही सर्जक और उपभोक्ता के मध्य एक दीवार उठ जाती है, रचनाकार दीवार के इस पार किलसता रह जाता है और रचना उस पार तारीफ़ें बटोरती रहती है।
कविता, लेख, व्यंग्योक्ति, फ़ोटो, कैरिकेचर, संगीत, स्वर, वीडियो शॉट, पेंटिंग, क्लिप आर्ट और डिजिटल डिज़ाइन जैसे सभी अमूल्य रत्न, मूल रचनाकार की गुदड़ी से उठाकर अपनी वॉल के शोरूम पर ले जाने वाले ये जौहरी रचनाकार को शोहरत और क़ामयाबी के नशे से बचाते हैं। हास्य की लघुकथाओं के माथे पर चुटकुले का फट्टा चिपकाकर उन्हें लावारिस करने की परंपरा तो युगों-युगों से चली ही आ रही है। जब पूरी-पूरी कविता, लेख और लघुकथा ही अपनी साड़ी नहीं बचा पाती तो ऐसे में वन लाइनर, विचार और व्यंग्योक्ति की मिनी स्कर्ट की तो बात ही क्या करनी। लोकोक्तियां, मुहावरे, लोकगीत, दंतकथाएँ, गल्प आदि इसी प्रवृत्ति के पुरखों के सद्प्रयासों से लावारिस हो चुके हैं।
राजनेता शायरों के अशआर पढ़कर भाषण जमाते हैं लेकिन शायर को न तो श्रेय मिलता न अर्थ। फ़िल्म अभिनेता रोज़ अपने सोशल हेंडिल पर कुछ न कुछ चेप देते हैं, लेकिन श्रेय कभी किसी को नहीं देते। हाँ, उनके बाबूजी की कविता को श्रेय देकर भी कोई कहीं उध्दृत कर दे तो वे कॉपीराइट का नोटिस ज़रूर भिजवा देते हैं। मोटिवेशनल स्पीकर्स बिना नाम के कविताएँ और सूक्तियां उद्धृत करके मूल रचनाकारों को डिमोटिवेट करते ही रहते हैं।
अरे भाई, कुम्हार की तो नियति ही है भट्ठी का ताप सहना। उसके बर्तनों को कुम्हार की ज़िंदगी के अभिशाप से दूर ले जानेवाला देवता नहीं तो और कौन है। तुमने बच्चा पैदा कर दिया, अब उसके सर्टिफिकेट में बाप के नाम की जगह कोई टाटा-बिड़ला अपना नाम लिख दे तो तुमको आपत्ति क्यों है? शर्म आनी चाहिए, अपनी शोहरत के लिए तुम अपने बच्चे की प्रगति में बाधक बनना चाहते हो।
इससे ज़्यादा घटियापन और क्या होगा कि कॉपी-पेस्ट करनेवाले महान परोपकारियों के मार्ग में मुश्किलें खड़ी करने के लिए अच्छे भले टेक्स्ट को इमेज बनाकर, उस पर अपना नाम, वॉटरमार्क और लोगो आदि सब चिपकाकर पोस्ट करने लगे हैं। लेकिन कर्मठ महान लोग ऐसी चुनौतियों से घबराते नहीं, बल्कि फोटोशॉप पर उस वॉटरमार्क, लोगो और नाम को हटा देते हैं। यदि यह सम्भव न हो तो उस रचना को अपनी कोमल अंगुलियों से दोबारा टेक्स्ट फॉर्मेट में कम्पोज़ करके फिर पोस्ट करते हैं। कितनी भी मेहनत क्यों न करनी पड़े, लेकिन ये मूल रचनाकार को सफलता के अहंकार से बचाने के लिए कटिबद्ध हैं।
जो लोग बिना नाम की रचनाओं पर कमेंट और लाइक करते हैं, वे इन महान देवदूतों को प्रोत्साहित करते हैं। यदि लोग बेनाम रचनाओं पर प्रतिक्रिया देना बंद कर दें तो ये बेचारे देवदूत हतोत्साहित होकर विलुप्त हो जाएंगे, लेकिन आम खानेवाले को इस बात से क्या लेना-देना की जिस बाग़ में यह मिठास उपजी है उसके माली के घर की रोटियां कौन चबा रहा है।

© चिराग़ जैन

Friday, June 12, 2020

अनकहे

जो कथाओं की दिशाएं मोड़कर ओझल हुए हैं 
उन अभागे अनकहों का मन नहीं जाना किसी ने
दोष सारा जो लिए बैठे रहे अपने सिरों पर
उन चरित्रों का अकेलापन न पहचाना किसी ने

कैकयी की सोच में जो क्षोभ था, वो बाहर आया
लोभ रानी का जगा, तब राम ने वनवास पाया
कैकयी ने कर लिया वरदान को अभिशाप ख़ुद ही
मंथरा के भाग्य में अपयश रहा, वो भी पराया
राजपरिवारों की झूठी प्रीत का जिसमें दिखा सच
मंथरा तो थी वही दर्पण, नहीं जाना किसी ने

पुत्र का संबंध लेकर भीष्म ख़ुद गंधार आए
दम्भ में इक बालिका के स्वप्न सारे मार आए
जिस अंधेरे को तुम्हीं ने राज्य से वंचित किया था
उस अंधेरे पर किसी की राजकन्या वार आए
कौन से अन्याय की ज्वाला में शकुनि जल रहा था
हाल उसका पूछने कब लौटकर आना किसी ने

नाव का जीवन बचाने क्या सहेगी पाल पूछो
धार से घायल हुआ है चप्पुओं का भाल पूछो
आम के मीठे फलों पर मुग्ध रहते हो, रहो पर
हो सके तो आम्रवन की कोयलों का हाल पूछो
भूमिका अपनी निभाकर खो गए नेपथ्य में जो
उन अबोलों का भला गुणगान कब गाना किसी ने

© चिराग़ जैन

Thursday, June 11, 2020

चुनाव तंत्र

भारत एक चुनाव प्रधान देश है। यहाँ जनता छँटे हुए लोगों में से कुछ लोगों को चुनती है ताकि ये चुने हुए लोग चुन-चुनकर जनता को चूना लगा सकें। जो चुन लिया जाता है वह जनता की अनदेखी करता रहता है और जो नहीं चुना जाता उसकी अनदेखी जनता करती रहती है।
चुनाव हमारी राजनीति का प्रमुख व्यवसाय है। इसलिए यहाँ सब कुछ रुक सकता है, किन्तु चुनाव कभी नहीं रुक सकता। चुनाव के समय पूरा प्रशासन जनता को उसके कर्त्तव्यों का ध्यान दिलाने लगता है। एक-एक वोट की क़ीमत समझने के लिए लाखों रुपये के विज्ञापन जनहित में जारी किए जाते हैं। जनता इन विज्ञापनों को सीरियसली ले लेती है और लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए स्वयं को महत्वपूर्ण मानने लगती है।
सर्दी हो या गर्मी, आंधी हो या बरसात; यह महत्वपूर्ण वोटर लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए लाइन में खड़ा हो जाता है। उसके मन में कभी चुनाव प्रक्रिया की धांधली का संशय सिर उठाने लगे तो भी वह स्वयं को महत्वपूर्ण मानते हुए बटन दबा देता है। उसके बटन दबाते ही लोकतंत्र की जो चीख़ निकलती है, वह उसे अपना विजयघोष समझकर ख़ुशी-ख़ुशी घर लौट आता है।
लोकतंत्र की चीख़ मद्धम पड़े उससे पहले ही राजनीति चिल्लाने लगती है। हर प्रत्याशी अपने विरोधी को गरियाता हुआ स्वयं ही ख़ुद को विजेता बताने लगता है। वोटिंग बन्द होने से गिनती शुरू होने के बीच सभी प्रत्याशी बेशर्मी और टुच्चेपन का भौंडा नृत्य करते हैं कि एक दिन के लिए जिनको लोकतंत्र में ख़ास बनाया गया था, वे अब फिर से आम हो गए। निकाल दी उनकी सारी हेकड़ी। ढीली हो गई उनकी सारी अकड़। अब हम भरी सभा में लोकतंत्र के चीर हरेंगे और ख़ुद को महत्वपूर्ण समझने वाली जनता भीष्म की तरह गर्दन नीचे किये बैठी रहेगी।
फिर पक्ष और विपक्ष मिलकर लोकतंत्र की मर्यादा को दाँव पर लगा देते हैं। जीते हुए खिलाड़ियों के फोन खड़कने लगते हैं। विचारधारा, नैतिकता, लज्जा, गरिमा और सभ्यता जैसे शब्दों को बाहर फेंक दिया जाता है और अपने-अपने तीतरों को पिंजड़े में बन्द करके हर शिकारी दूसरे के पिंजरे से तीतर चुराने निकल पड़ता है। जो दो तीतर बटोर कर लाता है उसके ख़ुद के चार तोते उड़ जाते हैं। पूरे पर्यावरण में पंछियों का कलरव गूंजने लगता है।
पशुमेलों जैसा रमणीक वातावरण होता है। जिसकी जहाँ मर्ज़ी हो वह वहाँ लीद करके लोकतंत्र की भूमि को उर्वर करता रहता है। चूँकि हमारा संविधान सबको समानता का अधिकार देता है, इसलिए सभी शिकारियों को दूसरे के पिंजरे से चोरी करने के समान अवसर प्राप्त होते हैं। स्वतंत्रता के अधिकार का प्रयोग करके हमारे चुने हुए प्रतिनिधि किसी के भी साथ नैतिक-अनैतिक व्यभिचार करने को स्वतंत्र होते हैं।
संविधान की पीठ पर ढिठाई का सुमेरु रखकर दौलत के कोबरा द्वारा चुनाव परिणामों का मंथन किया जाता है। लोकतंत्र हलाहल पीता रहता है और राजनेता अमृत कलश लेकर सरकार बनाने निकल पड़ते हैं। शपथ ग्रहण महोत्सव में संविधान की जो शपथ ली जाती है उसके कारण संविधान की सेहत निरंतर गिरती जा रही है।
सरकार बनने के बाद सरकार अपनी सरकार बचाने में व्यस्त हो जाती है और विपक्ष पक्षी चुराने का अवसर तलाशने लगता है। जनता उस एक दिन की प्रतीक्षा करने लगती है जिस दिन उसे अपने महत्वपूर्ण होने का गुमान हो सके। जो सरकारें पाँच साल से पहले गिर जाती हैं, वे वास्तव में लोककल्याणकारी सरकारें हैं, वरना इतनी व्यस्तता में किसके पास फ़ुरसत है जो जनता को महत्वपूर्ण होने का आभास कराए!

© चिराग़ जैन

Monday, June 8, 2020

विरोधाभास

जिसको सुख का उत्सव समझा,
वो दुख का आयोजन निकला
जिसके भाव सुकोमलतम थे,
उसका नाम विभीषण निकला

जीवन भर विश्रांत रहा जो, हमने उसको शांतनु माना
जिसने हर अनुशासन तोड़ा, उसका नाम सुशासन जाना
जिसका जीवन लाचारी था, उसका परिचय भीष्म बताया
अपशकुनों का मूल रहा जो, वह जग में शकुनी कहलाया
कृष्ण कहा जिसको दुनिया ने, वह जग का आभूषण निकला
जिसके भाव सुकोमलतम थे, उसका नाम विभीषण निकला

नाम श्रवण था जिसका, उसने आहट नहीं सुनी दशरथ की
एक मंथरा क्षण भर में ही इति बन गई हर सुख के अथ की
मानी को समझाने अंगद बनकर बुद्धि स्वयं आई थी
कुम्भकर्ण तक जाग गया पर रावण पर तंद्रा छाई थी
मुख दिखलाने योग्य नहीं जो, वह कुल्हन्त दशानन निकला
जिसके भाव सुकोमलतम थे, उसका नाम विभीषण निकला

जिस वेला में राजतिलक होता उसमें वनवास हुआ है
उत्सव की चौसर पर कुल की लज्जा का उपहास हुआ है
कंचन मृग लाने निकले थे, घर की मृगनयनी खो बैठे
खाण्डव वन को स्वर्ग किया था, ख़ुद ही वनवासी हो बैठे
जिस अवसर पर मेल लिखा था, उसका अंत विभाजन निकला
जिसके भाव सुकोमलतम थे, उसका नाम विभीषण निकला

© चिराग़ जैन


Sunday, June 7, 2020

मित्रता

महाभारत में मित्रता के दो उदाहरण हैं। एक, कर्ण-दुर्योधन, दूसरा अर्जुन-कृष्ण। कर्ण दुर्योधन के प्रति इतना निष्ठावान है कि दुर्योधन के दुराचार पर भी उसका प्रतिकार नहीं कर पाता। और कृष्ण, अर्जुन के इतने हितैषी हैं कि स्वयं अर्जुन के ही निर्णय का विरोध करने में भी नहीं हिचकते। कर्ण का उद्देश्य दुर्योधन की गुड बुक में बने रहना है, जबकि कृष्ण का उद्देश्य अर्जुन का फ्यूचर सुरक्षित करना है। कर्ण ने अपनी महत्ता सिद्ध करने के लिए मित्र को सीढ़ी बनाया, जबकि कृष्ण ने मित्र के हित में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा तोड़ने से भी परहेज नहीं किया। कर्ण की मित्रता दुर्योधन को समूल नष्ट कर गई और कृष्ण की मित्रता अर्जुन को युगपुरुष बना गई। अगर अर्जुन का मित्र कोई कर्ण होता और दुर्योधन के पास कोई कृष्ण होता तो महाभारत के युद्ध का परिणाम पलट गया होता

© चिराग़ जैन

REF : Friendship Day

Saturday, June 6, 2020

शानदार व्यवस्था

किसी भी नागरिक को 'पुलिस की उपस्थिति में' किसी दूसरे नागरिक पर चप्पल चलाने का अधिकार संविधान के किस अनुच्छेद में मिलता है।

इतनी शानदार व्यवस्था है तो थानों और अदालतों के संचालन पर जनता की गाढ़ी कमाई क्यों बर्बाद की जा रही है?

© चिराग़ जैन

Ref : Hissar Case of BJP Leader

Thursday, June 4, 2020

मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया

एक गर्भिणी हथिनी, तीन दिन तक अपने भीतर पल-पल बढ़ती टीस का कारण समझने की कोशिश में तड़प-तड़पकर मर गई। अपने जर्जर मुँह पर मनुष्य के बर्बर चेहरे के हस्ताक्षर लिए वह माँ अपने बच्चे को साथ लेकर दूर चली गई।
‘मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया, तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया’ की हिक़ारत के साथ उसके जलसमाधि ले ली। अपनी धर्मपरायणता का ढोंग करते मनुष्य ने कब अपने दिल में पत्थर विराजित कर लिए, पता ही न चला। स्वयं को गॉड फीयरिंग कहनेवाले आदमी के इस दुःसाहस को देखकर गॉड भी (अगर कहीं हो तो) काँप गया होगा।
हथिनी तो गणपति भाव से मनुष्य के भीतर उग आए पशु की कथा लिखकर चली गई, लेकिन उसकी मौन कराह मनुजता के ध्वंस का एक ऐसा अध्याय प्रारम्भ कर गई है, जिसका हर पलटता पृष्ठ मनुष्यता से हीन मनुष्य जाति के पटाक्षेप की वक़ालत करता रहेगा।
समुद्र से उठते भीषण चक्रवात, हवा में घुलता जा रहा विष, मर्यादा की लक्ष्मण रेखा लांघती सूनामी, रह-रहकर काँप उठती धरती, आग बरसाता आसमान, रिहायशी इलाक़ों में घुस आए तेंदुए, खेतों पर टूट पड़ते टिड्डीदल, खड़ी फसल पर गिरते ओले, हज़ारों की संख्या में बिछी चमगादड़ों की लाशें, जगह-जगह हो रहे गृहयुद्ध, चरमराती व्यवस्था में पनपती अराजकता और वर्चस्व की होड़ में अनदेखा होता अस्तित्व; चीख़-चीख़ कर मनुष्य को अल्पविराम का इंगित कर रहा है।
एक पल, ठहरकर संवेदनाओं को पोषित करने की सलाह दे रहा है। एक क्षण, बैठकर पैरों को विश्राम देने की दुहाई दे रहा है ताकि मस्तिष्क तक रक्त का संचरण हो सके और मस्तिष्क अपनी दिशा-दशा पर विचार करने में सक्षम हो पाए। एक लम्हा, रुककर धौंकनी बन चुके फेफड़ों में प्राणवायु भर लेने की सिफ़ारिश कर रहा है।
उस मूक संवेदना की इस दर्दनाक़ मौत को भी इस अल्पविराम का निमित्त नहीं बनाया गया तो पूर्णविराम लगाना प्रकृति की विवशता होगी।

© चिराग़ जैन

Ref : Kerala Elephant Murder Case

Wednesday, June 3, 2020

श्रेष्ठ भारत

नींव भी पुष्ट हो 
कुछ कंगूरे भी हों
एक साँकल भी हो
चौक पूरे भी हों
इन सभी से सजी ये इमारत रहे
एक भारत रहे, श्रेष्ठ भारत रहे

थार की रेत पश्चिम में बिखरी रहे
और पूरब निरंतर बरसता रहे
हिमशिखर भी युगों तक अडिग रह सकें
और सागर हमेशा लरजता रहे
हो मिठासों से इफ़्तार रमज़ान में
और फागुन में थोड़ी शरारत रहे
एक भारत रहे, श्रेष्ठ भारत रहे

सोच का रंग धानी हमेशा रहे
और आँखों में पानी हमेशा रहे
चाह में सावधानी हमेशा रहे
बाजुओं में रवानी हमेशा रहे
कोई तिरछी नज़र से अगर देख ले
तब रगों में ज़रा-सी हरारत रहे
एक भारत रहे, श्रेष्ठ भारत रहे

प्यास के रंग में कोई अंतर न हो
गागरें हों अलग, पर कुंआ एक हो
मंदिरों-मस्जिदों में भरोसा रहे
हों इबादत अलग, पर दुआ एक हो
क्यारियों की भले हों अलग खुशबुएँ
बाग़ बनने का उनमें महारत रहे
एक भारत रहे, श्रेष्ठ भारत रहे

जब हलाहल हवाओं में घुलने लगे
नीलकंठी बनें हम जगत् के लिए
सत्व पर आक्रमण जब कभी तम करे
दान हम कर सकें सर्व सत् के लिए
अपना सब कुछ लुटाकर नफ़े में हों हम
इस तरह की हमारी तिज़ारत रहे
एक भारत रहे, श्रेष्ठ भारत रहे

घर पड़ोसी का भी धूप से बच सके
ये सबक़ बरगदों ने सिखाया हमें
जो करिश्मा सिंहासन नहीं कर सके
त्याग ने वो भी करके दिखाया हमें
जब कभी हम नई आफ़तों से घिरें
तब दिमाग़ों पे दिल की सदारत रहे
एक भारत रहे, श्रेष्ठ भारत रहे

भूल जाना नहीं हम मिटे हैं सदा
देहरी के लिए, आन के वास्ते
ज़िंदगानी को चौसर पे मत हारना
शेख़ियों के लिए, शान के वास्ते
नफ़रतें, दहशतें जब रवानी पे हों
तब मुहब्बत की ज़िंदा इबारत रहे
एक भारत रहे, श्रेष्ठ भारत रहे

अपने घर को ही दुनिया समझते हैं जो
उनसे कह दो कि दुनिया हमारा है घर
हम चुनौती से आँखें चुराते नहीं
सावधानी रखी, कब रखा कोई डर
ग़ैर की भी हमें कुछ ज़रूरत रहे
ग़ैर को भी हमारी ज़रूरत रहे
एक भारत रहे, श्रेष्ठ भारत रहे

© चिराग़ जैन

व्यवस्था के घुटने

घुट-घुट कर साँस लेते आदमी को
घुटने से बचाने के लिए
व्यवस्था के घुटने बहुत काम आते हैं
दहशत में साँस लेती जनता को
एक ही बार में
साँस की चिंताओं से
मुक्त कर जाते हैं।

© चिराग़ जैन

Ref : George Floyd Death Issue in America

Tuesday, June 2, 2020

बड़बोलापन

बुनियाद पूरी इमारत का वज़्न उठा सकती है लेकिन एक कंगूरे का बड़बोलापन उसे बहुत भारी पड़ता है।

© चिराग़ जैन

Ref : Racism in USA