शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय, सुरक्षा और आजीविका -ये किसी भी सामाजिक मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। इसके अतिरिक्त सड़क, यातायात आदि भी अनेक सुविधाएँ हैं, जो राज्य, नागरिकों के लिए जुटाता है, और नागरिक इसके एवज में सरकार को कर देता है। आपदा के समय सरकारें जो मुआवजा देती हैं, वह भी इन्हीं मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के उद्देश्य से दिया जाता है।
भारत में शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी व्यवस्थाओं की हालत इतनी ख़स्ता है कि यदि कोई अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाता है तो सामाजिक दृष्टि से यह उसके निकम्मेपन और बच्चों के प्रति लापरवाही का प्रमाण बन जाता है। सरकारें बदलती हैं तो इतिहास का पाठ्यक्रम बदल जाता है लेकिन सरकारी स्कूलों का ढर्रा नहीं बदलता।
निजी शिक्षण संस्थान बच्चों के अभिभावकों की हैसियत देखकर बच्चे को प्रवेश देते हैं। सरकारें ‘लोककल्याण’ का ढोल पीटने के लिए ‘बीपीएल कोटा’ जैसी व्यवस्थाएँ करती हैं, लेकिन इन योजनाओं का क्या हश्र होता है, यह कमोबेश सबको पता है। इस विषय पर कटाक्ष करते हुए इसी देश में ‘हिंदी मीडियम’ नाम से एक फ़िल्म भी बनी। क़माल यह है कि जिस फ़िल्म को देखकर हमारी आँखें शर्म से गड़ जानी चाहिए थीं, उसे हमने एक कॉमेडी फिल्म से ज़्यादा महत्व नहीं दिया।
सरकारी अध्यापकों के पास पढ़ाने के अतिरिक्त अनेक दायित्व हैं। पोलियो की दवाई पिलाना, वोटर लिस्ट बनाना, वोटर पर्ची बाँटना, राजनेताओं के दौरे के समय बच्चों को मंत्री जी की जय बोलने की ट्रेनिंग देना और इस प्रकार के तमाम कार्यों में बेचारे इस हद्द तक उलझे रहते हैं कि बच्चों की पढ़ाई के लिए समय ही नहीं मिलता।
किताबें धरी रह जाती हैं और बच्चे व्यवस्था की जटिलताओं और तंत्र की नाकामियों के बीच जीवित रहने के गुर सीख जाते हैं। बिना स्कूल जाए हाज़िरी कैसे लगवाई जाए यह विद्यार्थियों की व्यवहारिक शिक्षा का प्रथम अध्याय बन जाता है।
अव्वल तो पाठ्यक्रमों के आधार पर पढ़ाई होती नहीं, और जहाँ होती भी है, वहाँ पूरी शिक्षा व्यवस्था सभ्य नागरिकों का निर्माण करने में विफल होती दिखाई देती है। सड़कों पर फैली गंदगी, बेतरतीब दौड़ते वाहन, किशोर अवस्था के अपराध, पढ़े-लिखे लोगों द्वारा ऑनलाइन की जा रही ठगी, सार्वजनिक संपत्ति का ध्वंस, सोशल मीडिया पर आग की तरह फैलती भ्रामक जानकारियाँ और ‘कृपया यहाँ न थूकें’ जैसी तख्तियाँ इस बात की गवाही हैं कि हमारी शिक्षा व्यवस्था सभ्य नागरिकों का निर्माण करने में विफल हुई है।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी ख़ज़ाने का बड़ा हिस्सा वितरित किया जाता है। लेकिन सरकारी स्तर पर नागरिकों को स्वास्थ्य के लिए कितनी प्रताड़ना झेलनी पड़ती है; यह कहने की ज़रूरत नहीं है। शिक्षा की तरह ही यदि आप अपने घरवालों का इलाज सरकारी अस्पताल में करवा रहे हैं, तो समाज आपको बेचारा करार दे देता है।
मैं इस बात की गवाही देता हूँ कि भारत के सरकारी अस्पतालों में सर्वश्रेष्ठ उपचार उपलब्ध है, किन्तु जनसंख्या के अनुपात में इन अस्पतालों की मात्रा इतनी कम है कि उपचार की प्रतीक्षा में सरकारी अस्पतालों के गलियारों में घिसट रहे नागरिकों को देखकर मन खिन्न हो जाता है।
उधर निजी अस्पतालों में मरीज के स्वास्थ्य से अधिक वरीयता अस्पताल के आर्थिक लाभ को दी जाती है। मुर्दों को वेंटिलेटर पर रखकर बिल बनाए जाने की अमानवीयता तक इस देश ने झेली है। टेस्ट लेबोरेटरी से लेकर मेडिकल स्टोर तक इतना पुख़्ता और ईमानदार माफ़िया सक्रिय है कि एक बार बीमार होने के बाद आप निजी स्वास्थ्य सेवाओं की किसी भी दुकान पर चले जाइये, आपसे की हुई कमाई पूरे तंत्र में ईमानदारी से बाँट ही ली जाएगी। आपका नाम एक बार पंजीकृत हुआ नहीं कि डॉक्टर, अस्पताल, मेडिकल स्टोर, दवाई कम्पनी और पैथोलॉजी लैब तक सबका मीटर डाउन हो गया। एक डॉक्टर एक बार टहलने निकलता है; जिसे दौरा या विज़िट कहते हैं; इस बीच जिस-जिस ग्राहक के बिस्तर के पास से गुज़रेगा उस-उसके बिल में डॉक्टर साहब के विज़िटिंग चार्ज जुड़ जाएंगे। आजकल कोरोना की बदौलत ‘आपदा में अवसर’ तलाशते हुए पीपीई किट के चार्ज भी जुड़ गए हैं। एक ही पीपीई किट को पहनकर एक वार्डबॉय सौ मरीज़ों का बुखार नापेगा और वह एक किट सौ मरीजों के बिल में प्रकट हो जाएगी। डॉक्टर के चार्ज अलग, शल्य चिकित्सा के चार्ज अलग, दवाइयों के चार्ज अलग, नर्सिंग स्टाफ के चार्ज अलग, सफाई कर्मचारी तक के चार्ज जोड़ दिए जाते हैं। अस्पताल की पार्किंग ख़ूब महंगी और अस्पताल के केफिटेरिया तक में खुली लूट। बाहर से खाने-पीने का सामान लाने की अनुमति नहीं, क्योंकि यदि बाहर से 10 रुपये की चाय लेकर अस्पताल में आ सके तो अस्पताल की सत्तर रुपये की चाय कौन पियेगा।
इन सबसे तंग आकर यदि आपने अदालत का दरवाज़ा खटखटा दिया तो समझ लीजिए आपका शेष जीवन व्यस्त हो गया। सब जानते हैं कि अदालतों में केस लड़ते-लड़ते आदमी की उम्र गुज़र जाती है, इसीलिए ‘कोर्ट-कचहरी के झमेलों में कौन पड़े’ और ‘अदालत के चक्कर काटते-काटते एड़ियाँ घिस जाएंगी’ जैसे वाक्य हमारे नागरिक जीवन का अंग बन गए हैं। अदालत की इसी व्यवस्था का लाभ उठाकर पेशेवर ठग जनता को लूटते रहते हैं। शिक़ायत करनेवाला अदालत जाने से डरता रहता है और अपराध करनेवाला अदालत का नाम सुनते ही ख़ुश हो जाता है, क्योंकि वह जानता है कि शिक़ायत होने के बाद फैसले आने से पहले हौसले टूट जाते हैं।
अदालतें कहती हैं कि मुआमले ज़्यादा हैं इसलिए न्याय में देरी होती है; लेकिन मन कहता है कि न्याय में देरी होती है, इसलिए मुआमले ज़्यादा हैं। बिल्डर ने पैसे लेकर फ्लैट नहीं दिया। इस मुआमले में भी जब दशक बीत जाते हैं तो न्याय व्यवस्था की नीयत पर से विश्वास उठ जाता है।
सुरक्षा के लिए नागरिकों के बीच जो सरकारी व्यवस्था है, वह पुलिस कहलाती है। पुलिस की कार्यवाही के दो पक्ष हैं। एक उन फिल्मों की तरह है जिनमें हीरो ईमानदार पुलिसवाला है, उससे पता चलता है कि ईमानदारी के साथ पुलिस महकमे में काम करना कितना असम्भव है। दूसरा उन फिल्मों की तरह है जिसमें हीरो अपराधी है, उनसे यह पता चलता है कि पुलिस को ख़रीदना और पुलिस को चकमा देना कितना आसान है। दोनों ही स्थितियों में आम आदमी पुलिस व्यवस्था से निराश हो जाता है। पुलिसिया भ्रष्टाचार और थानों में किया जाने वाला व्यवहार सभ्य नागरिक को थानों में जाने से बचने की सलाह देता है। इज़्ज़त और सभ्यता से पुलिस विभाग का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है। पुलिस यह तर्क देती है कि यदि वे सख्त न हों तो जनता उनकी बात नहीं मानेगी। इस सबसे वह दौर याद आता है जब अंग्रेजों की शासन व्यवस्था में पुलिस का काम भारतीय जनता के बीच डर क़ायम रखना था। सत्ता बदल गई, लेकिन पुलिस का काम करने का ढर्रा वही रहा। दरोगा को माई-बाप और जनाब कहने की हमारी आदतों ने हमें कभी यह आभास ही नहीं होने दिया कि हमारे जन्म से पहले 15 अगस्त 1947 को आज़ादी का नाटक इस देश में खेला जा चुका है।
रह गई आजीविका। उसमें प्रारम्भ से अब तक जो कुछ किया गया है वह ऊँट के मुँह में जीरा ही साबित हुआ है। इसमें अकेले सरकार दोषी नहीं है। जो नागरिक सरकारी नौकरियों में लग गए उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा भत्ते, रिश्वत, आरम्परस्ती और छुट्टियाँ गिनने में खपा दी। अव्वल तो स्टाफ ही नहीं है, जो स्टाफ है वह अपनी कुर्सी पर बैठकर स्वयं को सरकार ही समझता है। काम करने से ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि टेबल के उस पार खड़ा नागरिक कुर्सीवाले का आदर कर रहा है या नहीं। यह आदर प्रदर्शित करने में जुड़े हुए हाथ, टिके हुए घुटने, रिरियाता चेहरा उपयोगी सिद्ध होता है। हाँ, जो नागरिक टेबल के नीचे हाथ घुसाकर करारी आवाज़ से साहब को प्रसन्न कर दे, उसके लिए मापदंड अलग हैं। दफ्तरी संस्कृति में कितने ही परिवारों की ज़िंदगी घुट-घुटकर दम तोड़ चुकी है। कितनी आश्चर्यजनक बात है, जो व्यवस्था हमारे जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए लागू की गई, उसकी जटिलताओं में ही जीवन होम हुआ जा रहा है।
स्कूल हैं तो पढ़ाई नहीं है, पढ़ाई है तो परीक्षा की प्रक्रिया, उससे बच निकले तो कॉपी जाँच के भ्रष्टाचार में मारे जाओगे। वहाँ से भी बचे तो परिणाम में मिस्टेक रहेगी, वह नहीं हुआ तो नौकरी ढूंढने के महाव्यूह, फिर जॉइनिंग की जटिलताएँ... सिस्टम तब तक आपका पीछा करेगा जब तक आप थककर गिर न पड़ें।
जो राज्य में विश्वास न रखे उसे अराजक कहा जाता है। मैं अराजकता का समर्थन नहीं करता लेकिन राज्य पर विश्वास कैसे किया जाए - यह उपाय जानने का उत्सुक हूँ।
इस लेख को पढ़कर अनेक लोग मुझे भाजपाई, कांग्रेसी, वामपंथी, समाजवादी और न जाने किन किन खेमों में खड़ा करेंगे। लेकिन मेरी लेखनी केवल उनके लिए है जो इन सब झरोखों से दूर होकर एक ख़ालिस भारतीय के जूते में पैर रखकर चिंतन करने को तैयार हो। क्योंकि मैं जानता हूँ कि नेहरू जी के अंदाज़े की ग़लती से जो युद्ध हुआ था उसका खामियाजा भी नागरिक ने ही भुगता था और मोदी जी ने जल्दबाज़ी में जो निर्णय लिए उनका खामियाजा भी नागरिक ही भुगत रहा है।
अगर न्यायपालिका और पुलिस में से किसी एक गलियारे को दुरुस्त किया जाए तो इसका प्रभाव पूरे देश के तंत्र पर दिखने लगेगा। और तब सही अर्थों में राज्य ‘लोककल्याणकारी’ बन सकेगा। झंडों का रंग हो तो हो, लेकिन आँसुओं का कोई रंग नहीं होता साहब।
© चिराग़ जैन
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