भारत एक चुनाव प्रधान देश है। यहाँ जनता छँटे हुए लोगों में से कुछ लोगों को चुनती है ताकि ये चुने हुए लोग चुन-चुनकर जनता को चूना लगा सकें। जो चुन लिया जाता है वह जनता की अनदेखी करता रहता है और जो नहीं चुना जाता उसकी अनदेखी जनता करती रहती है।
चुनाव हमारी राजनीति का प्रमुख व्यवसाय है। इसलिए यहाँ सब कुछ रुक सकता है, किन्तु चुनाव कभी नहीं रुक सकता। चुनाव के समय पूरा प्रशासन जनता को उसके कर्त्तव्यों का ध्यान दिलाने लगता है। एक-एक वोट की क़ीमत समझने के लिए लाखों रुपये के विज्ञापन जनहित में जारी किए जाते हैं। जनता इन विज्ञापनों को सीरियसली ले लेती है और लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए स्वयं को महत्वपूर्ण मानने लगती है।
सर्दी हो या गर्मी, आंधी हो या बरसात; यह महत्वपूर्ण वोटर लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए लाइन में खड़ा हो जाता है। उसके मन में कभी चुनाव प्रक्रिया की धांधली का संशय सिर उठाने लगे तो भी वह स्वयं को महत्वपूर्ण मानते हुए बटन दबा देता है। उसके बटन दबाते ही लोकतंत्र की जो चीख़ निकलती है, वह उसे अपना विजयघोष समझकर ख़ुशी-ख़ुशी घर लौट आता है।
लोकतंत्र की चीख़ मद्धम पड़े उससे पहले ही राजनीति चिल्लाने लगती है। हर प्रत्याशी अपने विरोधी को गरियाता हुआ स्वयं ही ख़ुद को विजेता बताने लगता है। वोटिंग बन्द होने से गिनती शुरू होने के बीच सभी प्रत्याशी बेशर्मी और टुच्चेपन का भौंडा नृत्य करते हैं कि एक दिन के लिए जिनको लोकतंत्र में ख़ास बनाया गया था, वे अब फिर से आम हो गए। निकाल दी उनकी सारी हेकड़ी। ढीली हो गई उनकी सारी अकड़। अब हम भरी सभा में लोकतंत्र के चीर हरेंगे और ख़ुद को महत्वपूर्ण समझने वाली जनता भीष्म की तरह गर्दन नीचे किये बैठी रहेगी।
फिर पक्ष और विपक्ष मिलकर लोकतंत्र की मर्यादा को दाँव पर लगा देते हैं। जीते हुए खिलाड़ियों के फोन खड़कने लगते हैं। विचारधारा, नैतिकता, लज्जा, गरिमा और सभ्यता जैसे शब्दों को बाहर फेंक दिया जाता है और अपने-अपने तीतरों को पिंजड़े में बन्द करके हर शिकारी दूसरे के पिंजरे से तीतर चुराने निकल पड़ता है। जो दो तीतर बटोर कर लाता है उसके ख़ुद के चार तोते उड़ जाते हैं। पूरे पर्यावरण में पंछियों का कलरव गूंजने लगता है।
पशुमेलों जैसा रमणीक वातावरण होता है। जिसकी जहाँ मर्ज़ी हो वह वहाँ लीद करके लोकतंत्र की भूमि को उर्वर करता रहता है। चूँकि हमारा संविधान सबको समानता का अधिकार देता है, इसलिए सभी शिकारियों को दूसरे के पिंजरे से चोरी करने के समान अवसर प्राप्त होते हैं। स्वतंत्रता के अधिकार का प्रयोग करके हमारे चुने हुए प्रतिनिधि किसी के भी साथ नैतिक-अनैतिक व्यभिचार करने को स्वतंत्र होते हैं।
संविधान की पीठ पर ढिठाई का सुमेरु रखकर दौलत के कोबरा द्वारा चुनाव परिणामों का मंथन किया जाता है। लोकतंत्र हलाहल पीता रहता है और राजनेता अमृत कलश लेकर सरकार बनाने निकल पड़ते हैं। शपथ ग्रहण महोत्सव में संविधान की जो शपथ ली जाती है उसके कारण संविधान की सेहत निरंतर गिरती जा रही है।
सरकार बनने के बाद सरकार अपनी सरकार बचाने में व्यस्त हो जाती है और विपक्ष पक्षी चुराने का अवसर तलाशने लगता है। जनता उस एक दिन की प्रतीक्षा करने लगती है जिस दिन उसे अपने महत्वपूर्ण होने का गुमान हो सके। जो सरकारें पाँच साल से पहले गिर जाती हैं, वे वास्तव में लोककल्याणकारी सरकारें हैं, वरना इतनी व्यस्तता में किसके पास फ़ुरसत है जो जनता को महत्वपूर्ण होने का आभास कराए!
© चिराग़ जैन
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