जो समाज अपनी भाषा के प्रति लापरवाह होता है, उसके हाथों से उसकी संस्कृति फिसल जाती है। भारत में, वह भी उत्तर भारत में, उस पर भी उत्तर प्रदेश में हिंदी भाषा की परीक्षा के परिणाम आश्चर्य से अधिक क्षोभ से भर देते हैं।
राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति की महानता का ढोल पीटने वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी तो आशा जगी कि अब संस्कृत और हिंदी भाषा का उद्धार हो जाएगा। लेकिन इसी सरकार के कार्यकाल में संस्कृत की पढ़ाई के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लग गए। विश्विद्यालयों में हिंदी भाषा और संस्कृत भाषा की स्थिति दयनीय हो गई।
कलाओं के संवर्द्धन के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक पूरा प्रकल्प ‘संस्कार भारती’ के नाम से चलता है। इस प्रकल्प की स्थापना के पीछे भी यही सोच थी कि कविता, नृत्य, संगीत और लोककलाओं की इम्यूनिटी बढ़ाई जाए तो सांस्कृतिक प्रदूषण से देश की सेहत बची रहेगी। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य पुरस्कारों की सूची में से कविता और साहित्य को बाहर करने में मिनिट नहीं लगाया। सूर, तुलसी, निराला, प्रसाद, महादेवी, बच्चन जैसे कवियों का उत्तर प्रदेश कवियों को सम्मानित करने से पल्ला झाड़ गया।
वामपंथी सरकार में हों तो उनका भारतीय कलाओं और भारतीय संस्कृति से विशेष वैर है ही। कविता के नाम पर जो कुछ वे पढ़ाते हैं उससे अच्छे-ख़ासे कवियों का मोहभंग हो जाए। हाँ, मानवतावाद का उनका दृष्टिकोण स्तुत्य है किंतु वे उस समस्या के दूसरे चरम पर खड़े हो जाते हैं, जिसके एक छोर पर राष्ट्रवाद खड़ा है।
वामपंथियों की सत्ता विश्विद्यालयों में रही तो उन्होंने लालित्य से हीन भाषा और संस्कृति से हीन कलाओं को थोपकर भाषा और कलाओं का बेड़ा गर्क किया। समाजवादियों और सेक्यूलरों के पास भी राजनीति की व्यस्तताएँ इतनी अधिक हैं कि इन्होंने भी भाषा और शिक्षा के प्रति कोई विशेष गंभीरता नहीं दिखाई, लेकिन इन दोनों ने शिक्षा में भाषा की स्थिति को दयनीय बनाने का भी कोई उपक्रम नहीं किया। अब ये आए तो इन्होंने स्वयं को इतना महान मान लिया कि मीरा, सूर, कबीर को पाठ्यक्रम से नदारद करने में भी संकोच नहीं किया क्योंकि उन पृष्ठों पर विचारधारा को पोषित करनेवाली सामग्री प्रकाशित करनी आवश्यक लगी होगी।
जिस ज़मीन को कविता की जुताई नसीब न हो, उस पर न तो संस्कार बोए जा सकते हैं, न ही संस्कृति। एक समय में उत्तर प्रदेश का हिंदी पाठ्यक्रम सर्वश्रेष्ठ होता था। डॉ मुरली मनोहर जोशी ने विज्ञान का शोध हिंदी भाषा में इसी प्रदेश से किया। यहाँ की बोलियों का लालित्य, यहाँ की भाषा, यहाँ का उच्चारण, यहाँ का लोक साहित्य... यह सब छिन गया तो संस्कृति का नाम संग्रहालयों में भी नहीं मिलेगा।
विचारधाराओं के इस नाटक में भाषाएँ नेपथ्य में जा रही हैं और कलाएँ बेचारगी के साथ कोने में पड़ी कुम्हला रही हैं। कलाकार का नाम जानने से पहले उसकी वैचारिक जाति पूछी जाती है। कविताओं से उनका गोत्र और सहित्य से उसका आधार कार्ड मांगा जा रहा है। विमर्शों की महामारी से ग्रस्त हिंदी साहित्य पहले ही जर्जर हुआ जाता है, ऐसे में प्रतिभा से उसकी जाति पूछकर सरकारी तंत्र करेले की बेल को नीम पर चढ़ाने का काम कर रहा है। इन हालों आप समाज से उसकी भाषा छीन लेंगे, और गूंगा समाज अपने नेताओं के जयकारे भी नहीं लगा पाता।
© चिराग़ जैन
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