एक गर्भिणी हथिनी, तीन दिन तक अपने भीतर पल-पल बढ़ती टीस का कारण समझने की कोशिश में तड़प-तड़पकर मर गई। अपने जर्जर मुँह पर मनुष्य के बर्बर चेहरे के हस्ताक्षर लिए वह माँ अपने बच्चे को साथ लेकर दूर चली गई।
‘मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया, तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया’ की हिक़ारत के साथ उसके जलसमाधि ले ली। अपनी धर्मपरायणता का ढोंग करते मनुष्य ने कब अपने दिल में पत्थर विराजित कर लिए, पता ही न चला। स्वयं को गॉड फीयरिंग कहनेवाले आदमी के इस दुःसाहस को देखकर गॉड भी (अगर कहीं हो तो) काँप गया होगा।
हथिनी तो गणपति भाव से मनुष्य के भीतर उग आए पशु की कथा लिखकर चली गई, लेकिन उसकी मौन कराह मनुजता के ध्वंस का एक ऐसा अध्याय प्रारम्भ कर गई है, जिसका हर पलटता पृष्ठ मनुष्यता से हीन मनुष्य जाति के पटाक्षेप की वक़ालत करता रहेगा।
समुद्र से उठते भीषण चक्रवात, हवा में घुलता जा रहा विष, मर्यादा की लक्ष्मण रेखा लांघती सूनामी, रह-रहकर काँप उठती धरती, आग बरसाता आसमान, रिहायशी इलाक़ों में घुस आए तेंदुए, खेतों पर टूट पड़ते टिड्डीदल, खड़ी फसल पर गिरते ओले, हज़ारों की संख्या में बिछी चमगादड़ों की लाशें, जगह-जगह हो रहे गृहयुद्ध, चरमराती व्यवस्था में पनपती अराजकता और वर्चस्व की होड़ में अनदेखा होता अस्तित्व; चीख़-चीख़ कर मनुष्य को अल्पविराम का इंगित कर रहा है।
एक पल, ठहरकर संवेदनाओं को पोषित करने की सलाह दे रहा है। एक क्षण, बैठकर पैरों को विश्राम देने की दुहाई दे रहा है ताकि मस्तिष्क तक रक्त का संचरण हो सके और मस्तिष्क अपनी दिशा-दशा पर विचार करने में सक्षम हो पाए। एक लम्हा, रुककर धौंकनी बन चुके फेफड़ों में प्राणवायु भर लेने की सिफ़ारिश कर रहा है।
उस मूक संवेदना की इस दर्दनाक़ मौत को भी इस अल्पविराम का निमित्त नहीं बनाया गया तो पूर्णविराम लगाना प्रकृति की विवशता होगी।
© चिराग़ जैन
Ref : Kerala Elephant Murder Case
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