जिसको सुख का उत्सव समझा,
वो दुख का आयोजन निकला
जिसके भाव सुकोमलतम थे,
उसका नाम विभीषण निकला
जीवन भर विश्रांत रहा जो, हमने उसको शांतनु माना
जिसने हर अनुशासन तोड़ा, उसका नाम सुशासन जाना
जिसका जीवन लाचारी था, उसका परिचय भीष्म बताया
अपशकुनों का मूल रहा जो, वह जग में शकुनी कहलाया
कृष्ण कहा जिसको दुनिया ने, वह जग का आभूषण निकला
जिसके भाव सुकोमलतम थे, उसका नाम विभीषण निकला
नाम श्रवण था जिसका, उसने आहट नहीं सुनी दशरथ की
एक मंथरा क्षण भर में ही इति बन गई हर सुख के अथ की
मानी को समझाने अंगद बनकर बुद्धि स्वयं आई थी
कुम्भकर्ण तक जाग गया पर रावण पर तंद्रा छाई थी
मुख दिखलाने योग्य नहीं जो, वह कुल्हन्त दशानन निकला
जिसके भाव सुकोमलतम थे, उसका नाम विभीषण निकला
जिस वेला में राजतिलक होता उसमें वनवास हुआ है
उत्सव की चौसर पर कुल की लज्जा का उपहास हुआ है
कंचन मृग लाने निकले थे, घर की मृगनयनी खो बैठे
खाण्डव वन को स्वर्ग किया था, ख़ुद ही वनवासी हो बैठे
जिस अवसर पर मेल लिखा था, उसका अंत विभाजन निकला
जिसके भाव सुकोमलतम थे, उसका नाम विभीषण निकला
© चिराग़ जैन
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