सोशल मीडिया पर रचना का सम्मान किया जाता है, रचनाकार का नहीं। ठीक इसी प्रकार जैसे सरकार ग़रीबी के हित की चिंता करती है, ग़रीब के हित की नहीं।
लगभग प्रत्येक सोशल नेटवर्किंग साइट ने किसी की रचना बहुत पसंद आने पर उसे ‘शेयर’ करने का विकल्प बनाया है, लेकिन चूँकि बनी हुई लकीरों पर चलनेवाले लोग इतिहास में नाम दर्ज नहीं करा पाते इसलिए सोशल मीडिया के मेहनती लोग एक क्लिक के इस आलस्यपूर्ण मार्ग को छोड़कर उस सामग्री को कॉपी करते हैं, फिर अपनी वॉल पर उसे पेस्ट करते हैं। फिर उसके नीचे से रचनाकार का नाम मिटाते हैं, कुछ अतिरिक्त परिश्रमी उसके नीचे अपना नाम भी लिखते हैं। इतनी मेहनत करने के बाद इनकी पोस्ट पर जो प्रशंसात्मक टिप्पणियाँ आती हैं, उनको भी ये बड़ी विनम्रता से ग्रहण करते हैं। मूल रचनाकार इतनी सारी प्रशंसा बटोरकर पथभ्रष्ट न हो जाए इसलिए ये देवदूत प्रशंसकों को पथभ्रष्ट करके उनके हिस्से की प्रशंसा का हलाहल पचा जाते हैं।
यदि कोई टुच्चा रचनाकार इस तरह की किसी महानता पर ऐतराज़ जताता है तो इस पंथ के सभी अनुयायी इकट्ठा होकर उस रचनाकार को धिक्कारने लगते हैं। इस धिक्कार यज्ञ में जो मंत्र पढ़े जाते हैं उनका समवेत तात्पर्य यह होता है कि ‘आपकी रचना पसंद आई इसीलिए तो कॉपी-पेस्ट की, आपको तो ख़ुश होना चाहिए कि आपकी रचना को प्रचारित किया जा रहा है, आपने रचना प्रकाशित कर दी तो वह अब जनता की हो गई, आपकी सोच छोटी है इसलिए यह घटिया विवाद कर रहे हो, आदि आदि।’ ज़्यादा बहस करनेवाले लोगों से यहाँ तक पूछ लिया जाता है कि तुम्हारे पास क्या सबूत है कि तुमने ही लिखी है, हो सकता है तुमने भी कहीं से चुराई हो!
अपनी रचना चोरी होने की शिकायत करनेवाला अपराधी काफ़ी अपमानित और शर्मिंदा होने के बाद ब्लॉक हो जाता है। ब्लॉक होते ही सर्जक और उपभोक्ता के मध्य एक दीवार उठ जाती है, रचनाकार दीवार के इस पार किलसता रह जाता है और रचना उस पार तारीफ़ें बटोरती रहती है।
कविता, लेख, व्यंग्योक्ति, फ़ोटो, कैरिकेचर, संगीत, स्वर, वीडियो शॉट, पेंटिंग, क्लिप आर्ट और डिजिटल डिज़ाइन जैसे सभी अमूल्य रत्न, मूल रचनाकार की गुदड़ी से उठाकर अपनी वॉल के शोरूम पर ले जाने वाले ये जौहरी रचनाकार को शोहरत और क़ामयाबी के नशे से बचाते हैं। हास्य की लघुकथाओं के माथे पर चुटकुले का फट्टा चिपकाकर उन्हें लावारिस करने की परंपरा तो युगों-युगों से चली ही आ रही है। जब पूरी-पूरी कविता, लेख और लघुकथा ही अपनी साड़ी नहीं बचा पाती तो ऐसे में वन लाइनर, विचार और व्यंग्योक्ति की मिनी स्कर्ट की तो बात ही क्या करनी। लोकोक्तियां, मुहावरे, लोकगीत, दंतकथाएँ, गल्प आदि इसी प्रवृत्ति के पुरखों के सद्प्रयासों से लावारिस हो चुके हैं।
राजनेता शायरों के अशआर पढ़कर भाषण जमाते हैं लेकिन शायर को न तो श्रेय मिलता न अर्थ। फ़िल्म अभिनेता रोज़ अपने सोशल हेंडिल पर कुछ न कुछ चेप देते हैं, लेकिन श्रेय कभी किसी को नहीं देते। हाँ, उनके बाबूजी की कविता को श्रेय देकर भी कोई कहीं उध्दृत कर दे तो वे कॉपीराइट का नोटिस ज़रूर भिजवा देते हैं। मोटिवेशनल स्पीकर्स बिना नाम के कविताएँ और सूक्तियां उद्धृत करके मूल रचनाकारों को डिमोटिवेट करते ही रहते हैं।
अरे भाई, कुम्हार की तो नियति ही है भट्ठी का ताप सहना। उसके बर्तनों को कुम्हार की ज़िंदगी के अभिशाप से दूर ले जानेवाला देवता नहीं तो और कौन है। तुमने बच्चा पैदा कर दिया, अब उसके सर्टिफिकेट में बाप के नाम की जगह कोई टाटा-बिड़ला अपना नाम लिख दे तो तुमको आपत्ति क्यों है? शर्म आनी चाहिए, अपनी शोहरत के लिए तुम अपने बच्चे की प्रगति में बाधक बनना चाहते हो।
इससे ज़्यादा घटियापन और क्या होगा कि कॉपी-पेस्ट करनेवाले महान परोपकारियों के मार्ग में मुश्किलें खड़ी करने के लिए अच्छे भले टेक्स्ट को इमेज बनाकर, उस पर अपना नाम, वॉटरमार्क और लोगो आदि सब चिपकाकर पोस्ट करने लगे हैं। लेकिन कर्मठ महान लोग ऐसी चुनौतियों से घबराते नहीं, बल्कि फोटोशॉप पर उस वॉटरमार्क, लोगो और नाम को हटा देते हैं। यदि यह सम्भव न हो तो उस रचना को अपनी कोमल अंगुलियों से दोबारा टेक्स्ट फॉर्मेट में कम्पोज़ करके फिर पोस्ट करते हैं। कितनी भी मेहनत क्यों न करनी पड़े, लेकिन ये मूल रचनाकार को सफलता के अहंकार से बचाने के लिए कटिबद्ध हैं।
जो लोग बिना नाम की रचनाओं पर कमेंट और लाइक करते हैं, वे इन महान देवदूतों को प्रोत्साहित करते हैं। यदि लोग बेनाम रचनाओं पर प्रतिक्रिया देना बंद कर दें तो ये बेचारे देवदूत हतोत्साहित होकर विलुप्त हो जाएंगे, लेकिन आम खानेवाले को इस बात से क्या लेना-देना की जिस बाग़ में यह मिठास उपजी है उसके माली के घर की रोटियां कौन चबा रहा है।
© चिराग़ जैन
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