कोरोना वायरस लॉन्च होते ही साबुनों के विज्ञापन की भाषा बदल गई। हमें बताया गया कि ‘कोरोना वायरस से बचाव के लिए अमुक साबुन से बीस सेकेंड तक हाथ धोएँ।’ च्यवनप्राश कम्पनियों ने बताया कि ‘कोरोना वायरस से बचाव के लिए इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए अमुक च्यवनप्राश खाएँ।’ डिजिटल फाइनेंस कम्पनियों ने बताया कि ‘डिजिटल पेमेंट अपनाएँ, ख़ुद को कोरोना के ख़तरे से बचाएँ।’ रिटेल होम डिलीवरी सर्विसेज ने बताया कि ‘घर से बाहर निकलकर कोरोना को आमंत्रित न करें, हम आपका सामान आपके घर पहुँचा देंगे।’ दवाई कम्पनियाँ भी ठीक इसी तर्ज पर ‘पहले से उपलब्ध दवाइयों को बेचने के लिए’ कोरोना की परिस्थितियों का लाभ उठा रही हैं।
मज़े की बात यह है कि इनमें से एक भी कम्पनी अपने विज्ञापन में शत प्रतिशत झूठ नहीं बोल रही। यह बाज़ार की सामान्य प्रवृत्ति है कि वह कोई भी चोगा पहन ले, लेकिन उसका प्राथमिक उद्देश्य व्यापार ही होगा।
बाज़ार हमारे भय का लाभ उठाता है। उसे पता है कि इस समय हम कोरोना से भयभीत हैं, इसलिए इस भय का नाम लेकर जो कुछ बेचा जाएगा, वह बिक जाएगा। इसी भय का लाभ अधकचरे ज्योतिष, पोंगा पंडित, नीम हकीम, तंत्र-मंत्रवाले बाबा, झाड़-फूँक वाले मौलवी भी उठाते हैं।
बाज़ार पहले मांग पैदा करता है, फिर माल बेचता है। और अगर किसी प्राकृतिक कारण से कोई मांग स्वतः उत्पन्न हो जाए तो अपने माल की पैकेजिंग उसकी पूर्ति के अनुरूप कर लेता है।
भूकम्प, बाढ़, महामारी, भुखमरी, अकाल जैसी परिस्थितियों में ऐसी नई पैकेजिंग अक्सर दिखाई देती है। जब कोई बड़ा भूकम्प आ जाए तो सरिया, सीमेंट और फ्लैटबेचने वाले तुरन्त चिल्लाने लगते हैं- ‘भूकम्परोधी सरिया ले लो; भूकम्परोधी सीमेंट ले लो; भूकम्परोधी फ्लैट ले लो!’ कोई आश्चर्य नहीं कि किसी दिन कोई साबुन कम्पनी यह दावा कर दे कि जो हमारी साबुन से नहाएगा उसकी खूबसूरती भूकम्प के मलवे से ख़राब नहीं होगी। और कोई आश्चर्य नहीं कि हम इसको सच मान लें, क्योंकि हम पानी में डूबी कुर्सी देखकर फेविकोल के मजबूत जोड़ की बात को सच मानते ही आए हैं।
बाज़ार चाहे मजहब का चोगा पहन ले, चाहे समाजसेवा का; चाहे अस्पताल का चेहरा लगा ले, चाहे मीडिया का; चाहे कविता के मंच पर सवार हो, चाहे राजनीति के गलियारों में; उसका प्राथमिक उद्देश्य मुनाफ़ा ही होगा। उसकी नीतियाँ भी बाज़ारू ही होंगी। वह जनता की अभिरुचियों का अध्ययन करते हुए उसके अनुरूप अपने प्रोडक्ट की पैकेजिंग करेगा। ध्यान रहे, वह प्रोडक्ट नहीं बदलता सिर्फ़ पैकेजिंग बदलता है। विज्ञापन का शरीर लोककल्याण की भाषा बोलता है लेकिन उसकी आत्मा बाज़ार की फड़ पर खड़ी होकर माल बेचने में संलग्न होती है।
जो लोग बाज़ार तलाशते हुए साहित्यकार या कवि बने फिरते हैं, वे समाज को न तो कोई नया विचार दे पाते हैं, न ही कोई नई बात। यदि समाज उद्वेलित हो तो वे भड़काऊ लेखन से उनके उद्वेलन में वृद्धि करने लगते हैं। वे अपने लेखन के दम पर समाज का मूड बदलने का कोई उपक्रम नहीं करते, वरन समाज का मूड देखकर अपने लेखन की भाषा बदल लेते हैं।
इस सबसे ज़्यादा भयावह यह है कि अब राजनीति भी बाज़ार के सिद्धांतों पर चलने लगी है। वही डर का सिद्धांत। पहले तंत्र की अनियमितताओं को उजागर किया जाता है। वर्तमान सरकार के प्रति असंतोष को बढ़ावा दिया जाता है। और जैसे ही जनता असंतोष से भर जाती है, तो बेनक़ाब करनेवाले ख़ुद वोट मांगने के लिए झोली पसार देते हैं।
यह कथन किसी भाजपा, किसी कांग्रेस, किसी वामपंथ, किसी समाजवाद पर ही नहीं अपितु वर्तमान राजनीति की पूरे चरित्र पर लागू होता है।
ऐसे में सही राजनेता, सही साहित्यकार, सही दवा विक्रेता, सही मीडिया और सही मजहब की पहचान करने का तरीका क्या है। हो सकता है मेरा मत शत प्रतिशत सटीक न सिद्ध हो, किन्तु यदि गम्भीरता से विचार करें तो सम्भवतः हम वर्तमान बाज़ारवाद के शिकंजे को कुछ तो ढीला कर सकेंगे।
‘समाज की सामान्य सोच के विपरीत बात कहनेवाला व्यक्ति इस बात की पुष्टि करता है कि वह व्यक्तिगत रूप से हानि उठाकर भी अपनी बात कहने के लिए कटिबद्ध है। ऐसे व्यक्ति की बात को भी यदि हम आँख बंद करके सुनने की बजाय थोड़ा-सा विवेक लागू करके सुनें/समझें तो बाज़ार के हो-हल्ले में शायद सच की हल्की-सी आवाज़ हमारे कानों तक पहुँच सके।’
© चिराग़ जैन
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