Monday, June 29, 2020

राम, अधर मोरे पत्थर कर दे!

मैंने हैमंथस फैमिली के फायरबॉल लिली के फूल की फ़ोटो पोस्ट की और सहज परिहास में उसका शीर्षक लिखा ‘कोरोना फ्लॉवर’। नीचे कमेंट में कुछ गंभीर लोगों ने लिखा - ‘जानकारी न हो तो प्रकृति का मज़ाक न बनाएँ। इसका नाम फुटबॉल लिली है। हास्य के लिए नेता कम हैं क्या भारत में?’
मुझे समझ नहीं आया कि इसमें कैसे मैंने प्रकृति का अपमान कर दिया? राजनीति पर हास्य की चुटकी लो, तो कहा जाता है कि आप कवि हो, कविता लिखो, राजनीति मत करो। पति-पत्नी संबंधों में सहज हास्य की बात करो तो वहाँ नारी विरोधी होने का आरोप लगने लगता है। पुराने किस्से-कहानियों और पात्रों पर कुछ लिख दो तो भावनाएँ आहत हो जाती हैं। सरदारों, जाटों, बंगालियों, मारवाड़ियों, बनियों, जैनियों, ब्राह्मणों, ख़ानों, पठानों को क़िरदार बनाकर कुछ कह दो तो यह जातीय अपमान का मामला बन जाता है। भारतीयों की प्रचलित आदतों पर चुटकी ले ली जाए तो देश का अपमान हो जाता है। और अब प्रकृति पर एक सहज परिहास पर भी अंकुश लग गया।
सरकार पर मत हँसो क्योंकि यह प्रधानमंत्री का अपमान है, विपक्ष पर मत हँसो क्योंकि यह सत्ता का प्रोपेगेंडा है, न्यायालय पर मत हँसो क्योंकि यह न्यायालय का अपमान है... मुझे समझ नहीं आता कि इस देश के लोगों को ईश्वर ने ओंठ फैलाने की सुविधा दी ही क्यों है।
हास्य विद्रूपताओं से जन्मता है। जो समाज अपनी ख़ामियों पर हँसना छोड़ देता है, उसे उन ख़ामियों को सुधारने का अवसर नहीं मिलता। किसी की कमी बताने का हास्य से अधिक उपयुक्त कोई साधन हो ही नहीं सकता। अन्य किसी भी माध्यम से किसी को उसकी कमी बताई जाए तो युद्ध, झगड़े और क्लेश तक की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जो लोग परिहास को भी अपमान समझते हैं वे कुरुक्षेत्र में होम हो जाते हैं और जो लोग व्यंग्य को भी हँसकर स्वीकार करते हैं, वे युगनायक कृष्ण और राम कहलाते हैं।
और हाँ, उस पौधे का नाम फुटबॉल लिली भी नहीं है। फुटबॉल से रूप साम्य होने के कारण उस बेचारे हैमंथस फायरबॉल लिली को फुटबॉल कहकर चिढ़ाना अच्छी बात नहीं है।

© चिराग़ जैन

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