हम खोखले आदर्शों और तन्त्रीय विफलताओं के एक ऐसे शिकंजे में जकड़े जा चुके हैं, जिसमें से निकलने के लिए शिकंजे को जड़ समेत उखाड़ देने की शक्ति से कम बात न बनेगी।
संविधान एक ऐसी किताब है, जिसको किसी लोकतंत्र की रीढ़ कहा जा सकता है। किन्तु इस रीढ़ में स्लिपडिस्क कैसे किया जाता है, यह कला हमारी विधायिका को बख़ूबी मालूम है। विधायिका इसे हारमोनियम की तरह प्रयोग करती है। सुर इसमें सारे हैं, लेकिन किस खटके को कब दबाकर अपने मतलब का राग अलापा जाए, यह ज्ञान राजनीति के ककहरे में सिखा दिया जाता है। सत्ता संभालने से पूर्व इसी किताब की शपथ उठाई जाती है। जब शपथ-ग्रहण चल रहा होता है, तब शपथ लेनेवाले को भी ज्ञात होता है कि इस शपथ से बड़ा झूठ दुनिया में कोई नहीं है। शपथ दिलानेवाला भी जानता है कि शपथ की शब्दावली पूर्ण होने तक भी यह शपथ नहीं टिकेगी। लेकिन शपथ-ग्रहण की औपचारिकताओं का अभिनय चलता रहता है और विनम्रता की भूमिका अदा करता ‘जनप्रतिनिधि’ बिना पैसा ख़र्च किये एक मिनिट से भी कम समय में पूरे देश को यह बता देता है कि ‘मैं (नया मसीहा) अब तुम्हारा देश चूसने के लिए अधिकृत हो गया हूँ।’
ये शब्द सुनते ही पूरी ब्यूरोक्रेसी उसके जूते के नम्बर के मुताबिक अपनी खोपड़ी सेट कर लेती है। वह जिस क्षेत्र पर पिकनिक मनाने निकलता है, वहाँ तहलका मच जाता है। इससे अधिक क्या तबाही होगी कि उस क्षेत्र के सरकारी कर्मचारियों की नींद उड़ जाती है। अधिकारी रात-दिन दफ़्तर में रहकर चप्पे-चप्पे पर अपनी और अपने कर्मचारियों की खोपड़ियाँ बिछाते हैं कि पता नहीं किस चप्पे पर साहब का मन जूता मारने को मचल उठे, वह चप्पा ख़ाली रहा तो साहेब को कितनी निराशा होगी। ध्यान रहे कि हमारी संवेदनशील ब्यूरोक्रेसी यह सब श्रम साहेब को ख़ुश करने के लिए करती है, जनता को ख़ुश करने के लिए नहीं। साहेब भी यह बात अच्छी तरह जानते हैं, इसलिए ब्यूरोक्रेसी का दिल दुखाये बिना, वे ख़ुश होकर लौट आते हैं। दोनों के बीच का यह समर्पण देखकर जनता की आँखों में ख़ुशी के आँसू आ जाते हैं।
सब कुछ अभिनय मात्र है। औपचारिकताओं की इतनी लंबी फेहरिस्त है कि जीवन और औपचारिकताओं की होड़ में जीवन हमेशा छोटा रह जाता है।
संविधान में एक मज़ेदार बात और लिखी है कि संविधान का अपमान करनेवाले को बख़्शा नहीं जाएगा। इस बात ने संविधान को धर्मग्रन्थ बना दिया है। अब अगर किसी को इस किताब को जलाते, पटकते, गिराते, फाड़ते देखा गया या इस किताब पर प्रश्नचिन्ह लगाते देखा गया तो वह राष्ट्रद्रोही माना जाएगा लेकिन अगर कोई विधिवत इसको पढ़कर इसके साथ खिलवाड़ करे तो उसे पकड़ना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।
हमारा संविधान इतना लचीला है कि अगर मेरा इस तंत्र के किसी रेशे से पंगा हो जाए तो इस लेख में संविधान को महज एक किताब कहने के अपराध में मुझ पर कार्रवाई हो जाएगी और मुझे तंत्र के रेशों को ख़ुश करना आ जाए तो फिर पूरी किताब मेरे पक्ष में काम करने लगेगी।
हमारे यहाँ वक़ालत में न्याय दिलाने की पढ़ाई नहीं कराई जाती, बल्कि यह सिखाया जाता है कि इस किताब को किस कब किस एंगल पर रखकर न्याय को और जटिल बनाया जा सकता है। जो जितना जटिल बना दे, वह उतना बड़ा वक़ील। न्यायाधीश अपने कोर्ट में अधिवक्ताओं के इस कौशल को देखकर प्रसन्न होते रहते हैं। न्यायाधीश जानते हैं कि वक़ील अपने लाभ के लिए केस को लंबा किये जा रहे हैं। अदालतें न्याय नहीं देतीं, वे वैराग्य देती हैं। जो दो लोग विवाद के चरम तक पहुँचकर अदालत में आए हों, उन्हें यह ज्ञान कराया जाता है कि ‘जो लोग आपस में लड़ते हैं उन्हें अदालतों के चक्कर लगाने पड़ते हैं।’ यह ज्ञान होते ही वे दोनों लड़ाके कोर्ट की कैंटीन में बैठकर हँसी-ख़ुशी आपस का विवाद सुलझा लेते हैं। दोनों पक्ष थोड़ा-थोड़ा झुक जाते हैं और विवाद सुलझ जाता है। इससे समाज में आपसी सौहार्द, विनम्रता, मेलमिलाप और भाईचारा बढ़ता है। एक पंथ, दो काज हो जाते हैं। अदालतों का मनोरंजन भी हो जाता है और विवाद भी स्वतः सुलझ जाते हैं। लेकिन ध्यान रखना कि इन अदालतों के विरोध में कुछ भी कहा तो कहीं के नहीं रहोगे।
कार्यपालिका का तो कहना ही क्या। वे इस तंत्र के सबसे सरल सोपान हैं। कोई छिपाव नहीं। कोई हिप्पोक्रेसी नहीं। कोई ड्रामेबाज़ी नहीं। सीधी बात, पैसा है तो ठीक, वरना रगड़ दिए जाओगे। अब यह मत सोचने लगना कि कैसे रगड़ दिए जाओगे। शुरू से यही बात समझा रहा हूँ। पुलिसवाला नाराज़ हो गया तो किसी को भी, किसी भी समय चार-पाँच धाराएँ लगाकर धर लेगा। वे धाराएँ सही हैं या ग़लत -इसे सिद्ध करने के लिए अदालत जाना पड़ेगा। वहाँ चल रहे मनोरंजन कार्यक्रम में बीच-बीच में एकाध सीन आपका भी जुड़ जाएगा। उसमें न्याय तलाशने के लिए संविधान टटोलोगे तो अंत में यही ज्ञान होगा कि तंत्र से पंगा नहीं लेने का, वरना धरे जाओगे!
यही बात तो मैं समझा रहा हूँ। लेकिन किसको समझा रहा हूँ। उस जनता को, जो दस-पाँच हज़ार करोड़ के घोटाले को भ्रष्टाचार मानना बंद कर चुकी है। उस जनता को, जो तंत्र के किसी तिनके से पहचान निकलते ही ख़ुद भ्रष्टाचारी होने को तैयार बैठी है। उस जनता को, जो एप्रोच और रिश्वत की सरल राह पर चलने को धर्म मान बैठी है। उस जनता को, जो दो-चार मर्डर और एकाध बलात्कार करनेवाले को वोट दे आती है। उस जनता को, जो अपनी ख़ामोशी से राजनीति को शोषक, न्यायपालिका को अकर्मण्य और कार्यपालिका को भ्रष्ट होने के अवसर उपलब्ध कराती है।
और कौन समझा रहा है? मैं, जो इस कालखण्ड में अपनी समझ के अनुसार परत-दर-परत आकलन करने के बावजूद सम्पूर्ण क्रांति के एकमात्र उपाय की ओर इंगित करने से इसलिए बचता हूँ कि इस तंत्र से पंगा कौन ले!
हम निराशा के उस छोर को छू रहे हैं, जहाँ उम्मीदों की लाशें सड़ांध मारने लगी हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, दफ़्तर, चुनाव, कला, मीडिया, कृषि सब जगह माफ़िया काम कर रहा है। देश की जड़ों में जो घुन लगा है, वह भी अब भूखा मर रहा है। चीख़ने की ज़रूरत है और हम बोलने में भी हिचक रहे हैं।
इस तंत्र के कुछ ऐसे अंग हैं, जो गुप्त रूप से तंत्र में विद्यमान हैं। तंत्र के विविध रेशे अपनी सुविधा के अनुसार इन अंगों का उपभोग करते रहते हैं।
युवा इस बात से ख़ुश हैं कि ‘यूट्यूब पर फलाने बंदे की वीडियो देखकर मज़ा आता है, क्योंकि वो सबकी जमकर लेता है।’ जो जितना अश्लील, वह उतना हिट। और हम शालीनता के लबादे में अश्लील होने का अवसर तलाशते किंपुरुष।
युवा अबोध हैं, इसलिए बिना झिझके अश्लीलता को लाइक करते हैं। हम समझदार हैं इसलिए चोरी-छिपे मन ही मन लाइक करते हैं, पर बाहर से शालीन बने रहते हैं।
इस दोहरे चरित्र के साथ तन्त्रीय विफलताओं के इस शिकंजे को उखाड़ना असम्भव है। हम रोज़ ख़ुद से झूठ बोलते हैं कि सब सही हो जाएगा। क्योंकि ज्ञान हमें झूठ बोलना सिखाता है और व्यवहारिक ज्ञान हमें ख़ुद से झूठ बोलना सिखाता है।
© चिराग़ जैन
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