Saturday, June 20, 2020

आपातकाले मतभेद नास्ते

22 मार्च 2020 के बाद हमारी ज़िंदगी पूरी तरह बदल चुकी है -यह हमें स्वीकार करना चाहिए। वायरस की दहशत से शुरू हुई इस अंधी सुरंग से हमारे मन-मानस को कब और कैसे मुक्ति मिलेगी इसका सही-सही अनुमान लगाना कठिन है।
सरकारें अपनी-अपनी क्षमता और प्रवृत्तियों के अनुरूप निरंतर सक्रिय हैं। राजनैतिक उठापटक और पक्ष-विपक्ष की छीछालेदर भी अनवरत जारी है। इधर प्रकृति नित नई मुसीबत खड़ी कर रही है, उधर पड़ोसी राष्ट्रों की ओर से भी इस सुरंग के अंधकार को भयावह बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है।
जब सूरज तपता है, तो ग़रीब की झोपड़ी भी तपती है और अमीर की कोठी भी। जब बादल बेकाबू होता है, तो पानी की मूसल भाजपाई को भी सताती है और कांग्रेसी को भी। जब भूकम्प आता है, तो मंदिर के गुम्बद भी थर्राते हैं और मस्जिद की मीनारें भी। जब बम गिरता है, तो डालियाँ भी ध्वस्त होती हैं और तने भी।
संकट, समस्त विविधताओं को एकाकार करने का अवसर है। पीड़ा, समस्त विवादों को मौन कर देती है। जब हवा सुहानी हो तो हम देह को विस्तार देकर उसका भोग करते हैं किन्तु जब आंधी आती है तो हम संकुचित होकर आत्मरक्षा करते हैं।
इस समय बीमारी, बेकारी और बमबारी की चिंताएँ सुरसा की तरह मुँह बाए देश की सुख-शांति को लील रही हैं। यह समय न तो इतिहास की भूलों को कोसकर वर्तमान की विफलताओं पर पर्दा डालने की अनुमति देता है, न ही वर्तमान की सत्ता को पदच्युत करके भविष्य के सपने देखने का अवसर देता है।
मँझधार में नाव नहीं बदली जाती। भारतीय लोकतंत्र में चाहे-अनचाहे लगभग हर सामाजिक व्यक्ति किसी न किसी राजनैतिक दल अथवा विचारधारा से जुड़ाव और असहमति महसूस करता है। ऐसे में वर्तमान सरकार से भी कुछ लोगों के मतभेद होना स्वाभाविक है। लेकिन यह भी सत्य है कि शत्रु का आक्रमण होने के बाद अपने पक्ष को समर्थन देना ही एकमात्र धर्म होता है। चुनौती के समाप्त होने तक अच्छा या बुरा, जो भी व्यक्ति हमारी ओर से मोर्चे पर खड़ा हो उसका समर्थन करना आवश्यक है। किसी सरकार की नीतियों और सोच को परिमार्जित करने का कार्य शांतिकाल में समीचीन होता है। यदि कोई सुझाव देना भी हो तो उसकी भाषा कटाक्ष अथवा उपालंभ से रहित होनी आवश्यक है।
उधर, भागदौड़ से भरी ज़िंदगी यकायक ठहर गई है। एकाकीपन और निठल्लापन जनता को भीतर ही भीतर खाए जा रहा है। जनता अवसाद और नकारात्मकता के माहौल से घिरती जा रही है। ऐसे में सरकार का भी दायित्व है कि वह जनता की भावनाओं को सम्मान दे। जनता के क्षोभ और नैराश्य को बढ़ानेवाली कोई भी घटना, बयान या हरक़त इस समय सरकार की ओर से न हो, तो जनता का सरकार पर विश्वास बढ़ेगा।
समय विपरीत हो तो विनम्रता से सबको एक सूत्र में बंध जाना चाहिए। माला कितनी भी बेतरतीब हो, लेकिन वह अलग-थलग पड़े मोतियों से तो ज़्यादा ही महत्व रखती है।

© चिराग़ जैन

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