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Friday, November 22, 2024
असंतोष
Monday, November 18, 2024
राजनीति
Tuesday, November 12, 2024
डॉ प्रवीण शुक्ल
Monday, November 11, 2024
मन बोलता है
कलरव के स्वर गौण हो गए
जीवन की रफ़्तार सो गई
दिन पर रात सवार हो गई
ऐसा एकाकी पल पाकर मन हमको झकझोर उठा
जब बाहर सन्नाटा पसरा, तब अन्तर में शोर उठा
कितनी इच्छाएँ प्यासी थीं, कितने काम अधूरे निकले
डुगडुगियों पर नाच रहे थे, हम तो एक जमूरे निकले
कर को कमल, पदों को पंकज मान रही थी दुनिया लेकिन
हमने अपनी शाख टटोली, उस पर सिर्फ़ धतूरे निकले
जब सारे पाखण्ड सो गए, तब भीतर का चोर उठा
जब बाहर सन्नाटा पसरा, तब अन्तर में शोर उठा
पिण्डलियों ने ताने मारे, रीढ़ दुखी, सिसकी-सी आई
ऐंठे-ऐंठे कन्धे देखे, अकड़ी-अकड़ी गर्दन पाई
आँखों में अंगार भरे थे, पलकों पर पर्वत लटके थे
माथे की नस ने भी उस पल शायद कोई गारी गाई
तन की अनदेखी का किस्सा होकर कुछ मुँहज़ोर, उठा
जब बाहर सन्नाटा पसरा, तब अन्तर में शोर उठा
दिन में फिर भी छिप सकते हैं, रातों में कुछ ओट नहीं है
रातें जिसको देख न पायें, ऐसा कोई खोट नहीं है
आँसू से आँखें धुल जायें तो शायद आराम मिले कुछ
वरना अंतर्मन के शब्दों से बढ़कर तो चोट नहीं है
मन हल्का होकर सोया तो, लेकर नयी हिलोर उठा
जब बाहर सन्नाटा पसरा, तब अन्तर में शोर उठा
Wednesday, October 16, 2024
पराजित विजेता
ये शाखों के साथ बहे हैं
सूखे हुए पड़े जो भू पर
इनके कोमल गात रहे हैं
हर मौसम से जूझे हैं ये, जूझे हैं, फिर टूट गए हैं
ये उपवन के वो साथी हैं, जो शाखों से छूट गए हैं
तूफानों का वेग सहा है, अब झोंकों से डरते हैं ये
अपनी पूरी देह कँपाकर, उपवन में स्वर भरते हैं ये
मिट्टी में मिलकर भी अपना, कण-कण उपवन को देते हैं
कोंपल को भोजन मिल पाए, इस कोशिश में मरते हैं ये
जिनको धूर्त समझते हो तुम
ये कल तक भोले-भाले थे
जो सूखे बदरंग हुए हैं
कल तक ये भी हरियाले थे
शुष्क हवा के हाथों छलकर, अब ये ख़ुद से रूठ गए हैं
ये उपवन के वो साथी हैं, जो शाखों से छूट गए हैं
जिनको पग-पग खोट मिला हो, वे जन खरे नहीं रह पाते
जो पत्ते अंधड़ से जूझे, फिर वो हरे नहीं रह पाते
आदर्शों के सपने छोड़ो, कड़वी मगर हकीकत ये है
जिनसे सबने प्यास बुझाई, वे घट भरे नहीं रह पाते
इतनी काली रात नहीं थी
ऐसी कठिन बिसात नहीं थी
डाली ने उकसाया वरना
आंधी की औकात नहीं थी
अंधड़ आया, डाली लचकी, ठूठ मुनाफा लूट गए हैं
ये उपवन के वो साथी हैं, जो शाखों से छूट गए हैं
साथी अवसरवादी निकले, बीच युद्ध में बात बदल ली
अड़ने की आदत थी उनकी, वह आदत उस रात बदल ली
तेज़ हवा ने वार किया तो डाली झूम-झूमकर नाची
तनकर खड़े तने ने झुककर, पल में अपनी जात बदल जी
जिसकी देह पड़ी धरती पर
उसने प्रण को पूजा होगा
लेकिन इतना तो निश्चित है
जो हारा, वो जूझा होगा
जिसने केवल जान बचाई, उसके दर्पण टूट गए हैं
ये उपवन के वो साथी हैं, जो शाखों से छूट गए हैं
✍️ चिराग़ जैन
Saturday, October 5, 2024
काँच
Friday, October 4, 2024
आकलन और आलोचना
Wednesday, October 2, 2024
सावधान, आगे सड़क है!
Monday, September 23, 2024
कहाँ शुरू कहाँ ख़त्म
Thursday, September 19, 2024
आधुनिकता और संस्कार
सासू को अखरती है
और बड़ी बहू
लम्बे से घूंघट में मोबाइल छिपाकर
आराम से
वीडियो काॅल करती है
-चिराग़ जैन
विज्ञान
Sunday, September 1, 2024
भाजपा आ गई
जब मीडिया वाले भी सच बोलते थे
सरकारी घोषणाओं की कलई खोलते थे
फिर हर तरफ बस एक ही तस्वीर छा गई
क्योंकि देश में भाजपा आ गई
विश्वास करो भाईसाहब
पैट्रोल पंप पर सिर्फ़ ईंधन का व्यापार होता था
फिर आ गई भाजपा
अब वहाँ भी साहिब का प्रचार होता था
ईडी और सीबीआई
लोकतंत्र के सिपाही थे
अपराध और भ्रष्टाचार के लिए तबाही थे
फिर आ गई भाजपा
अब इनके रिमोट ख़ुद जिल्ले-इलाही थे
जो हमसे पंगा ले
उसी को रगड़ दो
कैसे भी करके उस पर एक चार्जशीट जड़ दो
बाद में कोर्ट में डाँट पड़ती हो
तो पड़ने दो
विपक्ष को जेल में सड़ने दो
ख़ुद भाजपा के कार्यकर्ता
सारी ज़िन्दगी मेहनत करते थे
कि कभी तो उनके भी झंडे तनेंगे
आडवाणी जी को उम्मीद थी
कि एक दिन वो कुछ बनेंगे
फिर देश में भाजपा आ गई
सारी उम्मीदों पर पानी फिरा गई
पहले रेलमंत्री रेल का उद्घाटन करते थे
विदेश मंत्री विदेशों में विचरते थे
फिर हर मंत्रालय की योजनाओं पर
एक ही तस्वीर छप-छपा गई
क्योंकि देश में भाजपा आ गई
मंदिर, पद्मावत जैसे मुद्दे छाने लगे
महँगाई को विकास बताने लगे
रोज़गार, ग़रीबी जैसे मुद्दों को
गाय माता चबा गई
क्योंकि देश में भाजपा आ गई
पहले उद्योगपतियों के टैक्स के पैसे से
सरकार भरती थी घाटा
लेकिन फिर लोकहित को करके टाटा
सरकारी कंपनियाँ
उद्योगपतियों की जेब में समा गई
क्योंकि देश में भाजपा आ गई।
आते हुए जो सड़क बनी थी
वो जाने से पहले ही लड़खड़ा गई
क्योंकि देश में भाजपा आ गई
संसद लीक, पेपर लीक
एयरपोर्ट की छत धड़ाम
खिलाड़ी, डॉक्टर, किसान सड़क पर
अधबने मंदिर में श्रीराम
करोड़ों की मूर्ति ध्वस्त
साहिब फोटो खिंचवाने में मस्त
दो-दो इंजन के बाद भी
ट्रेन पटरी को ठेंगा दिखा गई
कमाल ही हो गया
इस देश में भाजपा आ गई
✍️ चिराग़ जैन
Friday, August 30, 2024
भरत मिलाप
पितु को कंधा देते-देते, बीते कल में खो गये भरत
यादों में उभरे आते थे, हँसते दशरथ, पुलकित दशरथ
सोचा, कैसे दिखते होंगे, अंतिम क्षण में पीड़ित दशरथ
चेहरे पर था अपराध-बोध, कंधे पर देह पिता की थी
वेदना बसी थी नस-नस में, साँसों में आग चिता की थी
जिस क्षण लपटों में घिरे तात, तब अंतस् में पिघली पीड़ा
हो गया कण्ठ अवरुद्ध और आँखों से बह निकली पीड़ा
कंचन-सी देह हुई माटी, माटी ले गयी सरयू बहाय
दस दिन दशगात्र हुआ लेकिन, आँसू रुकते ही नहीं हाय
विषघूँट नियति के निर्णय का, सबको पीना ही पड़ता है
कितना भी शोकाकुल हो मन, लेकिन जीना ही पड़ता है
इसलिए शोक-संतप्तों को, फिर याद दिलायी राजसभा
ठहरे जीवन को गति देने, मुनि ने बुलवायी राजसभा
हर मंत्री मौन धरे बैठा, राजा का आसन सूना था
क्या-क्या खोया, यह कर विचार हर सीने का दुःख दूना था
जो बीता उसका शोक त्याग, होना होगा कर्त्तव्यनिष्ठ
अब भरत संभालें राजकाज, स्वर को दृढ़ कर बोले वशिष्ठ
दो हाथ जोड़कर उठे भरत, बोले सबको संबोधित कर
कैसे विश्वास किया तुमने, मेरे जैसे कैकयीसुत पर
मेरे जैसे कुलघाती को मत अर्पित कर देना शासन
यह राज्य राम की थाती है, उनका ही है यह सिंहासन
रघुवंश शिरोमणि राघव को, वापस लौटाने जाऊंगा
श्री राम संभालेंगे शासन, मैं स्वयं मनाने जाऊंगा
यह निर्णय करते हुए सभा के बीच खड़े हो गये भरत
आश्चर्य सुखद होकर छाया, तत्काल बड़े हो गये भरत
चल दिया भरत बन भ्रातृप्रेम, कैकयी बन पश्चाताप चला
आशीष चला बनकर वशिष्ठ, ढाँढ़स की ओर विलाप चला
उत्साह चला, आशा दौड़ी, पीड़ा के संग यूँ खेद चला
कर्त्तव्यनिष्ठ के श्रम का अभिनंदन करने ज्यूँ स्वेद चला
आश्रम दौड़े, कुटिया दौड़ी, रथ भूला राजभवन दौड़ा
जंगल से अपना मन लाने, सुध-बुध खोकर हर तन दौड़ा
हर क्षोभ धुला, हर पीर छँटी, अवसाद राह में गया छूट
कोरा भाई रघुनन्दन का पहुँचा जाता था चित्रकूट
भावुकता के रथ पर चढ़कर दल वन को बढ़ता आता था
इनके चलने से धूरिमेघ अम्बर तक चढ़ता जाता था
लक्ष्मण ने दूर खड़े देखा, क्षण भर में यह अनुमान किया
निश्चित ही कैकयी के सुत ने संग्राम राम से ठान लिया
सोचा, सब कुछ चुकता होगा, भैया ने जो-जो कष्ट सहा
क्रोधित होकर सौमित्र चले, राघव को सारा हाल कहा
देखो भैया, सेना लेकर बढ़ता है अपनी ओर भरत
श्री राम जानते थे मन में, कितना है भाव विभोर भरत
लक्ष्मण बोले, भ्रम है उसको, वह हमको मार गिरायेगा
हम दोनों के मर जाने पर निष्कंटक राज्य चलायेगा
वह भूल गया सत्ता मद में, दशरथ का ही है लाल लखन
अग्रज के हेतु समर्पित है, वैरी के हित है काल लखन
भैया, मैं आगे जाता हूँ, सौगंध तुम्हारी खाता हूँ
कैकयी के बेटे का वध कर, फिर राज्य छीन ले आता हूँ
लक्ष्मण का क्रोध अपार हुआ, तब आसन से उठ गये राम
बिन सोचे क्या कह गये अनुज, संशय को कुछ तो दो विराम
जितनी पीड़ा तुमने भोगी, उतना ही दुःख उसने भोगा
इस समय भरत पर स्वयं भरत, तुमसे बढ़कर क्रोधित होगा
माना हाथी हैं, घोड़े हैं, आगे है ध्वजा अयोध्या की
निश्चित ही भावुक राजा के पीछे है प्रजा अयोध्या की
तुम कहते हो सत्ता मद में खींचेगा भरत हमें रण में
मैं कह भर दूँ, तो सिंहासन वह तुम्हें सौंप देगा क्षण में
"भैया-भैया" कहता उस क्षण आँगन तक भाई आ पहुँचा
भावुक मन अपनी काया की करता अगुआई आ पहुँचा
स्वर दौड़ा, दृष्टि अलग दौड़ी, धड़कन भागी, रुक गये भरत
अपना पूरा आचरण लिये, दो चरणों में झुक गये भरत
पैरों से जा लिपटा भाई, लगता था चुम्बक हुए राम
पीछे काया का स्पर्श हुआ, पहले आँसू ने छुए राम
फिर राम झुके, भाई के दोनों कंधे थाम लिये झुककर
धरती और शेषनाग दोनों यह दृश्य देखते थे रुककर
उच्चारण हिचकी में सिमटा, साँसों ने प्यार समेट लिया
दोनों ने चार भुजाओं में सारा संसार समेट लिया
इसका सीना धड़कन उसकी, इसका कंधा और सिर उसका
यूँ लिपटे ज्यों धमनी इसकी और उसमें बहा रुधिर उसका
दोनों ने मिलकर आँसू के जल से नहलाया आलिंगन
तीनों लोकों में उस क्षण से पावन कहलाया आलिंगन
आलिंगन में दो प्राण, परस्पर विद्यमान हो जाते हैं
आलिंगन में भरकर दो जन बिल्कुल समान हो जाते हैं
भाई से लिपटे हुए राम को दिखीं द्वार पर माताएँ
भीगी पालकों के साथ खड़ी वैधव्य धार कर माताएँ
पुंछ गया सिंदूर अयोध्या का, रघुकुल पर क्या आघात हुआ
ममता की सूनी मांग देख, सब हाल राम को ज्ञात हुआ
साकेत हुआ कितना विचलित, सरयू को कितना कष्ट हुआ
तीनों माताओं का पूरा अस्तित्व सूचनापट्ट हुआ
आनंदपाश छूटा, राघव की श्वास काँपकर सिसक गई
धक्-से दिल बैठ गया जैसे धरती नीचे से खिसक गई
मस्तक पर रेखाएँ उभरीं, नैना भीगे छोटे होकर
ममता के आँचल तक लाए, राघव अपनी काया ढोकर
मन घिरा पिता की यादों में, तन कैकयी के सन्निकट गया
जग का पालक, बालक होकर, माँ के आँचल में सिमट गया
कैकयी के मन का भार अश्रु का रूप धारकर बहता था
हे राम, अयोध्या लौट चलो, प्रायश्चित का स्वर कहता था
लक्ष्मण की शंका सच निकली, करने आया था युद्ध भरत
अन्तर केवल इतना-सा था, अंतर्मन से था शुद्ध भरत
जाने कितने ही तर्कों से भरकर निषंग ले आया था
राघव के राजतिलक का सब सामान संग ले आया था
लेकिन राघव भी राघव थे, दृढ़ता की ढाल उठाए रहे
दो वीर परस्पर जूझे; पर रघुकुल का भाल उठाए रहे
इक ओर राम की मर्यादा, इक ओर भरत की भावुकता
दोनों रघुवंशी अडिग रहे, ना ये झुकता, ना वो झुकता
हर रीति गिनी, हर नीति गिनी, शास्त्रोक्त सभी कुछ याद किया
ना राम थके, ना भरत थके, पहरों तक यूँ संवाद किया
अब से पहले इस दुनिया ने ऐसा संग्राम न देखा था
निष्ठा ने भरत न देखा था, दृढ़ता ने राम न देखा था
सब लोग भरत से सहमत थे, सब साथ भरत का देते थे
फिर भी नैया मर्यादा की, श्रीराम अकेले खेते थे
बस राम अयोध्या लौट चलें, ऐसा करके अनुमान भरत
भावुकता की प्रत्यंचा से करते थे शर-संधान भरत
उस ओर राम थे अडिग बहुत, मन को पत्थर-सा किए हुए
ज्यों कवच बनाकर पहने हों, दो वचन पिता के दिए हुए
दो धर्मनिष्ठ दुर्लभ योद्धा, इक युद्ध परस्पर लड़ते थे
निज सुख की अनदेखी कर के परहित के लिए झगड़ते थे
राघव बोले पितु आज्ञा है मुझको वन में रहना होगा
और भरत, तुम्हें राजा बनकर वह राज्यभार सहना होगा
हम दोनों साथ रहेंगे तो, पितु का बोला मिथ्या होगा
हम दोनों साथ रहेंगे तो, उन दो वचनों का क्या होगा
राघव का तर्क वृथा करके कह दिया भरत ने इक पल में
श्रीराम अयोध्या लौटेंगे, और भरत रहेगा जंगल में
हम दोनों भाई मिल जुलकर रघुकुल का वचन निभाएंगे
मैं वनवासी हो जाऊंगा, राघव राजा बन जाएंगे
इस भ्रातृनेह से बिंध करके, निरुपाय हो गए रामचंद्र
ऐसे निःस्वार्थ समर्पण से असहाय हो गए रामचंद्र
रच दिया भरत ने मोहव्यूह, एकल जिसमें घिर गए राम
ममता, अपनापन, स्नेह, भक्ति, अनुनय, आज्ञा, आदर तमाम
इक ओर नीति के रथ पर थे आज्ञा लेकर कुलगुरु वशिष्ठ
इक ओर उपस्थित थे सुमंत मंत्रणा हेतु कर्तव्यनिष्ठ
वात्सल्य बिंदु पर कौशल्या थी अपनी पीड़ा ओढ़ खड़ी
प्रायश्चित के आँसू लेकर कैकयी माँ थी कर जोड़ खड़ी
निर्लिप्त सुमित्रा माता थी, चेहरे पर कोई भाव न था
राघव ने उनका मन देखा, आशा का तनिक अभाव न था
वह समझ चुकी थी नहीं लिखा पूरा सुख उसके जीवन में
आधा मन होगा महलों में, आधा मन रहना है वन में
भावुकता ने आघात किया, दृढ़ता का वज्र हुआ पानी
राघव के मन ने भी उस दिन राघव की बात नहीं मानी
असमंजस बढ़ता जाता था, इस ओर नेह, उस ओर ज्ञान
साकेत घिरा था दुविधा में, मिथिला से आया समाधान
सज गया न्याय का सिंहासन, आ मिले कसौटी और कनक
दोनों पक्षों की बात सुनी, फिर यूँ बोले मिथिलेश जनक
पहला प्रणाम उस रघुकुल को, जिसने ऐसा परिवार दिया
निःस्वार्थ, समर्पित, धर्मनिष्ठ -इन शब्दों को साकार किया
ऐसे भी होते हैं भाई, यह देख हृदय आनंदित है
दोनों का त्याग अलौकिक है, दोनों का यत्न प्रशंसित है
था स्वयं जनक का हृदय सजल, दृढ़ दिखते मात्र प्रकट में थे
जो धर्मदण्ड लेकर बैठे, वे स्वयं धर्मसंकट में थे
आदेश पिता का बिसरा दें, तब दूर उदासी होती है
रघुकुल की रीति निभाएं तो, बेटी वनवासी होती है
अंतिम निर्णय की वेला थी, पर्वत मन पर धरकर बोले
पलकों पर बूँदें उभरी और स्वर में दृढ़ता भरकर बोले
राजा दशरथ के वचनों में, संशोधन का अधिकार नहीं
हे भरत, धर्म को इस कारण, कोई अनुनय स्वीकार नहीं
जिसके हित जो आदेश हुआ, बस वही पिता की थाती है
कर्त्तव्यों के कंटक पथ पर, भावुकता काम न आती है
दायित्व निभाते हुए चतुर्दश वर्ष काटने हैं तुमको
वनवास-राज्य बस साधन हैं, दो वचन साधने हैं तुमको
राजा होना क्या होता है, तुमको किंचित अनुमान नहीं
नृपजीवन कठिन तपस्या है, इसको समझो वरदान नहीं
और राम, नहीं संशय इसमें, तुम रघुकुल रीति निभाओगे
लेकिन यह भी संकल्प करो, साकेत लौटकर आओगे
कर जोड़ भरत फिर बोल उठे, मैं चौदह वर्ष बिता लूंगा
पर इससे अधिक वियोग हुआ, तो जिवित चिता सजा लूंगा
राजा तो राघव ही होंगे, मैं बस दायित्व निभाऊंगा
अग्रज का प्रतिनिधि बनकर मैं, राघव का राज्य चलाऊंगा
भैया, अपने इस सेवक पर, उपकार अभी इतना कर दो
चरणों में राज न रख पाओ, तो चरण सिंहासन पर धर दो
रुंध गया राम का कण्ठ, हृदय फूला ऐसा भाई लखकर
जब भरत अयोध्या लौट चले, पाँवरी राम की सिर रखकर
पदत्राण शीश पर धारे थे, क्या अनुपम दृश्य बनाया था
जो रामचन्द्र को ला न सका, वह रामराज ले आया था
✍️ चिराग़ जैन
Saturday, August 24, 2024
हमारा लोकतन्त्र महान!
Saturday, August 17, 2024
सिस्टम और हम
Wednesday, August 14, 2024
विवेक को सोने दो
Wednesday, July 24, 2024
विनीत चौहान
Tuesday, July 23, 2024
बजट 2024
मध्यम वर्ग की पीड़ा
मेरी थाली खाली है रही है
मुझसे टैक्स वसूला जाए, उन्हें चढ़ावा जाए
मैं देकर भी झिड़की खाऊँ, वो खाकर गुर्राए
वो मुझे दिखावें ताव, ओ साब
मेरी जेब मवाली है रही है
मध्यम वर्ग बनाकर मुझको, दोनों ओर निचोड़ा
इन्हें दान दो, उन्हें मान दो, नहीं कहीं का छोड़ा
मेरा बढ़ता रहा अभाव, ओ साब
वहाँ रोज़ दीवाली है रही है
जीएसटी ने पहले सों ही इनकम कम कर राखी
रोड टैक्स देकर भी ससुरा टोल रह गया बाकी
मेरा कैसे होय बचाव, ओ साब
हर दिन बदहाली है रही है।
Wednesday, July 17, 2024
धरती के गहने हैं पेड़
धरती के गहने हैं पेड़
मिट्टी के मटमैले तन पर
पृथ्वी ने पहने हैं पेड़
क्यारी में ये फूल खिलाते
ठण्डी-ठण्डी हवा चलाते
धूप चुभे तो छाया लाते
बारिश में छतरी बन जाते
कभी फलों से लदती डाली
कभी फूल लाते ख़ुशहाली
साँस सुहाती गंध निराली
आँखों को भाती हरियाली
इनसे जंगल हर्षाते हैं
बाग़-बगीचे मुस्काते हैं
पेड़ प्रदूषण पी जाते हैं
इस कारण हम जी पाते हैं
✍️ चिराग़ जैन
Monday, July 8, 2024
भरत का परिताप
दो कंधे तो बुलवा लाओ, कैकयी के नैहर से जाकर
उन दिनों भरत कुछ विचलित थे, आँखों को स्वप्न अखरता था
कारण तो ज्ञात नहीं था पर, मन के भीतर कुछ गड़ता था
गहरे संबंधों में प्रतिपल, इक तार जुड़ा ही रहता है
तन दूर रहे, फिर भी मन से परिवार जुड़ा ही रहता है
सपनों में अवध उमड़ता था, घिर गए भरत उच्चाटन में
संदेश पहुँचने से पहले, आभास पहुँचता है मन में
अंतस में संशय का ताण्डव, देहरी पर दूत अयोध्या का
सूखे पत्ते-सा काँप गया, वह भावुक पूत अयोध्या का
अनुमान हुआ कैकयी सुत को, संयोग नहीं यह साधारण
पहले तो पूछा कुशल-क्षेम, फिर पूछा आने का कारण
यह दूतकर्म था कठिन बहुत, भीतर का शोक छिपाना था
मातम को मंगल कहना था, स्वामी को झूठ बताना था
घर-नगर चतुर्दिक मंगल है, यह बात अधर जब कहते थे
पिंडलियाँ कंपन करती थीं, आँसू भीतर को बहते थे
हे राजकुँवर गुरु आज्ञा से, आया हूँ तुम्हें बुलाने को
इसके अतिरिक्त नहीं कोई संदेश तुम्हें बतलाने को
चल दिये भरत, ऋपुदमन सहित, निर्बाध दौड़ता था स्यन्दन
स्यन्दन की गति से आशंका और आशा का जारी था रण
जब किया प्रवेश अयोध्या में, गलियों में सन्नाटा देखा
संशय का ज्वार उमड़ आया, और धीरज ने भाटा देखा
जब हम ननिहाल गए थे तब, ऐसा नगरी का रंग न था
हर चौखट इतनी मौन न थी, हर आंगन इतना दंग न था
सबकी आँखों में तिरस्कार, कितना अनभिज्ञ अभागा हूँ
ज्यों सावन का सोया-सोया सीधे पतझर में जागा हूँ
जिस ओर भरत का रथ देखा, मुँह फेर खड़े हो गए लोग
कैकयी सुत ने मन में सोचा, मैं मानुष हूँ या महारोग
ऐसा लगता था खड़ा हुआ है शीश झुकाए राजभवन
कैकयी सुत से आँखें करता था दाँए-बाँए राजभवन
केवल इक सूरत ऐसी थी, जिस पर कण भर अवसाद न था
वैधव्य समाया था तन पर, चेहरे पर तनिक विषाद न था
वसनों का रंग उदास हुआ, सूना था गात कलाई का
कुमकुम, सिंदूर विलुप्त हुए, मुख पर था भाव ढिठाई का
पुलकित होकर बोली कैकयी, अभिनंदन हो स्वीकार भरत
पहले पितु की अंत्येष्टि करो, फिर ग्रहण करो दरबार भरत
मैं हुआ अनाथ, अयोध्या का सूरज यमपुर में डूब गया
ऐसे में माँ का उत्स देखकर हृदय भरत का ऊब गया
ज्ञानी शब्दों से घटना का बस इंगित पाया करता है
भीतर का सच तो वक्ता का आचरण बताया करता है
आश्चर्य क्षुब्ध होकर टूटा, पीड़ा क्रोधित हो चीख पड़ी
माँ को हर्षित क्यों करती है, रघुकुल की ऐसी शोक घड़ी
बोला, माँ ओछा लगता है, यह तेरा हर्ष प्रफुल्लित मन
तूने ही तो दे दिया नहीं इस महाशोक को आमंत्रण
उन्माद परे रखकर सम्भली, वात्सल्य ओढ़ने लगी त्रिया
सुत की आँखों में घृणा देख, भौंहें सिकोड़ने लगी त्रिया
तुझको भी मैं दोषी लगती, ऐसे क्या पाप किये मैंने
राजा पर थे दो वर उधार, अवसर पर मांग लिए मैंने
मेरा बेटा युवराज बने, यह इच्छा तो अपराध नहीं
और राम नहीं वन जाते तो, पूरी होती यह साध नहीं
ये सुनते ही थम गए भरत, जम गई शिरा, खुल गए अधर
लगता था नमक छिड़क डाला कैकयी ने जलते घावों पर
हर रोम लपट बन दहता था, पर्वत-सा टूटा था सिर पर
था क्रोध अधिक या पीर अधिक, यह निश्चय करना था दूभर
नथुने फूले, साँसें धधकी, कर्कश हो गया भरत का स्वर
भीतर जो लावा फूटा था, आ गया अचानक जिह्वा पर
पापिन तूने इन कुलघाती हाथों से क्यों पाला मुझको
जिस दिन जन्मा था उस दिन ही क्यों मार नहीं डाला मुझको
सब करते मेरा तिरस्कार, जाने कैसी छवि अंकित है
तेरी करनी से जग भर में, अब मेरी कीर्ति कलंकित है
देना होगा उत्तर इसका युग-युग तक स्वयं विधाता को
क्यों बन्ध्या नहीं बना डाला, ऐसी हत्यारिन माता को
पति को खाकर आनंदित है, रत्ती भर पश्चाताप नहीं
रघुवंश मुकुट मणिहीन किया, इससे बढ़कर कुछ पाप नहीं
दर्पण तोड़ा है उत्सव का, ममता छल ली पापिन तूने
चरणामृत में विष घोला है, निज जिह्वा से नागिन तूने
चाहता हूँ उसका वध कर दूँ, जिसने यह अत्याचार किया
पर राम त्याग देंगे मुझको, यदि मैंने तुझको मार दिया
इक क्षण आँखें नम होती थी, इक क्षण भृकुटी चढ़ जाती थी
अभिव्यक्त भरत का मन करते, भाषा थोड़ी पड़ जाती थी
मन में जो भाव उमड़ते थे, वे भरत नहीं कह पाते थे
फिर भी जो कहा भरत ने वह सब शब्द नहीं सह पाते थे
चल दिये भरत इतना कहकर, इस द्वार न आऊंगा अब मैं
अपराधिन सुन तेरा यह मुख, फिर देख न पाऊँगा अब मैं
संतति के सुख की चाहत में, नभ-धरा एक कर जाती है
पर बेटा अपमानित कर दे, माता उस क्षण मर जाती है
श्वासों के चलने पर करती संदेह रह गई कैकेयी
जब भरत देहरी लांघ चले, तब देह रह गई कैकेयी
भर गया कण्ठ तक ग्लानिबोध, चलती साँसें दुःख देती थी
रोते-रोते अपने केशों को मुट्ठी में भर लेती थी
हो-होकर व्यथित हथेली से, मुख स्वयं ढाँपने लगती है
उसका दुःख वर्णन करने में लेखनी काँपने लगती है
Tuesday, July 2, 2024
दशरथ का अवसान
साकेत नगर के शासन का सरताज बनेंगे रामचंद्र
धरती पर हरियाली छायी, आकाश मुदित होकर झूमा
उत्सव के मधुरिम झोंकों ने, सरयू की लहरों को चूमा
सूरज के हाथों धरती पर सोना बरसाया जाता था
उपवन के हाथों मारुत में, मकरंद मिलाया जाता था
इस घड़ी तनिक मंथर गति से किस्से में आया कोपभवन
सुख के साकेती महलों में, किसने बनवाया कोपभवन
उत्सव की चाल बिगाड़ गया, कुब्जा का जाया कोपभवन
धरती-अम्बर ने सुख पाया, कैकयी ने पाया कोपभवन
सौन्दर्य कुपित होकर बिखरा, उत्सव का रंग उदास हुआ
कैकयी की बुद्धि हुई दूषित, चंदन में विष का वास हुआ
जिस अवधपुरी को कोई भी दल-बल से जीत नहीं पाया
उस नगरी का भी सहजोत्सव, क्यों सुख से बीत नहीं पाया
इक ओर धरा से अम्बर तक, उत्साहित पवन चहकता था
इक ओर कहीं अंतःपुर में, रानी का हृदय दहकता था
दशरथ अनभिज्ञ रहे इससे, घर के भीतर क्या क्लेश पले
राजा को छोड़, पिता बनकर; अंतःपुर को अवधेश चले
चलते-चलते दौड़े दशरथ, आनन्द कुलाचें भरता था
नयनों से हर्ष प्रवाहित था, तन से आगे मन चलता था
सोचा दशरथ ने जब घर में यह बात कहेगा रामपिता
कैकयी, कौशल्या रीझेंगी, आनंद मनाएगी सुमिता
जब मैं जाकर अंतःपुर को यह शुभ संदेश सुनाऊंगा
सबके चेहरे खिल जाएंगे, मैं इतराकर मुस्काऊंगा
लेकिन अंतःपुर पहुँचे तो, दशरथ का चेहरा क्लांत हुआ
मानस का मौसम खिन्न हुआ, राजा का मन विश्रांत हुआ
कैकयी की देहरी की रंगत, कुछ भूखी-प्यासी बैठी थी
उत्सव के कलरव से छिपकर, इस ओर उदासी बैठी थी
राजा ने भीतर झाँका तो, आश्चर्य जगाता चित्र मिला
कैकयी का मुख निस्तेज मिला, पूरा परिदृश्य विचित्र मिला
रानी की आँखों के नीचे, बहते काजल के घेरे थे
शृंगार ध्वस्त, सब अस्त-व्यस्त, रानी ने हाल बिखेरे थे
गिरकर आनंद हिंडोले से, पीड़ा में लिपट गया कोई
मानो उड़ने से पहले ही, घबराकर सिमट गया कोई
आश्चर्य कण्ठ तक भर आया, दशरथ ने पूछा रानी से
बोलो क्या ठेस लगी तुमको, किस दासी की मनमानी से
किस पापी ने सागर जैसी आँखों में आँसू बोए हैं
किसके कारण ये रतनारे नैना सारा दिन रोए हैं
हो गये विह्वल व्याकुल राजा, ना मानी त्रिया मनाने पर
कैकयी को भान हुआ तत्क्षण, पहुँचा है तीर निशाने पर
पीड़ित प्रेमी की पीड़ा पर, आघात किया विकराल; कहा
रूठी रानी ने दशरथ की आँखों में आँखें डाल कहा
दो वचन उधार रहे तुम पर, क्या है ये तुमको ध्यान अभी
मुझको देने होंगे तुमको, वो दोनों ही वरदान अभी
ये बात सुनी तो सहज हुए, फिर थोड़ा मुस्काये राजा
पर्वत को राई मान लिया, रानी के नियर आये राजा
बस इतनी-सी है बात और तुम मुँह लटकाये बैठी हो
वरदान चार मांगों रानी, तुम दो गिनवाये बैठी हो
सागर से सारे रत्न छीन आभूषण गढ़वा दूँ, बोलो
या फिर सारे नक्षत्र निकर, चरणों में चढ़वा दूँ, बोलो
तुम कहो, सुरों के हाथों से अमृत का घट ले सकता हूँ
ऐसा क्या है इस दुनिया में, जो तुम्हें नहीं दे सकता हूँ
यदि चाहो तो इस क्षण मेरे प्राणों पर फंदा कस दो तुम
लेकिन ऐसे रूठी न रहो, इक बार प्रियतमा हँस दो तुम
अवसर का मूल्यांकन करके, राजा को रण में घेर कहा
स्वर को मीठा करके बोली, पति के मन पर कर फेर कहा
बस दो अभिलाषा पूर्ण करो, जिससे मुझको कुछ श्वास मिले
हो जाय भरत का राजतिलक, और राघव को वनवास मिले
सुनते ही सन्न हुए दशरथ, कैकयी का मुख क्या बोल गया
ऐसा लगता था कोकिल स्वर, कानों में सीसा घोल गया
कातिक की शीतल संध्या में, भीगा था दशरथ का मस्तक
शुभ राजतिलक की बेला में, अनहोनी ने दी थी दस्तक
रानी तुमने ये क्या मांगा, क्या इसीलिए सब स्वांग किया
मैंने जीवन का नाम लिया और तुमने जीवन मांग लिया
पूरा उपवन मत नष्ट करो, क्यारी से पुष्प भले बीनो
चाहे मेरा सब कुछ ले लो, पर मुझसे राम नहीं छीनो
कैकयी को अपयश मिलना था, वह सुख की राह कहाँ चुनती
थे कान भरे पहले से ही, दशरथ की बात कहाँ सुनती
नारी ने हठ धारण की थी, अनुनय अपमानित होनी थी
करुणा को ठेस पहुँचनी थी, आशा की आँखें रोनी थी
क्रोधित होकर बोली कैकयी, मत झूठे गाल बजाओ तुम
या अपने वचन करो पूरे, या फिर अपयश को पाओ तुम
कल सुबह अगर वल्कल धारे, वनगमन नहीं कर गए राम
तो समझो मरण कैकयी का, रघुवंश कीर्ति की ढली शाम
इतना सुनते ही दशरथ की आँखों में उतर गई संध्या
रानी के निष्ठुर वचनों की ठोकर से बिखर गई संध्या
थककर धरती पर गिरा धैर्य, निरुपाय बिलखते थे दशरथ
कैकयी के चेहरे पर उतरी रजनी को तकते थे दशरथ
फिर बोले चांद-सितारों से, तुम रघुकुल की पीड़ा हरना
यह रात बीतने मत देना, हे सूर्य सवेरा मत करना
आँसू का अर्घ्य चढ़ाने से कब कालचक्र ने सुनी बात
कैकयी की लंबी हुई रात, दशरथ को छोटी लगी रात
उस दिन सूरज की किरणों से अंधियारी होती थी धरती
जनता के आँसू पी-पीकर, कुछ खारी होती थी धरती
दशरथ बेसुध आँखें मूंदे, सहते थे जग भर का विषाद
प्रिय राम चले वल्कल धारे, लक्ष्मण और सीता हुए साथ
सब साज त्याग वन को जाते, महलों ने देखे रामचंद्र
क्यों बढ़कर काट नहीं देते, विधिना के लेखे रामचंद्र
राघव के बिन वे कनक महल, यह दृश्य बनाते थे मन में
नगरी की पार्थिव देह पड़ी, और जीव जा रहा था वन में
वैभव ने वन की राह धरी, सौभाग्य नगर का फूट गया
बह गए तीन दीपक जल में, पीछे अँधियारा छूट गया
इतना सुख क्यों दे दिया ईश, इक नगर सुखों से ऊब गया
बस एक रात की कालिख में, सारा उजियारा डूब गया
मूर्च्छा टूटी दशरथ जागे, फिर चिर निद्रा में लीन हुए
त्रैलोक्य विजेता, गृहक्लेशों के कारण प्राणविहीन हुए
दशरथ की माटी कहती थी, ना मूल बचा, ना ब्याज बना
ले कैकयी अपने बेटे को युवराज नहीं, महाराज बना
बरसों पहले का अनजाना इक पाप ले गया दशरथ को
दो नेत्रहीन निर्दोषों का अभिशाप ले गया दशरथ को
✍️ चिराग़ जैन
Sunday, June 30, 2024
स्वार्थी कायरता
हम सब बहुत तेज़ी से भीड़ में अकेले होते जा रहे हैं। एक सिंह सैंकड़ों हिरणों के बीच से एक हिरण को उठा लाता है, क्योंकि सिंह आश्वस्त होता है कि आक्रमण के समय झुण्ड का प्रत्येक हिरण एकाकी हो जाएगा। यदि झुण्ड के आठ-दस हिरण भी संगठित होकर सिंह पर धावा बोल दें तो कोई नाहर "सर-ए-आम" अनीति करने की हिम्मत नहीं कर सकता।
लेकिन सम्भव है, हिरणों की माँओं ने भी अपने बच्चों को समझाया हो कि किसी के पचड़े में मत फँसना और कहीं झगड़ा हो रहा हो तो चुपचाप भागकर अपने घर आ जाना!
समाज की इसी स्वार्थी कायरता ने अपराधियों और शिकारियों को यह विश्वास दिलाया है कि आप सर-ए-आम अनैतिकता का नंगा नाच करोगे और ये सब पढ़े-लिखे सुसभ्य लोग 'लड़ाई करना गंदी बात' कहते हुए तमाशा देखेंगे।
अपराध, राजनीति, सिस्टम और निजी कंपनियाँ इसी प्रवृत्ति का लाभ उठाकर नागरिकों की भीड़ में से किसी भी हिरण का आसानी से शिकार कर लेते हैं। 'चहल-पहल'; 'सर-ए-आम'; 'भरे बाज़ार में'; 'सबके सामने' और 'बीच सड़क पर' जैसे शब्दयुग्म भी अपराध के दुस्साहस को कम नहीं होने देते।
मध्यमवर्गीय समाज ने अपनी मम्मियों-पापाओं से 'चुप लगाने' के जो मंत्र सीखे हैं, उन्हीं की सिद्धि करते हुए वे पूरा जीवन कायरता का वरदान भोगते हुए बिता देते हैं। और जब कभी उनमें से कोई आज्ञाकारी श्रवण कुमार स्वयं किसी सिंह का शिकार बनता है तब उसे समझ आता है कि जीवन भर 'तथाकथित अच्छा बच्चा' बनने की कोशिश में वह जिस मौन को नैतिकता समझ रहा था वह वास्तव में आत्महत्या का रास्ता था।
शिकारी के आक्रमण के समय वह चीख नहीं पाता, क्योंकि मौन उसके कण्ठ की आदत बन चुका होता है। इस प्रवृत्ति को उसने स्वयं पोषित किया है इस ग्लानिबोध में उसकी कराह भी नहीं निकल पाती। जूझने का प्रयास करनेवाले हिरणों को देखकर उसने नाक-भौं चढ़ाए हैं, इस अपराध बोध में वह सिसक भी नहीं पाता।
उसकी आँखों की कोरें भीग जाती हैं। आँसू आँखों की सीमा से बाहर निकलकर उस पर ठहाका लगाते हैं कि यदि वह समय रहते अपने स्वार्थी मौन की लक्ष्मणरेखा से बाहर निकल आया होता तो आज उसके प्राण न निकल रहे होते।
✍️ चिराग़ जैन
Wednesday, June 19, 2024
बोनसाई
Saturday, June 8, 2024
बुनियादों की मज़बूती
तब बुनियादों की मज़बूती दीवारों के काम आ गई
होठों पर ताले लटके थे, संवादों पर बर्फ़ जमी थी
आखर-आखर आतंकित था, हर आहट सहमी-सहमी थी
सबके अपने-अपने सुख थे, सबके अपने-अपने कमरे
तब छोटी-सी एक मुसीबत, परिवारों के काम आ गई
फिर बुनियादों की मज़बूती दीवारों के काम आ गई
अपनेपन का आलिंगन भी कुछ पल ही मन को भाता है
प्रेम घड़ी भर दूर नहीं हो, तो वह पिंजरा बन जाता है
बेमतलब की भावुकता का बोझ डुबो ही देता किश्ती
तब कुछ व्यवहारिक पतवारें, मझधारों के काम आ गई
फिर बुनियादों की मज़बूती दीवारों के काम आ गई
जड़ की अनदेखी करते हैं, फुनगी पर इतरानेवाले
फिर-फिर धरती पर आते हैं, उड़कर ऊपर जानेवाले
जब ख़ुद के ईश्वर होने से ईश्वर का मन ऊब गया है
तब कुछ इंसानी लीलाएँ, अवतारों के काम आ गई
फिर बुनियादों की मज़बूती दीवारों के काम आ गई
Friday, May 24, 2024
आँसू की आवाज़
हालत देखो जाकर उन बेचारों की
इंसानों की बस्ती भूखी बैठी है
तुम बातें करते हो चाँद-सितारों की
आँसू की आवाज़ छुपाकर रख पाएँ
इतनी भी औक़ात कहाँ दीवारों की
लहरों से कश्ती का हाथ छुड़ाना है
हिम्मत बढ़ती जाती है पतवारों की
सिगरेट को इक बार बुझाना उंगली से
गर तासीर समझनी है अंगारों की
✍️ चिराग़ जैन
Wednesday, May 22, 2024
दशरथ
Wednesday, May 15, 2024
चीख और ठहाका
जनता की भूमिका
Monday, May 13, 2024
छल
Monday, May 6, 2024
जामनगर में कुछ छूट गया है...
Sunday, May 5, 2024
सभ्यता की सीमा
Wednesday, May 1, 2024
कट्टरता
Thursday, April 25, 2024
चुनाव 2024 : भाजपा और चुनाव
ये जादू मन्तर कैसे सीखा
कहीं मिलते नहीं हाथों के निशान
ये जादू मन्तर कैसे सीखा
नगालैंड में ख़ुद प्रत्याशी वोट न करने आता
त्रिपुरा में वोटिंग पर्सेंटेज सौ से ऊपर जाता
सौ पर्सेंट से भी ज़्यादा मतदान
ये जादू मन्तर कैसे सीखा
प्रत्याशी के प्रस्तावक ही अंडर ग्राउण्ड हुए हैं
बाकी सभी लड़ाकों के भी पर्चे राउण्ड हुए हैं
सबकी सूरत पर है एक ही निशान
ये जादू मन्तर कैसे सीखा
बीजेपी की रैली, बाकी सबकी रेल बना दो
ऐसा करो चुनावों पर ही बुलडोजर चलवा दो
ना समस्या बचे ना ही समाधान
ये जादू मन्तर कैसे सीखा
चुनाव 2024 : भाजपा की चुनावी रणनीति
तो हाय
जे खेल को ड्रामा काइं करनौ
बैटिंग करनेवालन के बल्ले ही तोड़ दए हैं
रन लेनेवालन के दोनूं जूते जोड़ दए हैं
सीमा कू चर गई गाय
आय हाय
जे खेल को ड्रामा काइं करनौ
कैसे फेंकें गेंद समूची पिच ही खोद रखी है
अपनी तीनों किल्ली तुमने भगवा पोत रखी हैं
भगवा कू कौन गिराय
मर जाय
जे खेल को ड्रामा काइं करनौ
जिधर जरा हरक़त हो गेंद उधर ही मुड़ सकती है
एम्पायर की अपनी ख़ुद की किल्ली उड़ सकती है
कोई कैसे हाथ हिलाय
रे हाय
जे खेल को ड्रामा काइं करनौ
चुनाव 2024 : मनमोहन सिंह के बयान पर सियासत
उन्हीं का बयान ले उड़े
पहले तुमको निहत्था बताया
फिर हाथ से कमान ले उड़े
कहने भर को पीएम थे पर बोल न पाए मनमोहन
हाथ हिलाना दूर, होंठ तक खोल न पाए मनमोहन
अपने ही घर में प्रतिभा का मोल न पाए मनमोहन
अपना ऑर्डिनेंस फटने पर डोल न पाए मनमोहन
उनके होंठों पे ताला लगाया
ये पूरा हिन्दुस्तान ले उड़े
जिनको मौनी बाबा कह के चिढ़ाया
उन्हीं का बयान ले उड़े
आंदोलन पर लाठी बरसी, कंघी बेची गंजे को
सीबीआई तोता बन गई ऐसा कसा शिकंजे को
अपनी ही बंदूक की गोली धांय लगी है पंजे को
जाने किस-किस बेचारे की हाय लगी है पंजे को
तुमने सोतों पे डंडा चलाया
ये सपनों की दुकान ले उड़े
जिनको मौनी बाबा कह के चिढ़ाया
उन्हीं का बयान ले उड़े
ऊंचाई का अहम न करते तो झुक जाना ना पड़ता
ठोकर पर संभले होते, घुटनों पर आना ना पड़ता
अपनों से मिलते-जुलते तो मान गंवाना ना पड़ता
दूर-दूर तक जनता के दर चलकर जाना ना पड़ता
अपने हाथों ही अवसर गंवाया
ये सत्ता का गुमान ले उड़े
जिनको मौनी बाबा कह के चिढ़ाया
उन्हीं का बयान ले उड़े
Monday, April 22, 2024
अरुण जैमिनी: एक नाम नहीं, एक किरदार
Tuesday, April 16, 2024
माहेश्वर तिवारी: गीत का उदाहरण
Thursday, April 11, 2024
ईद
फिर से इस मुल्क के लहजे में मिठास आ जाए
- चिराग़ जैन
Thursday, April 4, 2024
विजय का मंत्र
वह तुम्हारा हित करेगा; भूल जाओ
जो न अपने मन मुताबिक जी रहा हो
वह तुम्हारे हित मरेगा; भूल जाओ
कर्ण इक एहसान के वश में विवश थे
द्रोण इक प्रतिशोध के कारण खड़े थे
शल्य इक षड्यंत्र से आहत हुए थे
भीष्म इक प्रण की विवशता में लड़े थे
मन बचा पाया नहीं जो, शूर होकर
वह तुम्हारा ध्वज धरेगा; भूल जाओ
पाप बर्बर हो उठेगा जीत कर भी
तुम स्वयं की हार से भी प्यार करना
मूढ़ता संख्या जुटाती ही रहेगी
तुम निहत्थे मित्र का सत्कार करना
कृष्ण जिसके साथ हो, भरपूर होकर
वह किसी सूरत डरेगा; भूल जाओ
बैठ मत जाना थकन से चूर होकर
पास आएगी विजय; कुछ दूर होकर
जब निराशा टीस दे नासूर होकर
तब करो निर्माण; चकनाचूर होकर
स्वयं को स्वीकार ले जो क्रूर होकर
वह कभी दुःख से भरेगा; भूल जाओ
अहंकार का अंत
यही बल यश की कुदाल सिद्ध हो गया
जिसको समझकर तुच्छ पूँछ फूँक दी थी
वह भी भयानक कराल सिद्ध हो गया
जिसने भी टोका उसे घर से निकाल दिया
यही आचरण विकराल सिद्ध हो गया
जिसको दशानन समझता था शक्तिहीन
वही वनवासी महाकाल सिद्ध हो गया
Monday, April 1, 2024
गीत की चेतावनी
Sunday, March 31, 2024
ऊब का गीत
आदमी को खींचती है राह उसकी
प्यार का मतलब नहीं है प्यार केवल
प्यार का आधार है परवाह उसकी
मेघ से ऊबे तो इक सूरज बुलाया
सूर्य दहका, देह ने बरसात कर दी
रात से उकता गए तो दिन उगाया
थक गए दिन से तो फिर से रात कर दी
जो हमारे पास है उससे दु:खी हैं
जो हमारा है नहीं है चाह उसकी
आस मंज़िल की किसी को भी नहीं है
आदमी को खींचती है राह उसकी
प्रेम से ऊबे घृणा का हाथ थामा
वैर नस-नस में भरा तो दिल निचोड़ा
भोग से ऊबे, तो ये संसार त्यागा
और फिर संन्यास में जंजाल जोड़ा
ऊब जाने से नहीं ऊबा कभी मन
ऊब जाने की नहीं है थाह उसकी
आस मंज़िल की किसी को भी नहीं है
आदमी को खींचती है राह उसकी
राह में ही भोग लो संबंध सारे
द्वार के उस पार उच्चाटन मिलेगा
प्रेम है जिससे उसे दुर्लभ बना लो
प्राप्ति के पश्चात भारी मन मिलेगा
कल्पना ने आज आलिंगन भरा है
सत्य में चुभने लगेंगी बाँह उसकी
आस मंज़िल की किसी को भी नहीं है
आदमी को खींचती है राह उसकी
Friday, March 22, 2024
सच बोलना पाप है
Sunday, February 18, 2024
आचार्य विद्यासागर की समाधि
बहुत दिन से कहीं कुछ खो रहा था
जुड़े सब हाथ ढीले पड़ गए थे
पनीले नेत्र पीले पड़ गए थे
तपस्या चरम तक आने लगी थी
ये भौतिक चर्म कुम्हलाने लगी थी
व्रतों पर नूर इतना चढ़ गया था
कि तन का रंग फीका पड़ गया था
हुई जर्जर तपस्यायुक्त काया
तो यम सल्लेखना का व्रत उठाया
किया आचार्य के पद से किनारा
व्रती ने मृत्यु तक का मौन धारा
सुना जिसने, वही थम-सा गया था
गला सूखा, हलक जम-सा गया था
ख़बर ये फैलती थी आग बनकर
हृदय छलका सहज अनुराग बनकर
श्रमण सब बढ़ चले विश्वास लेकर
तपस्वी के दरस की आस लेकर
दिगम्बर साधुओं के संघ दौड़े
हृदय के संग सारे अंग दौड़े
व्रती अंतिम तपस्या कर रहा था
अभागा तन विरह से डर रहा था
हठी तप में जुटा था मौन साधे
खड़ी थी मृत्यु दोनों हाथ बांधे
धरा पर भाग्य जागा था मरण का
उसे अवसर मिला गुरु के वरण का
बिताए तीन दिन यूँ ही ठहर कर
मगर फिर रात के तीजे पहर पर
अचानक साँस की ज़ंजीर तोड़ी
वियोगी ने ये नश्वर काय छोड़ी
चले, त्रैलोक्य तक विस्तार करके
गए ज्यों राम सरयू पार करके
दिगम्बर साधना का बिंदु खोया
व्रतों का चंद्रगिरि में इंदु खोया
धरा से त्याग का प्रतिरूप लेकर
चली हो सांझ जैसे धूप लेकर
पिपासा से अमिय का कूप लेकर
चली है मौत जग का भूप लेकर
प्रजा जागी तो बस माटी बची थी
प्रयोजन गौण, परिपाटी बची थी
चिता में जल रहा दिनमान देखा
सभी ने सूर्य का अवसान देखा
धरा का धैर्य दूभर कर गया है
धरा से स्वयं विद्याधर गया है
-चिराग़ जैन