Friday, November 22, 2024

असंतोष

जिस कुर्सी की एक कील मुझे बहुत चुभती थी; उसी कुर्सी पर किसी और का बैठना 
मुझे कील से ज़्यादा चुभता है।

✍️ चिराग़ जैन 

Monday, November 18, 2024

राजनीति

हर राजनेता चाहता है कि मेरा परिवार तो राजनीति में हो लेकिन मेरे परिवार में राजनीति न हो। 

✍️ चिराग़ जैन 

Tuesday, November 12, 2024

डॉ प्रवीण शुक्ल

सही और ग़लत के पैमाने से आगे यह बहुत महत्त्वपूर्ण होता है कि आप अपने विचारों को कितनी शिद्दत से अभिव्यक्त करते हैं। और इस पैमाने पर मुझे डॉ प्रवीण शुक्ल हमेशा अव्वल दिखाई देते हैं। 
ऊर्जा का न जाने कौन सा इंजेक्शन लगाकर आए हैं कि थकान और आलस्य पर हमेशा के लिए विजय प्राप्त किए बैठे हैं। स्मरण शक्ति ऐसी कि सभागार में बैठे 500 लोगों में से 400 का नाम उन्हें याद होता है। पारिवारिक इतने कि जिनका नाम होता है उनकी पूरी पारिवारिक पृष्टभूमि का संज्ञान होता है। 
एक साथ हज़ारों लोगों के बीच से गुज़र जाएँ तो एक भी व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि प्रवीण जी ने हमें देखा तक नहीं, और एक भी व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि उन्होंने मुझे देखकर अनदेखा कर दिया। 
जिसका फोन आ जाए उसने सुबह फेसबुक पर क्या लिखा है, यह वे शब्दशः बताने लगते हैं। दिन में 10 सामाजिक समारोह हों तो वे प्रत्येक में उपस्थिति दर्ज कराते हैं, फिर चाहे वे सभी कार्यक्रम NCR के अलग अलग छोर पर क्यों न हों। 
और इस पर भी आश्चर्य यह कि इतनी व्यस्तता के बावजूद, वे न तो कभी फोन पर बात करते समय किसी जल्दबाज़ी में रहते हैं, न ही किसी कार्यक्रम में मंच पर बोलते समय उनके हाव-भाव अगले कार्यक्रम में पहुँचने की उतावली की सूचना देते हैं। 
इतनी सारी सामाजिकता निभाते हुए भी वे कभी अनुपलब्ध नहीं होते। मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि प्रवीण शुक्ल एक अकेला आदमी नहीं है, बल्कि एक जैसे दिखने वाले, एक जैसा बोलने वाले, एक जैसा सोचने वाले पंद्रह- बीस लोगों का समूह है। इनमें से एक व्यक्ति दिन भर फोन पर बात करता रहता है, एक व्यक्ति दिन भर सोशल मीडिया पर एक्टिव रहता है, कम से कम तीन व्यक्ति दिन भर सामाजिक कार्यक्रमों में शामिल होते हैं। एक व्यक्ति स्कूल का प्रशासन देखता है, एक व्यक्ति अपने परिवार-रिश्तेदारों के हर उत्तरदायित्व को पूर्ण करने में संलग्न है, एक व्यक्ति कवि सम्मेलन बुक करता है, एक व्यक्ति मंच पर कविता पढ़ता है, एक व्यक्ति हास्य कविता लिखता है, एक ग़ज़ल कहता है, एक अतुकांत कविताएँ लिखता है और एक व्यक्ति साहित्य प्रेमी मंडल के भव्य आयोजन करता है। किसी तांत्रिक सिद्धि से इन पंद्रह-बीस लोगों की चेतना और स्नायु को परस्पर जोड़ दिया गया है।
प्रवीण शुक्ल एक मनुष्य नहीं हैं, बल्कि प्रबंधन के विद्यार्थियों के लिए शोध के विषय हैं। पौने छह फीट का एक ही आदमी इतने सारे काम एक ही काया में रहते हुए कैसे कर सकता है, इसका उदाहरण हैं प्रवीण शुक्ल।
मैंने कभी उन्हें शारीरिक व्याधि की शिकायत करते नहीं देखा। कभी किसी और के लिए तनाव उत्पन्न करते भी उन्हें नहीं देखा। मुस्कराहट उनके चेहरे पर कवच-कुंडल की तरह जुड़ी हुई है। हर क्षण सतर्क रहते हुए भी धैर्य और सहजता बनाए रखने में सिद्धहस्त डॉ प्रवीण शुक्ल का आज जन्मदिन है। 
मैं उनके संपूर्ण व्यक्तित्व को जन्मदिन की ढेर सारी बधाई देता हूँ। और ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि इस अति-सक्रिय व्यक्तित्व की बहुआयामी प्रतिभा की ऊर्जा इसी तरह अक्षुण्ण बनी रहे। 

✍️ चिराग़ जैन

Monday, November 11, 2024

मन बोलता है

जब सब पंछी मौन हो गए
कलरव के स्वर गौण हो गए
जीवन की रफ़्तार सो गई
दिन पर रात सवार हो गई
ऐसा एकाकी पल पाकर मन हमको झकझोर उठा
जब बाहर सन्नाटा पसरा, तब अन्तर में शोर उठा

कितनी इच्छाएँ प्यासी थीं, कितने काम अधूरे निकले
डुगडुगियों पर नाच रहे थे, हम तो एक जमूरे निकले
कर को कमल, पदों को पंकज मान रही थी दुनिया लेकिन
हमने अपनी शाख टटोली, उस पर सिर्फ़ धतूरे निकले
जब सारे पाखण्ड सो गए, तब भीतर का चोर उठा
जब बाहर सन्नाटा पसरा, तब अन्तर में शोर उठा

पिण्डलियों ने ताने मारे, रीढ़ दुखी, सिसकी-सी आई 
ऐंठे-ऐंठे कन्धे देखे, अकड़ी-अकड़ी गर्दन पाई
आँखों में अंगार भरे थे, पलकों पर पर्वत लटके थे
माथे की नस ने भी उस पल शायद कोई गारी गाई
तन की अनदेखी का किस्सा होकर कुछ मुँहज़ोर, उठा
जब बाहर सन्नाटा पसरा, तब अन्तर में शोर उठा

दिन में फिर भी छिप सकते हैं, रातों में कुछ ओट नहीं है
रातें जिसको देख न पायें, ऐसा कोई खोट नहीं है
आँसू से आँखें धुल जायें तो शायद आराम मिले कुछ
वरना अंतर्मन के शब्दों से बढ़कर तो चोट नहीं है
मन हल्का होकर सोया तो, लेकर नयी हिलोर उठा
जब बाहर सन्नाटा पसरा, तब अन्तर में शोर उठा

✍️ चिराग़ जैन 

Wednesday, October 16, 2024

पराजित विजेता

आंधी के आघात सहे हैं
ये शाखों के साथ बहे हैं
सूखे हुए पड़े जो भू पर
इनके कोमल गात रहे हैं
हर मौसम से जूझे हैं ये, जूझे हैं, फिर टूट गए हैं
ये उपवन के वो साथी हैं, जो शाखों से छूट गए हैं

तूफानों का वेग सहा है, अब झोंकों से डरते हैं ये
अपनी पूरी देह कँपाकर, उपवन में स्वर भरते हैं ये
मिट्टी में मिलकर भी अपना, कण-कण उपवन को देते हैं
कोंपल को भोजन मिल पाए, इस कोशिश में मरते हैं ये
जिनको धूर्त समझते हो तुम
ये कल तक भोले-भाले थे
जो सूखे बदरंग हुए हैं
कल तक ये भी हरियाले थे
शुष्क हवा के हाथों छलकर, अब ये ख़ुद से रूठ गए हैं
ये उपवन के वो साथी हैं, जो शाखों से छूट गए हैं

जिनको पग-पग खोट मिला हो, वे जन खरे नहीं रह पाते
जो पत्ते अंधड़ से जूझे, फिर वो हरे नहीं रह पाते
आदर्शों के सपने छोड़ो, कड़वी मगर हकीकत ये है
जिनसे सबने प्यास बुझाई, वे घट भरे नहीं रह पाते
इतनी काली रात नहीं थी
ऐसी कठिन बिसात नहीं थी
डाली ने उकसाया वरना
आंधी की औकात नहीं थी
अंधड़ आया, डाली लचकी, ठूठ मुनाफा लूट गए हैं
ये उपवन के वो साथी हैं, जो शाखों से छूट गए हैं

साथी अवसरवादी निकले, बीच युद्ध में बात बदल ली
अड़ने की आदत थी उनकी, वह आदत उस रात बदल ली
तेज़ हवा ने वार किया तो डाली झूम-झूमकर नाची
तनकर खड़े तने ने झुककर, पल में अपनी जात बदल जी
जिसकी देह पड़ी धरती पर
उसने प्रण को पूजा होगा
लेकिन इतना तो निश्चित है
जो हारा, वो जूझा होगा
जिसने केवल जान बचाई, उसके दर्पण टूट गए हैं
ये उपवन के वो साथी हैं, जो शाखों से छूट गए हैं

✍️ चिराग़ जैन

Saturday, October 5, 2024

काँच

मैंने काँच से सीखा है 
कि 
दुनिया को 
सच दिखाने के लिए 
छोड़ना ही पड़ता है 
पारदर्शी स्वभाव

✍️ चिराग़ जैन 

Friday, October 4, 2024

आकलन और आलोचना

जो लोग कला फ़िल्मों के मापदण्ड से सी ग्रेड सिनेमा का आकलन करने निकले हैं, उनकी बुद्धि किसी का आकलन करने के लिए सक्षम नहीं है।
वे आलोचना करने के प्रयास में विद्रूपता को प्रचारित कर रहे होते हैं और उन्हें आभास भी नहीं होता कि वे क्या पाप कर रहे हैं। सिद्धांत तो यह है कि जिसे लुप्त करना हो उसकी चर्चा बंद कर दो। किन्तु गंदगी की चर्चा न करने की चर्चा इतनी हो जाती है कि गंदगी का आकार बढ़ने लगता है। 
धीरे-धीरे इस चर्चा में रस आने लगता है। फिर यह दंभ जागता है कि, "ये साले क्या अश्लीलता दिखाएंगे, हम चाहें तो इनसे ज़्यादा अश्लीलता कर सकते हैं।' ऐसा कहते-कहते हम एक दिन चाह लेते हैं और अश्लीलता करने लगते हैं। 
सात्विक प्रतिभा कला फिल्म की तरह चर्चा से बाहर अपनी साधना करती रहती है और सी-ग्रेड सिनेमा पीवीआर से लेकर ओटीटी तक पैर पसारने लगता है। 

आश्रमों में रहकर कला की साधना करने वाले कुछ लोग कला के भौंडे पाखण्ड के दम पर उठती इमारतों को देखकर झल्लाने लगते हैं। नंगेपन को 'आर्ट' और नैतिक निर्लज्जता को 'स्टारडम' कहनेवालों के प्रति क्रोध से भरकर कला के शुद्ध साधक अपनी सृजनात्मक ऊर्जा को विद्रूपता के विरुद्ध व्यय करने लगते हैं। 

...और यही तो विद्रूपता चाहती थी।

इसलिए उसकी चर्चा न करें जो आपको पसंद नहीं है। उस बिरवे को अपनी अनुशंसा का पोषण दें, जिसकी सुगंध आपको सुख देती है। धूल के बवंडर में उड़कर आपकी आँख में जा गिरे करकट से विचलित होकर आँखें बंद होना स्वाभाविक है किन्तु बिलबिलाकर, आँखें मसलते हुए पूरे बवंडर को गाली मत दीजिए क्योंकि वायु के इस वेग में तमाम करकट के साथ कुछ हरे पत्ते भी उपस्थित हैं जो अभी भी सुगंध के अस्तित्व को बचाने की कोशिश में बवंडर के प्रचंड वेग से असहाय जूझ रहे हैं। 

-✍️ चिराग़ जैन

Wednesday, October 2, 2024

सावधान, आगे सड़क है!

भारत एक ऐसा देश है, जहाँ सड़कें बनाई नहीं जातीं। ऐसा लगता है मानो हर सड़क भारतीयों को संघर्षों से जूझने का प्रशिक्षण देने के लिए राहों में बिछ गई हो। देश की राजधानी से प्रारंभ करते हैं। इस शहर की सड़कों के दोनों ओर फुटपाथ बनाए गए हैं। फुटपाथ, अर्थात् रेहड़ी, पटरी लगाने का स्थान। कहीं-कहीं मूत्रालय बनाकर वातावरण में इत्र छिड़कने की भी व्यवस्था की गई है।
नागरिकों की सुविधा के लिए फुटपाथ से मिलकर जो पहली लेन है वह पार्किंग के काम आती है। बीच की लेन पर मातृत्व की याद दिलाने के लिए साक्षात् गौ माता सपरिवार उपस्थित रहती हैं। दाहिनी लेन, जो डिवाइडर से चिपककर लेटी है, उस पर कभी डिवाइडर की रेलिंग उंगली करती दिखाई देती है, तो कभी पुलिसवाले अंकल बैरिकेड्स रखकर इधर-उधर चले जाते हैं।
इससे भी कोई फर्क़ न पड़े तो फास्ट लेन पर गाड़ी ख़राब हो जाएगी। और भी कुछ नहीं तो गड्ढों की व्यवस्था तो कहीं भी हो ही जाती है। 
इन सबकी उपस्थिति के बावजूद जो वाहन सड़कों पर चलने की हिम्मत करते हैं, उन्हें हर चौराहे पर भिखारियों और हिजड़ों का वेश बनाकर सर-ए-आम लूटने के लिए सरकारी संरक्षण प्राप्त समाजसेवकों की व्यवस्था की गई है। 
सड़क का सौंदर्य बढ़ाने के लिए सरकार ने जगह-जगह ‘नो पार्किंग’ और ‘टो अवे’ के बोर्ड लगाए हैं। इन बोर्ड्स के ठीक नीचे ई-रिक्शा चालकों ने अपना डिपो बना रखा होता है। 
सड़क एवं परिवहन मंत्री ने ई-रिक्शा का आविष्कार करके महानगरों के वाहन चालकों को यह बताने का प्रयास किया है कि महाभारत के युद्ध में करोड़ों सैनिकों की भीड़ के बीच से रथ निकालकर ले जाने की कला जाननेवाला शख़्स महारथी क्यों कहलाता था।
इन सड़कों को देखकर कई बार ऐसा लगता है, मानो सड़क कह रही हो... ‘क्यों व्यर्थ घर से निकलता है? आख़िर कहाँ पहुँचना चाहता है? अब तक सड़कों की धूल फाँककर भी तू कहाँ पहुँच पाया है। तेरा घर ही तेरा असली ठिकाना है। तू कितनी भी दूर निकल जा, अंततः लौटकर इसी घर में आना है। तो जब यहीं लौटना तय है तो सड़कों पर निकलना ही क्यों... घर रहेगा, ईंधन बचेगा, टेलीविजन चला, व्हाट्सएप खोल, मेसेज फॉरवर्ड कर... जहाँ तू नहीं पहुँच पाया, वहाँ अपना व्हाट्सएप भेज दे। वैसे भी तू कोई सड़कों पर भटकने वाला सड़क छाप थोड़े ही है। यह भटकाव छोड़कर थोड़ा ठहर जा पगले! घर बैठ पगले!’

✍️ चिराग़ जैन

Monday, September 23, 2024

कहाँ शुरू कहाँ ख़त्म

"मुझसे पूछा नहीं" - यह भाव किसी की भी नाराज़गी का सहज कारण हो सकता है। बल्कि यह कहा जाए कि दुनिया भर की सारी शिकायतों का अध्ययन किया जाए तो 70-80 प्रतिशत शिकायतों के मूल में यह भाव मिलेगा। 
पहली बार इस भाव को सीधे-सीधे अभिव्यक्त करती हुई एक फिल्म आई है। पहली बार किसी फिल्म ने नारी-समानता के तमाम उपक्रमों को पुरुष के ठीक बराबर लाकर खड़ा कर दिया है। 
"कहाँ शुरू कहाँ ख़त्म" को आपने अगर एक लाइट कॉमेडी की तरह देखकर ख़त्म कर दिया तो समझ लीजियेगा कि आप गंगा किनारे से सूखे लौट रहे हैं। सामने खड़े पति को छोड़कर परमेश्वर से बतियाती स्त्री उस पुरुषप्रधान समाज पर सबसे तीखा कटाक्ष है, जिसे स्त्री की संवेदना सुनाई ही नहीं देती। 
फिल्म का कहानीकार केवल मसाला परोसने के लिए कहानी को हरियाणा से निकालकर बरसाने की ओर नहीं ले गया है, वह एक ही समाज के दो अलग-अलग रंग दिखाकर स्त्री की सामाजिक स्थिति का अन्तर रेखांकित कर रहा है। एक ओर गोलियाँ बरसानेवालों के यहाँ घूंघट में छिपी स्त्री है और दूसरी ओर बरसानेवालों के यहाँ लाठी थामकर खड़ी गृहस्वामिनी है, जिसके आँगन में कोई बिना पैर धोए आ जाए तो वह कुपित हो जाती है। यह सशक्त स्त्री यह संदेश देना नहीं भूलती कि उसका साम्राज्य उसके आँगन तक है किन्तु जहाँ तक उसका साम्राज्य है, वहाँ तक उसका एकछत्र राज है। फिल्म में नायक का भाई, अध्यात्म को बाज़ार बनाकर बेचने की प्रवृत्ति पर करारा व्यंग्य कर रहा है।
नायिका का भाई एक दृश्य में नायक को पीटता है। उसका कष्ट यह नहीं है कि नायक ने किसी लड़की को शादी से भगाया है, उसका कष्ट यह है कि नायक ने 'उसकी बहन' को भगाया है। समष्टि से चलनेवाले समाज मे व्यष्टि की यह व्याप्ति समाज की सोच पर प्रश्नचिह्न जड़ रही है। 
और पुरुष प्रधान समाज के गाल पर सबसे करारा तमाचा फिल्म का वह दृश्य है जिसमें ऑडी की ड्राइविंग सीट पर बैठी नायिका से नायक कहता है कि मैंने गुंडों की बहन को भगा लिया है अब वो लोग मुझे नहीं छोड़ेंगे। इस पर नायिका बताती है कि तूने मुझे नहीं भगाया, मैंने तुझे भगाया है। पुरुष के कर्ताभाव के अहंकार पर इससे गहरा घाव शायद ही पहले कभी हुआ हो। 
बहरहाल, व्यंग्य को इतने सलीके से परोसने वाली फिल्म बहुत समय बाद देखने को मिली है। हास्य का हल्का सा स्पर्श व्यंग्य की धार को कुंद किए बिना ही फिल्म की रोचकता में वृद्धि कर रहा है। 
और भी अनेक दृश्य कटाक्ष की छुरी पर रखे, संदेश के शहद का आभास कराते हैं, लेकिन मैंने सब कुछ यहाँ लिख दिया तो आपको फिल्म देखने में मज़ा नहीं आएगा। 
सो, जाइए फिल्म देखिए और कमेन्ट कर के बताइये कि कटाक्ष की यह चुभन कैसी लगी। 

✍️ चिराग़ जैन 

Thursday, September 19, 2024

आधुनिकता और संस्कार

छोटी बहू के घूंघट न काढ़ने की आदत
सासू को अखरती है
और बड़ी बहू
लम्बे से घूंघट में मोबाइल छिपाकर
आराम से
वीडियो काॅल करती है

-चिराग़ जैन

विज्ञान

वास्तविकता साकार हो चुकी कल्पना है और कल्पना साकार होने जा रही वास्तविकता है।
✍️ चिराग़ जैन 

Sunday, September 1, 2024

भाजपा आ गई

एक समय था
जब मीडिया वाले भी सच बोलते थे
सरकारी घोषणाओं की कलई खोलते थे
फिर हर तरफ बस एक ही तस्वीर छा गई
क्योंकि देश में भाजपा आ गई

विश्वास करो भाईसाहब
पैट्रोल पंप पर सिर्फ़ ईंधन का व्यापार होता था
फिर आ गई भाजपा
अब वहाँ भी साहिब का प्रचार होता था

ईडी और सीबीआई
लोकतंत्र के सिपाही थे
अपराध और भ्रष्टाचार के लिए तबाही थे
फिर आ गई भाजपा
अब इनके रिमोट ख़ुद जिल्ले-इलाही थे
जो हमसे पंगा ले
उसी को रगड़ दो
कैसे भी करके उस पर एक चार्जशीट जड़ दो
बाद में कोर्ट में डाँट पड़ती हो
तो पड़ने दो
विपक्ष को जेल में सड़ने दो

ख़ुद भाजपा के कार्यकर्ता
सारी ज़िन्दगी मेहनत करते थे
कि कभी तो उनके भी झंडे तनेंगे
आडवाणी जी को उम्मीद थी
कि एक दिन वो कुछ बनेंगे
फिर देश में भाजपा आ गई
सारी उम्मीदों पर पानी फिरा गई

पहले रेलमंत्री रेल का उद्घाटन करते थे
विदेश मंत्री विदेशों में विचरते थे
फिर हर मंत्रालय की योजनाओं पर
एक ही तस्वीर छप-छपा गई
क्योंकि देश में भाजपा आ गई

मंदिर, पद्मावत जैसे मुद्दे छाने लगे
महँगाई को विकास बताने लगे
रोज़गार, ग़रीबी जैसे मुद्दों को
गाय माता चबा गई
क्योंकि देश में भाजपा आ गई

पहले उद्योगपतियों के टैक्स के पैसे से
सरकार भरती थी घाटा
लेकिन फिर लोकहित को करके टाटा
सरकारी कंपनियाँ
उद्योगपतियों की जेब में समा गई
क्योंकि देश में भाजपा आ गई।

आते हुए जो सड़क बनी थी
वो जाने से पहले ही लड़खड़ा गई
क्योंकि देश में भाजपा आ गई

संसद लीक, पेपर लीक
एयरपोर्ट की छत धड़ाम
खिलाड़ी, डॉक्टर, किसान सड़क पर
अधबने मंदिर में श्रीराम
करोड़ों की मूर्ति ध्वस्त
साहिब फोटो खिंचवाने में मस्त
दो-दो इंजन के बाद भी
ट्रेन पटरी को ठेंगा दिखा गई
कमाल ही हो गया
इस देश में भाजपा आ गई


✍️ चिराग़ जैन

Friday, August 30, 2024

भरत मिलाप

दशरथ निकले अरथी बनकर, रीते-रीते हो गये भरत
पितु को कंधा देते-देते, बीते कल में खो गये भरत
यादों में उभरे आते थे, हँसते दशरथ, पुलकित दशरथ
सोचा, कैसे दिखते होंगे, अंतिम क्षण में पीड़ित दशरथ
चेहरे पर था अपराध-बोध, कंधे पर देह पिता की थी
वेदना बसी थी नस-नस में, साँसों में आग चिता की थी
जिस क्षण लपटों में घिरे तात, तब अंतस् में पिघली पीड़ा
हो गया कण्ठ अवरुद्ध और आँखों से बह निकली पीड़ा
कंचन-सी देह हुई माटी, माटी ले गयी सरयू बहाय
दस दिन दशगात्र हुआ लेकिन, आँसू रुकते ही नहीं हाय

विषघूँट नियति के निर्णय का, सबको पीना ही पड़ता है
कितना भी शोकाकुल हो मन, लेकिन जीना ही पड़ता है
इसलिए शोक-संतप्तों को, फिर याद दिलायी राजसभा
ठहरे जीवन को गति देने, मुनि ने बुलवायी राजसभा
हर मंत्री मौन धरे बैठा, राजा का आसन सूना था
क्या-क्या खोया, यह कर विचार हर सीने का दुःख दूना था
जो बीता उसका शोक त्याग, होना होगा कर्त्तव्यनिष्ठ
अब भरत संभालें राजकाज, स्वर को दृढ़ कर बोले वशिष्ठ

दो हाथ जोड़कर उठे भरत, बोले सबको संबोधित कर
कैसे विश्वास किया तुमने, मेरे जैसे कैकयीसुत पर
मेरे जैसे कुलघाती को मत अर्पित कर देना शासन
यह राज्य राम की थाती है, उनका ही है यह सिंहासन
रघुवंश शिरोमणि राघव को, वापस लौटाने जाऊंगा
श्री राम संभालेंगे शासन, मैं स्वयं मनाने जाऊंगा
यह निर्णय करते हुए सभा के बीच खड़े हो गये भरत
आश्चर्य सुखद होकर छाया, तत्काल बड़े हो गये भरत

चल दिया भरत बन भ्रातृप्रेम, कैकयी बन पश्चाताप चला
आशीष चला बनकर वशिष्ठ, ढाँढ़स की ओर विलाप चला
उत्साह चला, आशा दौड़ी, पीड़ा के संग यूँ खेद चला
कर्त्तव्यनिष्ठ के श्रम का अभिनंदन करने ज्यूँ स्वेद चला
आश्रम दौड़े, कुटिया दौड़ी, रथ भूला राजभवन दौड़ा
जंगल से अपना मन लाने, सुध-बुध खोकर हर तन दौड़ा
हर क्षोभ धुला, हर पीर छँटी, अवसाद राह में गया छूट
कोरा भाई रघुनन्दन का पहुँचा जाता था चित्रकूट
भावुकता के रथ पर चढ़कर दल वन को बढ़ता आता था
इनके चलने से धूरिमेघ अम्बर तक चढ़ता जाता था

लक्ष्मण ने दूर खड़े देखा, क्षण भर में यह अनुमान किया
निश्चित ही कैकयी के सुत ने संग्राम राम से ठान लिया
सोचा, सब कुछ चुकता होगा, भैया ने जो-जो कष्ट सहा
क्रोधित होकर सौमित्र चले, राघव को सारा हाल कहा
देखो भैया, सेना लेकर बढ़ता है अपनी ओर भरत
श्री राम जानते थे मन में, कितना है भाव विभोर भरत
लक्ष्मण बोले, भ्रम है उसको, वह हमको मार गिरायेगा
हम दोनों के मर जाने पर निष्कंटक राज्य चलायेगा
वह भूल गया सत्ता मद में, दशरथ का ही है लाल लखन
अग्रज के हेतु समर्पित है, वैरी के हित है काल लखन
भैया, मैं आगे जाता हूँ, सौगंध तुम्हारी खाता हूँ
कैकयी के बेटे का वध कर, फिर राज्य छीन ले आता हूँ

लक्ष्मण का क्रोध अपार हुआ, तब आसन से उठ गये राम
बिन सोचे क्या कह गये अनुज, संशय को कुछ तो दो विराम
जितनी पीड़ा तुमने भोगी, उतना ही दुःख उसने भोगा
इस समय भरत पर स्वयं भरत, तुमसे बढ़कर क्रोधित होगा
माना हाथी हैं, घोड़े हैं, आगे है ध्वजा अयोध्या की
निश्चित ही भावुक राजा के पीछे है प्रजा अयोध्या की
तुम कहते हो सत्ता मद में खींचेगा भरत हमें रण में
मैं कह भर दूँ, तो सिंहासन वह तुम्हें सौंप देगा क्षण में

"भैया-भैया" कहता उस क्षण आँगन तक भाई आ पहुँचा
भावुक मन अपनी काया की करता अगुआई आ पहुँचा
स्वर दौड़ा, दृष्टि अलग दौड़ी, धड़कन भागी, रुक गये भरत
अपना पूरा आचरण लिये, दो चरणों में झुक गये भरत
पैरों से जा लिपटा भाई, लगता था चुम्बक हुए राम
पीछे काया का स्पर्श हुआ, पहले आँसू ने छुए राम

फिर राम झुके, भाई के दोनों कंधे थाम लिये झुककर
धरती और शेषनाग दोनों यह दृश्य देखते थे रुककर
उच्चारण हिचकी में सिमटा, साँसों ने प्यार समेट लिया
दोनों ने चार भुजाओं में सारा संसार समेट लिया
इसका सीना धड़कन उसकी, इसका कंधा और सिर उसका
यूँ लिपटे ज्यों धमनी इसकी और उसमें बहा रुधिर उसका
दोनों ने मिलकर आँसू के जल से नहलाया आलिंगन
तीनों लोकों में उस क्षण से पावन कहलाया आलिंगन
आलिंगन में दो प्राण, परस्पर विद्यमान हो जाते हैं
आलिंगन में भरकर दो जन बिल्कुल समान हो जाते हैं

भाई से लिपटे हुए राम को दिखीं द्वार पर माताएँ
भीगी पालकों के साथ खड़ी वैधव्य धार कर माताएँ
पुंछ गया सिंदूर अयोध्या का, रघुकुल पर क्या आघात हुआ
ममता की सूनी मांग देख, सब हाल राम को ज्ञात हुआ
साकेत हुआ कितना विचलित, सरयू को कितना कष्ट हुआ
तीनों माताओं का पूरा अस्तित्व सूचनापट्ट हुआ
आनंदपाश छूटा, राघव की श्वास काँपकर सिसक गई
धक्-से दिल बैठ गया जैसे धरती नीचे से खिसक गई
मस्तक पर रेखाएँ उभरीं, नैना भीगे छोटे होकर
ममता के आँचल तक लाए, राघव अपनी काया ढोकर
मन घिरा पिता की यादों में, तन कैकयी के सन्निकट गया
जग का पालक, बालक होकर, माँ के आँचल में सिमट गया
कैकयी के मन का भार अश्रु का रूप धारकर बहता था
हे राम, अयोध्या लौट चलो, प्रायश्चित का स्वर कहता था

लक्ष्मण की शंका सच निकली, करने आया था युद्ध भरत
अन्तर केवल इतना-सा था, अंतर्मन से था शुद्ध भरत
जाने कितने ही तर्कों से भरकर निषंग ले आया था
राघव के राजतिलक का सब सामान संग ले आया था
लेकिन राघव भी राघव थे, दृढ़ता की ढाल उठाए रहे
दो वीर परस्पर जूझे; पर रघुकुल का भाल उठाए रहे
इक ओर राम की मर्यादा, इक ओर भरत की भावुकता
दोनों रघुवंशी अडिग रहे, ना ये झुकता, ना वो झुकता
हर रीति गिनी, हर नीति गिनी, शास्त्रोक्त सभी कुछ याद किया
ना राम थके, ना भरत थके, पहरों तक यूँ संवाद किया
अब से पहले इस दुनिया ने ऐसा संग्राम न देखा था
निष्ठा ने भरत न देखा था, दृढ़ता ने राम न देखा था

सब लोग भरत से सहमत थे, सब साथ भरत का देते थे
फिर भी नैया मर्यादा की, श्रीराम अकेले खेते थे
बस राम अयोध्या लौट चलें, ऐसा करके अनुमान भरत
भावुकता की प्रत्यंचा से करते थे शर-संधान भरत
उस ओर राम थे अडिग बहुत, मन को पत्थर-सा किए हुए
ज्यों कवच बनाकर पहने हों, दो वचन पिता के दिए हुए
दो धर्मनिष्ठ दुर्लभ योद्धा, इक युद्ध परस्पर लड़ते थे
निज सुख की अनदेखी कर के परहित के लिए झगड़ते थे

राघव बोले पितु आज्ञा है मुझको वन में रहना होगा
और भरत, तुम्हें राजा बनकर वह राज्यभार सहना होगा
हम दोनों साथ रहेंगे तो, पितु का बोला मिथ्या होगा
हम दोनों साथ रहेंगे तो, उन दो वचनों का क्या होगा
राघव का तर्क वृथा करके कह दिया भरत ने इक पल में
श्रीराम अयोध्या लौटेंगे, और भरत रहेगा जंगल में
हम दोनों भाई मिल जुलकर रघुकुल का वचन निभाएंगे
मैं वनवासी हो जाऊंगा, राघव राजा बन जाएंगे
इस भ्रातृनेह से बिंध करके, निरुपाय हो गए रामचंद्र
ऐसे निःस्वार्थ समर्पण से असहाय हो गए रामचंद्र

रच दिया भरत ने मोहव्यूह, एकल जिसमें घिर गए राम
ममता, अपनापन, स्नेह, भक्ति, अनुनय, आज्ञा, आदर तमाम
इक ओर नीति के रथ पर थे आज्ञा लेकर कुलगुरु वशिष्ठ
इक ओर उपस्थित थे सुमंत मंत्रणा हेतु कर्तव्यनिष्ठ
वात्सल्य बिंदु पर कौशल्या थी अपनी पीड़ा ओढ़ खड़ी
प्रायश्चित के आँसू लेकर कैकयी माँ थी कर जोड़ खड़ी
निर्लिप्त सुमित्रा माता थी, चेहरे पर कोई भाव न था
राघव ने उनका मन देखा, आशा का तनिक अभाव न था
वह समझ चुकी थी नहीं लिखा पूरा सुख उसके जीवन में
आधा मन होगा महलों में, आधा मन रहना है वन में
भावुकता ने आघात किया, दृढ़ता का वज्र हुआ पानी
राघव के मन ने भी उस दिन राघव की बात नहीं मानी
असमंजस बढ़ता जाता था, इस ओर नेह, उस ओर ज्ञान
साकेत घिरा था दुविधा में, मिथिला से आया समाधान

सज गया न्याय का सिंहासन, आ मिले कसौटी और कनक
दोनों पक्षों की बात सुनी, फिर यूँ बोले मिथिलेश जनक
पहला प्रणाम उस रघुकुल को, जिसने ऐसा परिवार दिया
निःस्वार्थ, समर्पित, धर्मनिष्ठ -इन शब्दों को साकार किया
ऐसे भी होते हैं भाई, यह देख हृदय आनंदित है
दोनों का त्याग अलौकिक है, दोनों का यत्न प्रशंसित है

था स्वयं जनक का हृदय सजल, दृढ़ दिखते मात्र प्रकट में थे
जो धर्मदण्ड लेकर बैठे, वे स्वयं धर्मसंकट में थे
आदेश पिता का बिसरा दें, तब दूर उदासी होती है
रघुकुल की रीति निभाएं तो, बेटी वनवासी होती है
अंतिम निर्णय की वेला थी, पर्वत मन पर धरकर बोले
पलकों पर बूँदें उभरी और स्वर में दृढ़ता भरकर बोले

राजा दशरथ के वचनों में, संशोधन का अधिकार नहीं
हे भरत, धर्म को इस कारण, कोई अनुनय स्वीकार नहीं
जिसके हित जो आदेश हुआ, बस वही पिता की थाती है
कर्त्तव्यों के कंटक पथ पर, भावुकता काम न आती है
दायित्व निभाते हुए चतुर्दश वर्ष काटने हैं तुमको
वनवास-राज्य बस साधन हैं, दो वचन साधने हैं तुमको
राजा होना क्या होता है, तुमको किंचित अनुमान नहीं
नृपजीवन कठिन तपस्या है, इसको समझो वरदान नहीं
और राम, नहीं संशय इसमें, तुम रघुकुल रीति निभाओगे
लेकिन यह भी संकल्प करो, साकेत लौटकर आओगे

कर जोड़ भरत फिर बोल उठे, मैं चौदह वर्ष बिता लूंगा
पर इससे अधिक वियोग हुआ, तो जिवित चिता सजा लूंगा
राजा तो राघव ही होंगे, मैं बस दायित्व निभाऊंगा
अग्रज का प्रतिनिधि बनकर मैं, राघव का राज्य चलाऊंगा
भैया, अपने इस सेवक पर, उपकार अभी इतना कर दो
चरणों में राज न रख पाओ, तो चरण सिंहासन पर धर दो
रुंध गया राम का कण्ठ, हृदय फूला ऐसा भाई लखकर
जब भरत अयोध्या लौट चले, पाँवरी राम की सिर रखकर
पदत्राण शीश पर धारे थे, क्या अनुपम दृश्य बनाया था
जो रामचन्द्र को ला न सका, वह रामराज ले आया था

✍️ चिराग़ जैन

Saturday, August 24, 2024

हमारा लोकतन्त्र महान!

लोकतन्त्र नामक राज्य के आसपास घना ‘लोभारण्य’ था; जिसमें भयानक धनपशु और लाभासुर रहा करते थे। ये लाभासुर जब-तब नागरिकों का रक्त चूसते थे और और धनपशु बर्बरतापूर्वक उनका जीवन नारकीय बना देते थे। ‘नागरिकों’ ने अपनी सुरक्षा के लिए कठिन तपस्या की और व्यवस्था का निर्माण किया। नागरिकों की रक्षा के लिए यह व्यवस्था शक्तिशाली अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी। अब धनपशु और लाभासुर नागरिकों को प्रताड़ित करने आते थे, तो व्यवस्था उनके प्रयासों को विफल कर देती थी। इस स्थिति का सामना करने के लिए लाभासुरों ने व्यवस्था की घेराबंदी में भ्रष्टकीट छोड़ दिए और धनपशुओं ने जगह-जगह रिश्वत का गोबर करके व्यवस्था की धरती में दीमक प्रविष्ट करवा दी। भ्रष्टकीटों ने व्यवस्था के अस्त्र-शस्त्रों को नपुंसक बना दिया और दीमकों ने व्यवस्था को भीतर से खोखला कर दिया। इस दुर्बलता का लाभ उठाते हुए लाभासुरों और धनपशुओं ने व्यवस्था के भीतर अपने प्रतिनिधियों को घुसा दिया। करत-करत अभ्यास के... ये प्रतिनिधि नियामक बन गए और इन्होंने पूरी व्यवस्था को धनपशुओं और लाभासुरों के पक्ष में नागरिकों के विरुद्ध खड़ा कर दिया। अब जो नागरिक, धनपशुओं और लाभासुरों को अपना रक्त पीने से रोकता था, उसे विकास-विरोधी कहा जाने लगा। जिसने दया की गुहार की, उसे व्यवस्थाद्रोही कहा जाने लगा।
व्यवस्था ने अपने अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करके नागरिकों के हाथ-पैर बांधकर लोभारण्य में फेंक दिया और नागरिकों को यह आदेश दे दिया कि जब कोई तुम्हारा रक्त पीने आए तो प्रतिकार करके उसका अपमान न करना। बल्कि हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक कहना - ‘हमारा लोकतन्त्र महान!’

✍️ चिराग़ जैन

Saturday, August 17, 2024

सिस्टम और हम

सिस्टम की आपसे केवल इतनी अपेक्षा है कि आप सिस्टम से कोई अपेक्षा न करें। जब कोविड से जूझना हो तो डॉक्टर को सिस्टम का सहयोग करना चाहिए। उस समय, न उसे अपने ड्यूटी ऑवर्स की चिंता करनी चाहिए, न अपनी जान की! ऐसा करते हुए उनकी जान चली जाये तो उनका जीवन सार्थक होगा। सिस्टम की मदद करनेवालों पर फूल बरसाये जाएंगे। उनके लिए सब अपनी बालकनी में खड़े होकर ताली बजाते दिखेंगे! सभी के चेहरे पर डॉक्टर के लिए आदर का भाव उभर आएगा। लेकिन डॉक्टर को जब सिस्टम की सहायता चाहिए, तब सिस्टम अपनी शक्ल पर बड़ा-सा शून्य लटका लेगा। अपनी मांग लेकर डॉक्टर सड़कों पर उतरना चाहेंगे तो उन पर ड्यूटी से लापरवाही का आरोप लगेगा। उन्हें ग़ैर-ज़िम्मेदार बताया जाएगा। उनकी मांगों को अनसुना करते हुए उन्हें कर्त्तव्यों का पाठ पढ़ाया जाएगा। उन्होंने सत्ता के विरुद्ध कोई मोर्चा खोला तो उन्हें राष्ट्रद्रोही और ग़द्दार कहने में भी राजनीति नहीं हिचकिचाएगी।
किसी की जान जाती है तो जाए, पर सरकार की साख नहीं जानी चाहिए।
खिलाड़ी देश के लिए मैडल लायें, यह उनका कर्त्तव्य है। उन्हें अपने जीवन की तमाम सम्भावनाओं को ताक पर रखकर देश के लिए खेलना चाहिए। यही राष्ट्र के प्रति उनका कर्त्तव्य है। लेकिन वही खिलाड़ी अपने खानपान, अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए; अपने संस्थान में चल रहे किसी कदाचार के लिए या अपने साथ हुए किसी दुर्व्यवहार के लिए सिस्टम और सत्ता की ओर देखे तो सत्ता पहले उस व्यक्ति का भारोत्तोलन करती है, जिस पर आरोप लगाया गया है। यदि उस पर एक्शन लेने से सरकार को कोई फर्क़ नहीं पड़ता तो सरकार उस भ्रष्टाचारी को उठाकर सिस्टम से बाहर फेंक देती है; लेकिन उस पर कार्रवाई होने से सरकार की सेहत पर फर्क़ पड़ता हो तो सरकार खिलाड़ियों को उठाकर जंतर-मंतर से बाहर फेंक देती है।
किसान देश के लिए अधिक अन्न उपजाने में दिन-रात एक कर दे तो सरकार जगह-जगह ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा पुतवा देती है, लेकिन वही किसान, सरकार की किसी नीति का विरोध करना चाहे तो सरकार उसी किसान पर उन्हीं जवानों से लाठीचार्ज करवा देती है। जिन किसानों को अन्नदाता कहकर गीत गाए जाते थे, उन्हीं को ग़द्दार, खालिस्तानी और आतंकवादी कहा जाने लगता है। जिन किसानों के रास्ते में फूल बिछाये गए थे, उन्हीं के रास्ते में काँटे बिछा दिए जाते हैं।
सैनिक देश के लिए सीमा पर मरे तो उसे शहीद कहा जाता है। उसे तिरंगा ओढ़ाकर विदा किया जाता है। लेकिन वही सैनिक अपने को मिलनेवाले खाने की शिकायत कर दे तो उसे अनुशासन का पाठ पढ़ाया जाता है।
सरकार आपको एक नागरिक मानना ही नहीं चाहती। आप सरकार के काम आ रहे हैं तो आपको ‘महान’ माना जाएगा। आपको वॉरियर, देवदूत, भगवान, मनुष्यता का पर्याय और न जाने क्या-क्या कहा जाएगा।
अगर आप सरकार के विरुद्ध हुए तो आपको राष्ट्रद्रोही, ग़द्दार, आतंकवादी, संवेदनहीन, लालची, भ्रष्टाचारी, रैकेटियर जैसे तमगे मिलेंगे। और अगर आपका सरकार से कोई सरोकार नहीं है तब तो आप कीड़े-मकोड़े हैं ही।
यदि नागरिक मान लिया जाए तो न तो किसी को देवता सिद्ध करना पड़ेगा, न हो दानव।
डॉक्टर मरीज़ का इलाज कर रहा है, किसान फसल उगा रहा है, खिलाड़ी खेल का अभ्यास कर रहा है, लेखक लिख रहा है, लिपिक फाइल प्रबंधन कर रहा है -यह सब सामान्य है ना।
लेकिन सरकार तारीफ़ करके हमें हमारे रोज़मर्रा के काम के लिए महान सिद्ध करती है। हम प्रसन्न हो जाते हैं। सरकार हमें बताती है कि तुम विशेष हो। हम स्वयं को विशेष मानकर बाकी सबको समान्य मान लेते हैं। इसी समय बाकी सब भी हमें सामान्य मानते हुए ख़ुद को विशेष मान रहे होते हैं।
हम ख़ुद को विशेष समझकर सरकार की ओर अपेक्षा भरी नज़र उठाते हैं। सरकार अपेक्षा से चिढ़ती है। वह सिस्टम को इशारा करती है कि इस विशेष को इसकी हैसियत बताई जाए।
सिस्टम हमें हमारी औक़ात बताने लगता है। पत्थर हो चुके सत्ताधीशों की ओर अपेक्षा से देखते देखते हमारी आँखें पथरा जाती हैं। सिस्टम हमारी आँख में उंगली डालकर वह पत्थर की आँख निकालता है और हमारे सिर पर दे मारता है।


✍️ चिराग़ जैन

Wednesday, August 14, 2024

विवेक को सोने दो

चेतावनी: यह पोस्ट आपको विवेकशील बना सकती है। और विवेकशील होना आपके राजनैतिक भविष्य के लिए घातक है।


हम भयंकर संवेदनहीन लोगों से घिर चुके हैं।
‘अपराधी’; ‘विवश’; ‘दरिन्दा’ और ‘बेचारा’ जैसे उपनाम हमारी राजनैतिक प्रतिबद्धता को देखकर तय किए जाते हैं।
भाजपाई होने के लिए मुसलमानों से घृणा न्यूनतम अर्हता है, और कांग्रेसी होने के लिए संघ से नफ़रत ज़रूरी है।
कांग्रेसी होकर कांग्रेस की चूक पर बोलना पाप है। भाजपाई होकर भाजपा सरकार की किसी भी नीति का विरोध महापाप है।
मोदी जी की मिमिक्री करने पर किसी को प्रताड़ित किया जाएगा तो कांग्रेसी और आपिये भाजपा को हास्यबोध विहीन घोषित कर देंगे। लेकिन किसी ने राहुल गांधी या केजरीवाल पर कोई परिहास कर दिया तो यही कांग्रेसी और आपिये उससे परहेज करने लगेंगे।
निष्पक्ष होना कदाचार कहलाने लगा है। विवेकशील लोग राजनीति के लिए ख़तरनाक़ हैं। असहमति जतानेवाला एक दिन ग़लत को ग़लत कह देगा, इसलिए किसी को सदस्य चाहियें ही नहीं। सबको अंधभक्त चाहियें।
अपना विपक्ष किसी को भी बर्दाश्त नहीं है। हर दल वहाँ लोकतन्त्र लाना चाहता है, जहाँ वह सत्ता में नहीं है। सत्ता में आते ही सब तानाशाही के पक्ष में तर्क जुटाने लगते हैं।
विपक्ष में रहकर जो मशालें उठाई जाती हैं, सत्ता में पहुँचते ही उन मशालों को आरती का थाल बनाकर चमचों के हाथ में थमा दिया जाता है।
बलात्कार यदि कांग्रेस शासित राज्य में हुआ है तो कांग्रेस का समर्थक, वहाँ शासन की कार्रवाई से संतुष्ट होगा। ज़्यादा गहरा समर्थक हुआ तो पीड़िता की ग़लतियाँ भी ढूंढ सकता है। छोटा-मोटा समर्थक हुआ तो भी कम से कम चुप लगाने जितनी निष्ठा तो निभाएगा ही। लेकिन यही दुष्कर्म यदि भाजपा शासित राज्य में होगा तो कांग्रेस का कार्यकर्ता सबसे पहले सरकार को अमानवीय घोषित करेगा, फिर मनुष्यता का झंडा उठाएगा, बेटियों के पक्ष में संवेदनात्मक पोस्ट्स लिखेगा।
मणिपुर में महिला को नंगा घुमाया जाएगा तो भाजपावाले उस वीडियो से दहल नहीं जाएंगे। वे उसके वायरल होने के पीछे सरकार को बदनाम करने की मंशा तलाश लेंगे। मणिपुर में होनेवाली विदेशी फंडिंग की काल्पनिक रसीदें दिखाकर मणिपुर के लोगों को राष्ट्रद्रोही साबित करेंगे।
लोकतंत्र और नैतिकता, नंगे बदन, सिर झुकाए, सड़क पर पत्थर खाएगी और राजनीति उसके अंगोपांग को मसलकर अपने बलशाली होने का जश्न मनाती रहेगी।
जनता का विवेक कुंभकर्ण की नींद सो रहा है। राजनैतिक रावण मनुष्यता की लक्ष्मण रेखा लाँघकर भी जन-संवेदना की सीता को अपनी अशोक वाटिका में कैद रखना चाहते हैं।
अपने विवेक को आँखें मत खोलने देना, क्योंकि आँखें खोलते ही उसे अपने राजनैतिक आका के चेहरे पर लगे घिनौने धब्बे साफ़-साफ़ दिखने लगेंगे।

✍️ चिराग़ जैन

Wednesday, July 24, 2024

विनीत चौहान

सामाजिक व्यवहार में मैच्योरिटी की परिभाषा तलाशता हूँ तो पाता हूँ कि सही और ग़लत का निर्धारण करने से पहले अपने व्यक्तिगत लाभ और हानि का आकलन करने की क्षमता को मैच्योरिटी कहते हैं। यद्यपि यह परिभाषा मैंने स्वयं गढ़ी है, तथापि मैच्योर कहे जानेवाले अधिकतम लोगों को मैंने इस परिभाषा पर खरा उतरते देखा है। मेरा निजी मत यह है कि इस परिभाषा की परवाह न करते हुए सहज आचरण करनेवाले लोग अधिक निश्छल, अधिक प्यारे और अधिक जेनुइन होते हैं। सामान्य भाषा में इनके लिए एक विशेष शब्द प्रयुक्त किया जाता है जो ‘मूर्ख’ शब्द का निकटतम पर्यायवाची है।

मुझे ऐसे तथाकथित मूर्ख अधिक नैतिक और अधिक निस्पृह लगते हैं। मैं अपने ख़ुद के आचरण में इस ‘मूर्खता’ को कई बार आसानी से खोज लेता हूँ। यह सत्य है कि एमैच्योरिटी सामाजिक दृष्टि से असफलता की ओर ले जाती दिखाई देती है लेकिन मुझे ऐसे लोग तथाकथित ‘मैच्योर’ लोगों से अधिक बहादुर लगते हैं।

ऐसे ही एक एमैच्योर व्यक्ति हैं श्री विनीत चौहान। किसी भी घटना पर त्वरित प्रतिक्रिया के साथ तैयार। लाभ-हानि का गणित लगाने का अवसर ख़ुद को ही नहीं देते। लड़ते हैं तो पूरी ऊर्जा से, क्योंकि जिस बात के लिए लड़ रहे होते हैं उसको अपने अन्तःकरण से ‘सच’ मान चुके होते हैं। जिसे अपना कह देते हैं, वह यदि उनसे छल भी कर रहा हो तो उसका छल बहुत देर में देख पाते हैं, क्योंकि अपने पूरे अन्तःकरण से उसे अपना मान चुके होते हैं। भावुक इतने कि संवेदना की किसी पंक्ति के पूरा होने से पहले ही आँखों में आँसू डबडबाने लगते हैं। मैंने अनेक अवसरों पर किसी पुरानी याद का संस्मरण सुनाते-सुनाते उनका गला रुंधते देखा है।

आज इस पारदर्शी व्यक्तित्व का जन्मदिन है। हिंदी कवि-सम्मेलन जगत् में मैच्योर लोगों की भीड़ के बीच जिन चंद किरदारों की संगत से मन खिल उठता है, उनमें विनीत जी एक हैं। विनीत जी अलवर से हैं और अलवर मेरी ननिहाल है, इस रिश्ते से मैं उन्हें ‘मामा’ कहकर संबोधित करता हूँ। मामा को ज्यों-ज्यों करीब से देखा, त्यों-त्यों समझ आया कि ‘हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी’ का अर्थ सकारात्मक भी हो सकता है। कितने ही किस्से हैं, जहाँ मामा का व्यक्तित्व अपने ही किसी पुराने व्यवहार के ठीक विपरीत दिखाई देने लगा।

किसी की पीड़ा पर बिलख पड़नेवाला शख़्स जब दुर्घटना में क्षत-विक्षत कविमित्रों को गाड़ी से बाहर निकालने के लिए गाड़ी के शीशे तोड़ता है तो उसके वज्रहृदयी होने के प्रमाण मिलते हैं। किसी की अनैतिकता पर क्रुद्ध हो जानेवाले विनीत चौहान जब किसी की विवशता का विश्लेषण करते हैं तो ऐसा लगता है ज्यों कोई करुण रस का कवि संवेदना की परतों को स्पर्श करना चाह रहा हो। जिनका मन भर आदर करते हैं, उनको भी यदि कहीं ग़लत पाते हैं तो उनसे जी भर कर लड़ लेते हैं।

विनीत चौहान का स्वभाव एक ऐसे संवेदनशील मनुष्य का उदाहरण है, जो मैच्योर सहगामियों के साथ रहकर भी अपनी निस्पृह प्रतिक्रियाओं को मैच्योर बनाने की न तो कभी इच्छा पाल सका, न ही ऐसी कोई आवश्यकता महसूस कर सका।

दोस्ती कैसे निभाई जाती है और दोस्त को साधिकार कैसे टोका जाता है, इस बात को समझना हो तो विनीत चौहान के अपनत्व के दायरे में प्रवेश करके देखिए!

Tuesday, July 23, 2024

बजट 2024

मैंने सरकार से पूछा 
जब एक लाख सालाना आय वाले 
पैसे मांगने आए
तो आप क्या कर लेंगे 
सरकार बोली करना क्या है 
हम उन्हें जॉब देने वालों को 
न्यूनतम वेतन कानून उल्लंघन का 
चार्ज लगाकर धर लेंगे 

हमने पूछा
ये इंटर्नशिप की योजना में तो काफी लोचा है 
क्या आपने सोचा है 
लोग नकली इंटर्नशिप दिखाकर 
पाँच हज़ार रुपये महीने का दावा करेंगे सरकार से 
सरकार ने हमें समझाया प्यार से 
देखो इस स्कीम में सबकी भलाई है 
इसमें बेरोज़गारों के हिस्से छाछ 
और उद्योगपतियों के हिस्से मलाई है 
उद्योगपति नई भर्ती इंटर्नशिप के नाम पर भरेगा 
और 5000 रुपये महीना 
अपने CSR FUND से भरेगा 
नया रंगरूट 5000 रुपये कमाकर लाएगा 
और ख़ुद को बेरोजगार भी नहीं कह पाएगा 
तो हुई ना बात सबके अधिकार की 
CSR उद्योगपति का
Job उद्योगपति की 
और वाहवाही सरकार की 

लेकिन जनाब 
इससे पुराने employee की हालत हो जाएगी ख़राब 
सरकार बोली 
हमने नए रोज़गार देने का वादा किया था 
पुराने रोयेंगे तो उन्हें भी देख लेंगे 
अगले बजट में नयों की पट्टी खोलकर 
पुरानों पर लपेट देंगे।

✍️ चिराग़ जैन 

मध्यम वर्ग की पीड़ा

तुम लड़ते रहे चुनाव, ओ साब
मेरी थाली खाली है रही है

मुझसे टैक्स वसूला जाए, उन्हें चढ़ावा जाए
मैं देकर भी झिड़की खाऊँ, वो खाकर गुर्राए
वो मुझे दिखावें ताव, ओ साब
मेरी जेब मवाली है रही है

मध्यम वर्ग बनाकर मुझको, दोनों ओर निचोड़ा
इन्हें दान दो, उन्हें मान दो, नहीं कहीं का छोड़ा
मेरा बढ़ता रहा अभाव, ओ साब
वहाँ रोज़ दीवाली है रही है

जीएसटी ने पहले सों ही इनकम कम कर राखी
रोड टैक्स देकर भी ससुरा टोल रह गया बाकी
मेरा कैसे होय बचाव, ओ साब
हर दिन बदहाली है रही है।

✍️ चिराग़ जैन 

Wednesday, July 17, 2024

धरती के गहने हैं पेड़

रंग-बिरंगे पत्तोंवाले
धरती के गहने हैं पेड़
मिट्टी के मटमैले तन पर
पृथ्वी ने पहने हैं पेड़

क्यारी में ये फूल खिलाते
ठण्डी-ठण्डी हवा चलाते
धूप चुभे तो छाया लाते
बारिश में छतरी बन जाते

कभी फलों से लदती डाली
कभी फूल लाते ख़ुशहाली
साँस सुहाती गंध निराली
आँखों को भाती हरियाली

इनसे जंगल हर्षाते हैं
बाग़-बगीचे मुस्काते हैं
पेड़ प्रदूषण पी जाते हैं
इस कारण हम जी पाते हैं

✍️ चिराग़ जैन

Monday, July 8, 2024

भरत का परिताप

बोले वशिष्ठ, है व्यथित हृदय, राजा को भू-शायी पाकर
दो कंधे तो बुलवा लाओ, कैकयी के नैहर से जाकर
उन दिनों भरत कुछ विचलित थे, आँखों को स्वप्न अखरता था
कारण तो ज्ञात नहीं था पर, मन के भीतर कुछ गड़ता था
गहरे संबंधों में प्रतिपल, इक तार जुड़ा ही रहता है
तन दूर रहे, फिर भी मन से परिवार जुड़ा ही रहता है
सपनों में अवध उमड़ता था, घिर गए भरत उच्चाटन में
संदेश पहुँचने से पहले, आभास पहुँचता है मन में
अंतस में संशय का ताण्डव, देहरी पर दूत अयोध्या का
सूखे पत्ते-सा काँप गया, वह भावुक पूत अयोध्या का
अनुमान हुआ कैकयी सुत को, संयोग नहीं यह साधारण
पहले तो पूछा कुशल-क्षेम, फिर पूछा आने का कारण
यह दूतकर्म था कठिन बहुत, भीतर का शोक छिपाना था
मातम को मंगल कहना था, स्वामी को झूठ बताना था
घर-नगर चतुर्दिक मंगल है, यह बात अधर जब कहते थे
पिंडलियाँ कंपन करती थीं, आँसू भीतर को बहते थे
हे राजकुँवर गुरु आज्ञा से, आया हूँ तुम्हें बुलाने को
इसके अतिरिक्त नहीं कोई संदेश तुम्हें बतलाने को
चल दिये भरत, ऋपुदमन सहित, निर्बाध दौड़ता था स्यन्दन
स्यन्दन की गति से आशंका और आशा का जारी था रण
जब किया प्रवेश अयोध्या में, गलियों में सन्नाटा देखा
संशय का ज्वार उमड़ आया, और धीरज ने भाटा देखा
जब हम ननिहाल गए थे तब, ऐसा नगरी का रंग न था
हर चौखट इतनी मौन न थी, हर आंगन इतना दंग न था
सबकी आँखों में तिरस्कार, कितना अनभिज्ञ अभागा हूँ
ज्यों सावन का सोया-सोया सीधे पतझर में जागा हूँ
जिस ओर भरत का रथ देखा, मुँह फेर खड़े हो गए लोग
कैकयी सुत ने मन में सोचा, मैं मानुष हूँ या महारोग
ऐसा लगता था खड़ा हुआ है शीश झुकाए राजभवन
कैकयी सुत से आँखें करता था दाँए-बाँए राजभवन
केवल इक सूरत ऐसी थी, जिस पर कण भर अवसाद न था
वैधव्य समाया था तन पर, चेहरे पर तनिक विषाद न था
वसनों का रंग उदास हुआ, सूना था गात कलाई का
कुमकुम, सिंदूर विलुप्त हुए, मुख पर था भाव ढिठाई का
पुलकित होकर बोली कैकयी, अभिनंदन हो स्वीकार भरत
पहले पितु की अंत्येष्टि करो, फिर ग्रहण करो दरबार भरत
मैं हुआ अनाथ, अयोध्या का सूरज यमपुर में डूब गया
ऐसे में माँ का उत्स देखकर हृदय भरत का ऊब गया
ज्ञानी शब्दों से घटना का बस इंगित पाया करता है
भीतर का सच तो वक्ता का आचरण बताया करता है
आश्चर्य क्षुब्ध होकर टूटा, पीड़ा क्रोधित हो चीख पड़ी
माँ को हर्षित क्यों करती है, रघुकुल की ऐसी शोक घड़ी
बोला, माँ ओछा लगता है, यह तेरा हर्ष प्रफुल्लित मन
तूने ही तो दे दिया नहीं इस महाशोक को आमंत्रण
उन्माद परे रखकर सम्भली, वात्सल्य ओढ़ने लगी त्रिया
सुत की आँखों में घृणा देख, भौंहें सिकोड़ने लगी त्रिया
तुझको भी मैं दोषी लगती, ऐसे क्या पाप किये मैंने
राजा पर थे दो वर उधार, अवसर पर मांग लिए मैंने
मेरा बेटा युवराज बने, यह इच्छा तो अपराध नहीं
और राम नहीं वन जाते तो, पूरी होती यह साध नहीं
ये सुनते ही थम गए भरत, जम गई शिरा, खुल गए अधर
लगता था नमक छिड़क डाला कैकयी ने जलते घावों पर
हर रोम लपट बन दहता था, पर्वत-सा टूटा था सिर पर
था क्रोध अधिक या पीर अधिक, यह निश्चय करना था दूभर
नथुने फूले, साँसें धधकी, कर्कश हो गया भरत का स्वर
भीतर जो लावा फूटा था, आ गया अचानक जिह्वा पर
पापिन तूने इन कुलघाती हाथों से क्यों पाला मुझको
जिस दिन जन्मा था उस दिन ही क्यों मार नहीं डाला मुझको
सब करते मेरा तिरस्कार, जाने कैसी छवि अंकित है
तेरी करनी से जग भर में, अब मेरी कीर्ति कलंकित है
देना होगा उत्तर इसका युग-युग तक स्वयं विधाता को
क्यों बन्ध्या नहीं बना डाला, ऐसी हत्यारिन माता को
पति को खाकर आनंदित है, रत्ती भर पश्चाताप नहीं
रघुवंश मुकुट मणिहीन किया, इससे बढ़कर कुछ पाप नहीं
दर्पण तोड़ा है उत्सव का, ममता छल ली पापिन तूने
चरणामृत में विष घोला है, निज जिह्वा से नागिन तूने
चाहता हूँ उसका वध कर दूँ, जिसने यह अत्याचार किया
पर राम त्याग देंगे मुझको, यदि मैंने तुझको मार दिया
इक क्षण आँखें नम होती थी, इक क्षण भृकुटी चढ़ जाती थी
अभिव्यक्त भरत का मन करते, भाषा थोड़ी पड़ जाती थी
मन में जो भाव उमड़ते थे, वे भरत नहीं कह पाते थे
फिर भी जो कहा भरत ने वह सब शब्द नहीं सह पाते थे
चल दिये भरत इतना कहकर, इस द्वार न आऊंगा अब मैं
अपराधिन सुन तेरा यह मुख, फिर देख न पाऊँगा अब मैं
संतति के सुख की चाहत में, नभ-धरा एक कर जाती है
पर बेटा अपमानित कर दे, माता उस क्षण मर जाती है
श्वासों के चलने पर करती संदेह रह गई कैकेयी
जब भरत देहरी लांघ चले, तब देह रह गई कैकेयी
भर गया कण्ठ तक ग्लानिबोध, चलती साँसें दुःख देती थी
रोते-रोते अपने केशों को मुट्ठी में भर लेती थी
हो-होकर व्यथित हथेली से, मुख स्वयं ढाँपने लगती है
उसका दुःख वर्णन करने में लेखनी काँपने लगती है

✍️ चिराग़ जैन 

Tuesday, July 2, 2024

दशरथ का अवसान

घर-घर आनंद उमगता था, युवराज बनेंगे रामचंद्र
साकेत नगर के शासन का सरताज बनेंगे रामचंद्र
धरती पर हरियाली छायी, आकाश मुदित होकर झूमा
उत्सव के मधुरिम झोंकों ने, सरयू की लहरों को चूमा
सूरज के हाथों धरती पर सोना बरसाया जाता था
उपवन के हाथों मारुत में, मकरंद मिलाया जाता था

इस घड़ी तनिक मंथर गति से किस्से में आया कोपभवन
सुख के साकेती महलों में, किसने बनवाया कोपभवन
उत्सव की चाल बिगाड़ गया, कुब्जा का जाया कोपभवन
धरती-अम्बर ने सुख पाया, कैकयी ने पाया कोपभवन

सौन्दर्य कुपित होकर बिखरा, उत्सव का रंग उदास हुआ
कैकयी की बुद्धि हुई दूषित, चंदन में विष का वास हुआ
जिस अवधपुरी को कोई भी दल-बल से जीत नहीं पाया
उस नगरी का भी सहजोत्सव, क्यों सुख से बीत नहीं पाया
इक ओर धरा से अम्बर तक, उत्साहित पवन चहकता था
इक ओर कहीं अंतःपुर में, रानी का हृदय दहकता था

दशरथ अनभिज्ञ रहे इससे, घर के भीतर क्या क्लेश पले
राजा को छोड़, पिता बनकर; अंतःपुर को अवधेश चले
चलते-चलते दौड़े दशरथ, आनन्द कुलाचें भरता था
नयनों से हर्ष प्रवाहित था, तन से आगे मन चलता था
सोचा दशरथ ने जब घर में यह बात कहेगा रामपिता
कैकयी, कौशल्या रीझेंगी, आनंद मनाएगी सुमिता
जब मैं जाकर अंतःपुर को यह शुभ संदेश सुनाऊंगा
सबके चेहरे खिल जाएंगे, मैं इतराकर मुस्काऊंगा

लेकिन अंतःपुर पहुँचे तो, दशरथ का चेहरा क्लांत हुआ
मानस का मौसम खिन्न हुआ, राजा का मन विश्रांत हुआ
कैकयी की देहरी की रंगत, कुछ भूखी-प्यासी बैठी थी
उत्सव के कलरव से छिपकर, इस ओर उदासी बैठी थी
राजा ने भीतर झाँका तो, आश्चर्य जगाता चित्र मिला
कैकयी का मुख निस्तेज मिला, पूरा परिदृश्य विचित्र मिला
रानी की आँखों के नीचे, बहते काजल के घेरे थे
शृंगार ध्वस्त, सब अस्त-व्यस्त, रानी ने हाल बिखेरे थे
गिरकर आनंद हिंडोले से, पीड़ा में लिपट गया कोई
मानो उड़ने से पहले ही, घबराकर सिमट गया कोई

आश्चर्य कण्ठ तक भर आया, दशरथ ने पूछा रानी से
बोलो क्या ठेस लगी तुमको, किस दासी की मनमानी से
किस पापी ने सागर जैसी आँखों में आँसू बोए हैं
किसके कारण ये रतनारे नैना सारा दिन रोए हैं
हो गये विह्वल व्याकुल राजा, ना मानी त्रिया मनाने पर
कैकयी को भान हुआ तत्क्षण, पहुँचा है तीर निशाने पर
पीड़ित प्रेमी की पीड़ा पर, आघात किया विकराल; कहा
रूठी रानी ने दशरथ की आँखों में आँखें डाल कहा
दो वचन उधार रहे तुम पर, क्या है ये तुमको ध्यान अभी
मुझको देने होंगे तुमको, वो दोनों ही वरदान अभी

ये बात सुनी तो सहज हुए, फिर थोड़ा मुस्काये राजा
पर्वत को राई मान लिया, रानी के नियर आये राजा
बस इतनी-सी है बात और तुम मुँह लटकाये बैठी हो
वरदान चार मांगों रानी, तुम दो गिनवाये बैठी हो
सागर से सारे रत्न छीन आभूषण गढ़वा दूँ, बोलो
या फिर सारे नक्षत्र निकर, चरणों में चढ़वा दूँ, बोलो
तुम कहो, सुरों के हाथों से अमृत का घट ले सकता हूँ
ऐसा क्या है इस दुनिया में, जो तुम्हें नहीं दे सकता हूँ
यदि चाहो तो इस क्षण मेरे प्राणों पर फंदा कस दो तुम
लेकिन ऐसे रूठी न रहो, इक बार प्रियतमा हँस दो तुम

अवसर का मूल्यांकन करके, राजा को रण में घेर कहा
स्वर को मीठा करके बोली, पति के मन पर कर फेर कहा
बस दो अभिलाषा पूर्ण करो, जिससे मुझको कुछ श्वास मिले
हो जाय भरत का राजतिलक, और राघव को वनवास मिले

सुनते ही सन्न हुए दशरथ, कैकयी का मुख क्या बोल गया
ऐसा लगता था कोकिल स्वर, कानों में सीसा घोल गया
कातिक की शीतल संध्या में, भीगा था दशरथ का मस्तक
शुभ राजतिलक की बेला में, अनहोनी ने दी थी दस्तक

रानी तुमने ये क्या मांगा, क्या इसीलिए सब स्वांग किया
मैंने जीवन का नाम लिया और तुमने जीवन मांग लिया
पूरा उपवन मत नष्ट करो, क्यारी से पुष्प भले बीनो
चाहे मेरा सब कुछ ले लो, पर मुझसे राम नहीं छीनो

कैकयी को अपयश मिलना था, वह सुख की राह कहाँ चुनती
थे कान भरे पहले से ही, दशरथ की बात कहाँ सुनती
नारी ने हठ धारण की थी, अनुनय अपमानित होनी थी
करुणा को ठेस पहुँचनी थी, आशा की आँखें रोनी थी

क्रोधित होकर बोली कैकयी, मत झूठे गाल बजाओ तुम
या अपने वचन करो पूरे, या फिर अपयश को पाओ तुम
कल सुबह अगर वल्कल धारे, वनगमन नहीं कर गए राम
तो समझो मरण कैकयी का, रघुवंश कीर्ति की ढली शाम
इतना सुनते ही दशरथ की आँखों में उतर गई संध्या
रानी के निष्ठुर वचनों की ठोकर से बिखर गई संध्या

थककर धरती पर गिरा धैर्य, निरुपाय बिलखते थे दशरथ
कैकयी के चेहरे पर उतरी रजनी को तकते थे दशरथ
फिर बोले चांद-सितारों से, तुम रघुकुल की पीड़ा हरना
यह रात बीतने मत देना, हे सूर्य सवेरा मत करना
आँसू का अर्घ्य चढ़ाने से कब कालचक्र ने सुनी बात
कैकयी की लंबी हुई रात, दशरथ को छोटी लगी रात
उस दिन सूरज की किरणों से अंधियारी होती थी धरती
जनता के आँसू पी-पीकर, कुछ खारी होती थी धरती

दशरथ बेसुध आँखें मूंदे, सहते थे जग भर का विषाद
प्रिय राम चले वल्कल धारे, लक्ष्मण और सीता हुए साथ
सब साज त्याग वन को जाते, महलों ने देखे रामचंद्र
क्यों बढ़कर काट नहीं देते, विधिना के लेखे रामचंद्र

राघव के बिन वे कनक महल, यह दृश्य बनाते थे मन में
नगरी की पार्थिव देह पड़ी, और जीव जा रहा था वन में
वैभव ने वन की राह धरी, सौभाग्य नगर का फूट गया
बह गए तीन दीपक जल में, पीछे अँधियारा छूट गया
इतना सुख क्यों दे दिया ईश, इक नगर सुखों से ऊब गया
बस एक रात की कालिख में, सारा उजियारा डूब गया

मूर्च्छा टूटी दशरथ जागे, फिर चिर निद्रा में लीन हुए
त्रैलोक्य विजेता, गृहक्लेशों के कारण प्राणविहीन हुए
दशरथ की माटी कहती थी, ना मूल बचा, ना ब्याज बना
ले कैकयी अपने बेटे को युवराज नहीं, महाराज बना
बरसों पहले का अनजाना इक पाप ले गया दशरथ को
दो नेत्रहीन निर्दोषों का अभिशाप ले गया दशरथ को

✍️ चिराग़ जैन

Sunday, June 30, 2024

स्वार्थी कायरता

हम सब बहुत तेज़ी से भीड़ में अकेले होते जा रहे हैं। एक सिंह सैंकड़ों हिरणों के बीच से एक हिरण को उठा लाता है, क्योंकि सिंह आश्वस्त होता है कि आक्रमण के समय झुण्ड का प्रत्येक हिरण एकाकी हो जाएगा। यदि झुण्ड के आठ-दस हिरण भी संगठित होकर सिंह पर धावा बोल दें तो कोई नाहर "सर-ए-आम" अनीति करने की हिम्मत नहीं कर सकता।

लेकिन सम्भव है, हिरणों की माँओं ने भी अपने बच्चों को समझाया हो कि किसी के पचड़े में मत फँसना और कहीं झगड़ा हो रहा हो तो चुपचाप भागकर अपने घर आ जाना!

समाज की इसी स्वार्थी कायरता ने अपराधियों और शिकारियों को यह विश्वास दिलाया है कि आप सर-ए-आम अनैतिकता का नंगा नाच करोगे और ये सब पढ़े-लिखे सुसभ्य लोग 'लड़ाई करना गंदी बात' कहते हुए तमाशा देखेंगे।

अपराध, राजनीति, सिस्टम और निजी कंपनियाँ इसी प्रवृत्ति का लाभ उठाकर नागरिकों की भीड़ में से किसी भी हिरण का आसानी से शिकार कर लेते हैं। 'चहल-पहल'; 'सर-ए-आम'; 'भरे बाज़ार में'; 'सबके सामने' और 'बीच सड़क पर' जैसे शब्दयुग्म भी अपराध के दुस्साहस को कम नहीं होने देते।

मध्यमवर्गीय समाज ने अपनी मम्मियों-पापाओं से 'चुप लगाने' के जो मंत्र सीखे हैं, उन्हीं की सिद्धि करते हुए वे पूरा जीवन कायरता का वरदान भोगते हुए बिता देते हैं। और जब कभी उनमें से कोई आज्ञाकारी श्रवण कुमार स्वयं किसी सिंह का शिकार बनता है तब उसे समझ आता है कि जीवन भर 'तथाकथित अच्छा बच्चा' बनने की कोशिश में वह जिस मौन को नैतिकता समझ रहा था वह वास्तव में आत्महत्या का रास्ता था।

शिकारी के आक्रमण के समय वह चीख नहीं पाता, क्योंकि मौन उसके कण्ठ की आदत बन चुका होता है। इस प्रवृत्ति को उसने स्वयं पोषित किया है इस ग्लानिबोध में उसकी कराह भी नहीं निकल पाती। जूझने का प्रयास करनेवाले हिरणों को देखकर उसने नाक-भौं चढ़ाए हैं, इस अपराध बोध में वह सिसक भी नहीं पाता।

उसकी आँखों की कोरें भीग जाती हैं। आँसू आँखों की सीमा से बाहर निकलकर उस पर ठहाका लगाते हैं कि यदि वह समय रहते अपने स्वार्थी मौन की लक्ष्मणरेखा से बाहर निकल आया होता तो आज उसके प्राण न निकल रहे होते।

✍️ चिराग़ जैन 

Wednesday, June 19, 2024

बोनसाई

आदेशों का दास नहीं है शाखा का आकार कभी 
ले तक सीमित मत करना पौधे का संसार कभी 

जड़ के पाँव नहीं पसरे तो, छाँव कहाँ से पाओगे 
जिस पर पंछी घर कर लें वो ठाँव कहाँ से लाओगे 
बालकनी में बंध पाया क्या, बरगद का विस्तार कभी 

कोंपल, बूटे, कलियाँ, डाली; ये सब कुछ आबाद रहे
तब ही आती है ख़ुशहाली, जब मौसम आज़ाद रहे 
नभ में चहक नहीं भर सकता, पिंजरे का परिवार कभी 

सीमा में जकड़े बिरवे की सहज सुगंध नदारद है 
जो तितली की बाँह पकड़ ले, वो मकरंद नदारद है 
नकली पेड़ों पर बरसा है, क्या बादल का प्यार कभी 

नज़रों को दौड़ाना सीखो, विस्तारों को मत छाँटो 
घर में चहक भरी रखने को, चिड़िया के पर मत काटो 
पलकों में भर पाता है क्या, सूरज का उजियार कभी 

✍️ चिराग़ जैन 

Saturday, June 8, 2024

बुनियादों की मज़बूती

धूप कंगूरों की रंगत को चाट गई जब धीरे-धीरे
तब बुनियादों की मज़बूती दीवारों के काम आ गई

होठों पर ताले लटके थे, संवादों पर बर्फ़ जमी थी
आखर-आखर आतंकित था, हर आहट सहमी-सहमी थी
सबके अपने-अपने सुख थे, सबके अपने-अपने कमरे
तब छोटी-सी एक मुसीबत, परिवारों के काम आ गई
फिर बुनियादों की मज़बूती दीवारों के काम आ गई

अपनेपन का आलिंगन भी कुछ पल ही मन को भाता है
प्रेम घड़ी भर दूर नहीं हो, तो वह पिंजरा बन जाता है
बेमतलब की भावुकता का बोझ डुबो ही देता किश्ती
तब कुछ व्यवहारिक पतवारें, मझधारों के काम आ गई
फिर बुनियादों की मज़बूती दीवारों के काम आ गई

जड़ की अनदेखी करते हैं, फुनगी पर इतरानेवाले
फिर-फिर धरती पर आते हैं, उड़कर ऊपर जानेवाले
जब ख़ुद के ईश्वर होने से ईश्वर का मन ऊब गया है
तब कुछ इंसानी लीलाएँ, अवतारों के काम आ गई
फिर बुनियादों की मज़बूती दीवारों के काम आ गई

✍️ चिराग़ जैन 

Friday, May 24, 2024

आँसू की आवाज़

जो रैली में पींग बढ़ाते नारों की
हालत देखो जाकर उन बेचारों की

इंसानों की बस्ती भूखी बैठी है
तुम बातें करते हो चाँद-सितारों की

आँसू की आवाज़ छुपाकर रख पाएँ
इतनी भी औक़ात कहाँ दीवारों की

लहरों से कश्ती का हाथ छुड़ाना है
हिम्मत बढ़ती जाती है पतवारों की

सिगरेट को इक बार बुझाना उंगली से
गर तासीर समझनी है अंगारों की

✍️ चिराग़ जैन 

Wednesday, May 22, 2024

दशरथ

ना तो किसी रोग से टूटा 
ना ही समरांगण में हारा 
जिस राजा का शौर्य अमर था 
उसको कोपभवन ने मारा
उसकी देह धराशायी थी, जिसका नाम स्वयं दशरथ था 
तन पर कोई घाव नहीं था, पर अंतर्मन से लथपथ था

वाणी से विषबाण चलाकर, जीवन का अमरित ले बैठी 
जिसने हर रण जीता उसको इक रानी की जिद ले बैठी 
होनहार बलवान थी वरना 
फूल छोड़, काँटे क्यों चुनती 
रानी कान भरे बैठी थी 
राजा की अनुनय क्या सुनती 
अपने घर के उपवन में ही पीड़ादायक कंटकपथ था 
तन पर कोई घाव नहीं था, पर अंतर्मन से लथपथ था

सपनों ने सत्कार न चाहा, बेटे ने अधिकार न चाहा 
जो पत्नी सबसे प्यारी थी, उसने उस पल प्यार न चाहा 
पत्नी बात नहीं सुनती थी 
बेटा दर्द नहीं कहता था 
मन पर इतना भार उठाए 
राजा मन भर दुःख सहता था 
वो जिनको अन्याय मिला था, उसका मौन अधिक घातक था 
तन पर कोई घाव नहीं था, पर अंतर्मन से लथपथ था

जिस पर तन-मन वार दिया था, उसने मन पर वार किया था 
वाणी से तलवार चलाकर, राजा का मन मार दिया था 
एक पुराना पाप फला था 
शीतल जल से कण्ठ जला था 
जिससे निश्छल प्रेम किया था 
उसने अवसर जान छला था 
मन टूटा, फिर साँसें उखड़ीं, यश-वैभव सब क्षत-विक्षत था 
तन पर कोई घाव नहीं था, पर अंतर्मन से लथपथ था

✍️ चिराग़ जैन 

Wednesday, May 15, 2024

चीख और ठहाका

चुनाव आचार संहिता के अनुसार वोटिंग से कुछ घंटे पूर्व चुनाव क्षेत्र में चुनाव प्रचार पर रोक लग जाती है। यह नियम दशकों से यथावत है। इधर परिस्थितियाँ बदल गईं। तकनीक बदल गई। अब ठीक वोटिंग के समय टेलीविजन पर चुनावी रैली का प्रसारण होता है। लेकिन इससे चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन नहीं होता, क्योंकि उक्त रैली का आयोजन संबद्ध चुनाव क्षेत्र की भौगोलिक सीमा के बाहर होता है और बेचारा चुनाव आयोग इतना भोला है कि उसे यह समझ ही नहीं आता कि रैली का आयोजन चाहे कहीं भी हो, लेकिन उसका प्रसारण यदि संबंधित चुनाव क्षेत्र में हो रहा है तो इससे मतदाता की सोच प्रभावित हो सकती है। 

चुनावी ख़र्च की सीमा तय है। लेकिन चुनाव प्रचार के लिए सोशल मीडिया जैसे सशक्त माध्यम का प्रयोग भोले-भाले नियामक संस्थानों को समझ ही नहीं आता। 

माननीय न्यायालय ने एक राजनेता को यह कहकर ज़मानत पर रिहा किया कि "आप न्यायालय के समक्ष लंबित अपने मुआमले का चुनावी रैली में प्रयोग नहीं करेंगे।" न्यायालय का सम्मान करते हुए उक्त राजनेता ने अपने पहले भाषण में अपने साथियों के legal matters का ज़िक्र किया लेकिन अपने वाले मामले का ज़िक्र नहीं किया इसलिए अदालत के आदेश की अवमानना नहीं हुई। उनके सहयोगियों ने उसी मंच से उस मैटर का ज़िक्र कर दिया जिसका ज़िक्र वे स्वयं नहीं कर सकते थे। लेकिन माननीय न्यायालय इसलिए कुछ नहीं कह सकता क्योंकि उक्त राजनेता ने न्यायालय के आदेश का शब्दशः पालन किया है। 

पत्रकार किसी भी मतदाता के 'गुप्त मतदान के अधिकार' का अतिक्रमण नहीं कर सकता। लेकिन नेशनल टेलीविजन पर वोटिंग की लाइव कवरेज में पोलिंग बूथ पर मौजूद पत्रकार क्या रिपोर्ट कर रहा है, यह स्टूडियो में बैठे एंकर को साफ़ समझ आ रहा है, पैनल में बैठे प्रवक्ताओं और विश्लेषकों को साफ़ समझ आता है, दर्शकों को भी साफ़ समझ आता है लेकिन नियामकों को समझ नहीं आता क्योंकि उनकी आँखों पर नियम बंधा हुआ है। 

सभी राजनैतिक दल और लगभग सभी राजनेता नियामकों की आँखों में नियम झोंककर धड़ल्ले से नियम तोड़ते हैं। और जनता नियामकों की नपुंसक पॉवर की खिल्ली उड़ाते हुए नुक्कड़ पर बैठकर चाय की चुस्की लेकर ठहाका लगाती है। बीच-बीच में इस नुक्कड़ पर व्यवस्था की चीख उठती है लेकिन वह चीख दूसरे पक्ष के ठहाके के शोर में दब जाती है। 

-चिराग़ जैन 

जनता की भूमिका

हमारे समाज की सबसे प्रभावी पाठशाला है सिनेमा। सिनेमा ने भारतीय समाज का निर्माण किया है। और समाज ही नहीं; सामाजिक चलन, प्रवृत्ति और यहाँ तक कि मानसिकता का भी निर्माण सिनेमा ने ही किया है। 

हमने सिनेमा से सीखा है कि आम जनता कीड़े-मकौड़े की तरह है, जिसकी न कोई इज़्ज़त है, न क़ीमत। इसको कोई भी, कभी भी कैसे भी लूट सकता है। फिल्मी पर्दे ने बहुत चालाकी से आम जनता को मूकदर्शक बने रहना सिखाया है।

आध्यात्मिक फ़िल्मों में आम जनता भीड़ बनकर आरती करती रही। उसकी कोई पहचान कभी नहीं रही। उसके लिए सम्वाद के नाम पर जयकारे से ज़्यादा कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं महसूस हुई। उस भीड़ से निकल कर यदि कोई सम्वाद करने लगा, तो वह आम नहीं रहा। वह या तो नायक बनकर विशेष भक्त बन गया या फिर उस भक्त से ईर्ष्या रखनेवाला नास्तिक खलनायक बन गया। 

सम्वाद आपको भीड़ से अलग कर देता है। सम्वाद आपको विशेष बना देता है। इसीलिए आम जनता के लिए कभी सम्वाद लिखे ही नहीं गए। 

इसके बाद दौर आया ऐतिहासिक सिनेमा का। इसमें भी आम जनता की स्थिति वही रही। बस ईश्वर का किरदार राजा के किरदार से बदल दिया गया। जनता कभी फ्रेम में आई तो या तो विदेशी आततायी की प्रताड़ना सहती दिखी या फिर अपने राजा के महल के आगे हाथ जोड़े बिलखती दिखी और अंत के एक शॉट में राजा के जयकारे लगाती दिखी। 

निर्देशक जानता है कि अत्याचार के समय यदि जनता कुछ प्रतिक्रिया कर देगी तो कहानी बदल जाएगी। फिर राजा की महत्ता क्षीण हो जाएगी। इसलिए जनता को अत्याचार के समय अधिक से अधिक रोने-चीखने की अनुमति मिलती थी। क्योंकि हाथ चलानेवाला तो फुटेज खा जाएगा। फिर राजा को हीरो साबित करना असंभव होगा।

फिर देशभक्ति की फ़िल्मों का युग आया। यहाँ से जनता की भूमिका में कुछ परिवर्तन हुआ। वह सक्रिय हुई। क्रांति और शांति के आंदोलनों की ताक़त बन गई। लेकिन इस दौर में भी उसके भाग्य में संवाद नहीं लिखे गए। वह कभी गांधी, कभी नेहरू तो कभी किसी अन्य लीडर के पीछे दौड़ती दिखी। अंग्रेजों के अत्याचारों पर बिलखती जनता ने अपने लिए ईश्वर या राजा नहीं, लीडर चुन लिया। 

अब लीडर नायक बन गए। जनता या तो संवादहीन होकर लॉन्गशॉट में नेता की लोकप्रियता का प्रमाण बन गई, या फिर किसी अंग्रेज सार्जेंट के हंटर की मार से रोती-बिलखती हुई खलनायक की क्रूरता का झरोखा बन गई। 

फिर दौर आया रोमांटिक फीचर फ़िल्मों का। एक खूबसूरत लड़की, एक बेरोजगार लड़का, एक अमीर बाप, एक बीमार माँ, एक विधवा बहन, एक क्रूर खलनायक... इत्यादि! इस दौर में जनता के नाम पर कुछ लड़कियाँ और कुछ लड़के कभी कभी डांस नंबर में हीरो और हीरोइन के पीछे नाचते हुए उग जाते थे और गाने का बैकग्राउंड म्यूज़िक समाप्त होते ही झट से नदारद हो जाते थे। क्रूर खलनायक के गुंडे हीरो को सर-ए-आम पीटते थे, और 'आम' जन अपना सिर झुकाए देखते रहते थे। खलनायक भरे बाज़ार में हीरोइन के कपड़े फाड़ा करता था और जनता अपने चरित्र पर नपुंसकता लपेटे चुपचाप देखती रहती थी। 

फिर क्रांतिकारी फ़िल्मों का दौर आया। एक लालची पूंजीपति के अत्याचारों से त्रस्त मजदूर अपनी झुग्गी बस्ती के उजाड़े जाने का तमाशा देखती हुई बिलखती रहती है। फिर उन्हीं मजदूरों की भीड़ में से एक टफ लुक का नौजवान प्रकट होता है। उसकी एंट्री पर पार्श्व में अलग ढिंचक टाइप का संगीत बजता है। उसका आकार शेष मजदूरों से थोड़ा ऊँचा होता है। कभी उसके हाथ पर किसी विशेष नंबर का बिल्ला होता है तो कभी उसके गले में गमछा या रूमाल बांधकर उसे भीड़ से अलग दिखाया जाता है। उसके आते ही फाइट सीन शुरू होता है। वह अकेला झुग्गी उजाड़ने वाले दस्ते की छुट्टी कर देता है और चारों ओर गोला बनाकर खड़ी भीड़ तालियां बजाकर अपनी नपुंसकता का जश्न मनाते हुए उसे हीरो स्वीकार कर लेती है। 
इसके बाद जब भी खलनायक कोई चाल चलता है तो यह जनता प्रतिकार करने की बजाय उस हीरो का इंतज़ार करने लगती है और वह हीरो आते ही गुंडों के चंगुल से उस मूकदर्शक भीड़ को बचा लेता है। 

इन सब फ़िल्मों ने हमारे समाज के मन में यह बात ठीक से बैठा दी है कि किसी भी स्थिति में हमें अपना विवेक प्रयोग नहीं करना है। हमें केवल अपने लिए एक मसीहा ढूंढना है, जिसके पीछे हमें आँख मूंद कर चलना होगा। 

चूँकि हम सिनेमा के आदर्श विद्यार्थी हैं, इसलिए हमने रियल लाइफ में भी विवेकहीन आचरण करना ठीक से सीख लिया है। जिसने ख़ुद को हमारा मसीहा कहा, हम उसके पीछे चलने लगे। हमने उसे अपना भगवान कहना शुरू कर दिया।

सोशल मीडिया का दौर आया तो हम जनता नहीं रहे बल्कि अलग-अलग किस्म के स्वयंभू मसीहाओं के ट्रोलर बन गए। गाली-गलौज और गीदड़ भभकी जैसे परमाणु अस्त्रों से हम चरित्र हत्या करनेवाले रोबोट बन गए हैं या फिर किसी आईटी सेल के मेसेज को कॉपी-पेस्ट करके हवा बनाने वाले टूलबॉक्स।

हमारा 'यूज़' करके मसीहा अपनी राजनीति चला रहे हैं। मसीहा जानते हैं कि ये जनता किताबें पलटने की कोशिश नहीं करेगी, इसीलिए मसीहा अपने-अपने स्टाइल में धड़ल्ले से झूठ की बरसात कर रहे हैं। मसीहा अपने अपने डायरेक्टरों के हिसाब से आइटम सॉन्ग पर नाच रहे हैं। और जनता उनके पीछे भीड़ बनकर ठुमक रही है। मसीहा अपने अपने स्क्रिप्ट राइटर के लिखे डायलॉग अपने स्टाइल में बोल रहे हैं और हम डायलॉग की मिमिक्री करके ख़ुश हैं। 

जिस दिन इस जनता ने विवेक का इस्तेमाल कर लिया उस दिन डायरेक्टरों के लिए बताना मुश्किल हो जाएगा कि जंगल में नायक-नायिका के लिए म्यूज़िक कैसे बजने लगता है; धुंआधार गोलियाँ चलाकर सैंकड़ों गुंडों को मार देनेवाले नायक को पुलिस क्यों नहीं पकड़ती; अदालतों में चीख-चीख कर दलील कहाँ दी जाती है; बिना वीजा के पाकिस्तान जानेवाले का इन्डिया में वापस एंट्री करते वक़्त इमिग्रेशन चैक क्यों नहीं होता... वगैरह... वगैरह!

बहरहाल, हम सिनेमा के दिखाए पथ पर चल रहे हैं। हर मसीहा अपने लिए हीरो की स्क्रिप्ट लिखवाकर पर्दे पर उतर रहा है। हीरोइज्म की लत से त्रस्त हमारा लोकतन्त्र बार-बार कान लगाकर अपनी दर्शक दीर्घा की साँसों में विवेक का सुर पकड़ने का प्रयास करता है लेकिन नपुंसकता का खटराग उस प्रयास से एक हताश उच्छ्वास से अधिक कुछ नहीं पनपने देता!

~चिराग़ जैन

Monday, May 13, 2024

छल

आपके पक्ष में खड़ा कोई सिपाही जब शत्रु के साथ छल करता है, तब वह आपके साथ छल करने का अभ्यास कर रहा होता है। 

✍️ चिराग़ जैन 

Monday, May 6, 2024

जामनगर में कुछ छूट गया है...

3 मई को जामनगर स्थित रिलायंस टाउनशिप के कवि सम्मेलन के लिए घर से निकला। दिल्ली से राजकोट और राजकोट से जामनगर। इस यात्रा के सहयात्री बने प्रिय गजेन्द्र प्रियांशु।
गजेन्द्र के साथ बतियाते हुए अवधी बोली का सहज लालित्य रसवृद्धि कर देता है। व्यवहार में गाँव की ठसक और प्रवृत्ति में विद्यमान कबीर ने गजेन्द्र के व्यक्तित्व को सत्यप्रेमियों के लिए आकर्षक बना दिया है। प्रशंसा लोलुपों के लिए ऐसे मनुष्यों की संगत खीझकारक सिद्ध होती है।
साहित्य और साहित्यिकों की चर्चा का रसास्वादन करते हम दोनों के कूपे का द्वार दिल्ली कैंट पर बंद हुआ तो सीधे राजकोट जंक्शन पर खुला।
राजकोट में जलेबी और फाफड़े का कलेवा ग्रहण करते हुए हम दोनों जामनगर पहुँचे। आयोजन मंडल की ओर से दीपक दवे जी हमारे गेट पास लिए टाउनशिप के द्वार पर तैयार खड़े थे। उनका अनुकरण करते हुए हम उस परिसर में प्रविष्ट हुए जो पिछले दिनों अम्बानी परिवार के वैवाहिक उत्सव के सन्दर्भ में पूरी दुनिया मे वायरल हो चुका था। शानदार बागबानी, बेहतरीन साफ़- सफाई, आलीशान साज-सज्जा और अनुशासित बाशिंदों से वातावरण में सकारात्मकता पसरी हुई थी।
हमारे पहुँचने के लगभग दो घंटे के भीतर मुंबई से दिनेश बावरा जी और सूरत से सोनल जैन भी रिलायंस टाउनशिप स्थित गेस्ट हाउस पहुँच गए। गर्मी बहुत अधिक थी, सो चारों कवि दोपहर का भोजन करके विश्राम करने चले गए। शाम 6:00 बजे हम चारों तैयार होकर रिसेप्शन पर पहुँच गए। दीपक दवे जी ने अपने सुव्यवस्थित आतिथ्य के अंतर्गत हमें कार्यक्रम स्थल पर जाने से पूर्व टाउनशिप स्थित मंदिर परिसर के दर्शन का सुझाव दिया।
सोनल चहक कर बोलीं, अरे यहाँ तो वैली ऑफ गॉड भी बनाई है ना! दीपक जी ने शांत स्वर में उत्तर दिया, जी हाँ, वहीं चलने की बात कर रहा हूँ।
मन में कौतूहल और आँखों में चमक लिए हम गाड़ियों में सवार हो गए। दीपक जी बहुत मन से हमें टाउनशिप के विषय में बता रहे थे। गाड़ी के दाहिनी ओर इशारा करते हुए दीपक जी बोले, यह पक्षियों के लिए आरक्षित स्थान है। यहाँ एंट्री रेस्ट्रिक्टिड है। मैं खिड़की के उस पार उस दिशा में देखने लगा कि तभी हमारी गाड़ी बाएं हाथ पर मुड़कर एक पार्किंग एरिया में रुक गई। गाड़ी से उतरते ही कानों में मोर, कोयल और चिड़ियों के स्वर भर गए। मैंने दीपक जी से कहा, जिन पक्षियों के क्षेत्र में प्रवेश सीमित है उनका कलरव तो दीवारें लांघकर हमारे कानों में घुसा आ रहा है। दीपक जी ने ठहाका लगाकर कहा, इस पर तो कोई नियंत्रण नहीं किया जा सकता भाईसाहब।
अब बारी थी वैली ऑफ गॉड देखने की। सीढ़ियां चढ़कर मंदिर के सम्मुख उपस्थित हुए तो चारों ओर ईश्वर विद्यमान था। सामने मंदिर की वेदी में बाँसुरीवाले कन्हैया अपनी राधिका के साथ रासमुद्रा में सुशोभित थे तो बाहर प्रांगण के एक सिरे पर वक्रतुण्ड महाकाय गणपति विराजमान थे। सामने कन्हैया, दूसरे छोर पर बप्पा और इसके ठीक मध्य में बप्पा के पप्पा. काले रंग का विराट शिवलिंग और उसके सम्मुख पंचांग प्रणाम रत नन्दी महाराज।
पूरा परिसर विशालकाय वृक्षों से सजा हुआ है। लम्बी लम्बी शाखाएँ वृक्षों की भुजाओं का आभास करवाती हुई आसमान और धरती के मध्य छायादार हरियाली बिछा रही हैं। इन शाखाओं पर हज़ारों छोटी-बड़ी घंटियाँ, लाखों रुद्राक्ष और कौड़ी से बनी लम्बी-लम्बी लटकनें लगवाई गई हैं। किसी वृक्ष पर हज़ारों नारियल बंधे हैं तो किसी दरख्त ने हज़ारों मन्नत वाली चुन्नियाँ ओढ़ी हुई हैं। कहीं पूरा तना मोली-कलावे से सिंगर उठा है तो कहीं लाखों चूड़ियों ने शाखाओं की कलाइयों को लाद दिया है।
जिधर देखो उधर ही विराट की छवि उपस्थित है। फव्वारे, यज्ञशाला... सब कुछ बैकुण्ठ सरीखा। रास्ते के एक और एक विशाल वटवृक्ष नीचे काठ से बने गोपाल चैन की बंसी बजाते दिखते हैं। थोड़ी आगे बढ़ने पर रामभक्ति में लीन वज्र अंगी हनुमान मंझीरे बजा रहे हैं। जिधर देखो उधर ही कोई न कोई देवी या देवता उपस्थित हैं।
एक बरामदे जैसे ढांचे के ऊपर लगभग पंद्रह फीट लंबा मोर बनाया गया है, जिसका रूप इतना लावण्ययुक्त है कि वास्तव का मोर भी इससे ईर्ष्या कर उठे। मुख्य द्वार पर एक विशालकाय घंटा टँका हुआ है। यत्र-तत्र छोटे बड़े देवालय हैं।
वैकुण्ठ की परिकल्पना का अब तक बना शायद सर्वाधिक निकटतम अनुमान है यह वैली ऑफ गॉड।
घड़ी दौड़ रही थी और मन ठहर गया था। मैं इस अलौकिक वातावरण को आँखों में भर लेना चाहता था। दिन का साम्राज्य अब रात के आगोश में खो रहा था। मन्दिर परिसर में हज़ारों दीपक और बल्ब जगमगा उठे थे। मूल वेदी के सामने मंत्र, शंखध्वनि और आरती गूंज रही थी।
दीपक जी ने इस आध्यात्मिक मोहपाश से बाहर निकालने के लिए हमें याद दिलाया कि आयोजन स्थल पर श्रोता प्रतीक्षा कर रहे हैं।
हम 'कर्म ही पूजा है' के सिद्धांत का पालन करते हुए स्टेज पर पहुँचे। लगभग 1200-1500 श्रोताओं का हुजूम रात साढ़े दस बजे तक ठहाकों, तालियों और संवेदना की तरंगों में गोते लगाता रहा। 1 बजे हमें जामनगर से ट्रेन पकड़नी थी। शीघ्रता पूर्वक रात्रिभोज करके मेरी देह सौराष्ट्र एक्सप्रेस की एक बर्थ पर आ लेटी है। मन काष्ठ-कन्हैया के चरणों में कहीं छूट गया है।
ईश्वर ने चाहा तो फिर कभी लौटूंगा ईश्वर की घाटी से अपना मन वापिस लेने।

- चिराग़ जैन

Sunday, May 5, 2024

सभ्यता की सीमा

अराजकता किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकती। स्थिति चाहे कोई भी हो, यदि सभ्यता की सीमा रेखा लांघकर उसका उपाय खोजा जाएगा तो यह पूरी सामाजिक व्यवस्था पर वज्रपात होगा। कोई राजनीतिज्ञ कितना भी भ्रष्ट क्यों न हो; यदि उस पर जूता या स्याही फेंकी जाए, यदि उसे थप्पड़ मारा जाए, तो यह अपने समाज को वीभत्स बना डालने की पहल होगी।
कोई प्रत्याशी वोट मांगने जाए तो उसे वोट देना या न देना जनता का अधिकार है किन्तु उसे लतियाने या मारने-पीटने से जनता की शक्ति नहीं, असभ्यता उजागर होती है।
हिंसा या बर्बरता किसी के भी साथ स्वीकार्य नहीं हो सकती। किसी अपराध के घोषित अपराधी तक को दण्डित करने का अधिकार विधि द्वारा नियुक्त तंत्र को ही दिया जाता है। उसे जनता के बीच फेंक कर उसकी जनहत्या करने की वक़ालत जंगलराज में सम्भव है, सभ्य समाज में नहीं।
जंगलों को तराश कर नगरों का निर्माण करने वाले हमारे पुरखे उस समय अपमानित होते हैं जब हम तंत्र की अनदेखी करके किसी की हत्या या प्रताड़ना का समर्थन करते हैं।
न्याय व्यवस्था लचर है तो उसका उपचार किया जाए; कार्यपालिका में भ्रष्टाचार है तो उसकी सफाई के प्रयास किए जाएं; विधायिका में विद्रूपता है तो मताधिकार से उसे सत्ता से बाहर किया जाए; किंतु अराजक होकर इनमें से किसी भी विकृति का निदान असंभव है।
शांतिपूर्ण प्रदर्शन, सविनय अवज्ञा, धरना, असहयोग, आंदोलन, रैली और हड़ताल तक से तंत्र की शल्य चिकित्सा स्वीकार्य है किन्तु स्वयं नियमों की अवहेलना करके, स्वयं बर्बर होकर तंत्र को आँखें दिखाना समस्या का समाधान नहीं हो सकता।
कांग्रेस को अभिमान है कि उसने बांध, व्यवसाय और तकनीकें निर्मित कीं। भाजपा को अभिमान है कि उसने मंदिर निर्माण किया, किसी को अभिमान है कि उसने एक जाति विशेष में अपना काडर निर्मित कर लिया, किसी को विश्वास है कि उसने एक वर्ग विशेष को अपना वोटर बनाया किन्तु कोई आज तक यह दावा नहीं कर सका कि उसने इस देश में 'नागरिकों' का निर्माण किया।
यह देश की पहली आवश्यकता है। और इसकी ओर किसी का ध्यान नहीं है। यदि सब विचाराधाराओं ने नागरिक निर्माण के इस कार्य को अनदेखा करके इसी प्रकार अपने-अपने वोटर, अपने अपने काडर, अपने अपने गुंडे, अपने अपने भक्त और अपने अपने चमचे बनाने पर ही ज़ोर दिया तो फिर न तो किसी के सीढ़ियों पर लड़खड़ाने पर सम्वेदनशीलता देखने को मिलेगी और न ही किसी के स्कूटी से गिरकर अस्थिभंग होने पर कोई शालीनता दिखाई देगी।
हम सब एक दूसरे के कष्ट पर ठहाका लगा रहे होंगे और पूरा विश्व हमारे इस तीतरबाज़ समाज की खिल्ली उड़ा रहा होगा।

-चिराग़ जैन

Wednesday, May 1, 2024

कट्टरता

कट्टरता और परिपक्वता में केवल 'भी' और 'ही' का अन्तर है। 

✍️ चिराग़ जैन 

Thursday, April 25, 2024

चुनाव 2024 : भाजपा और चुनाव

केलकूलेटर ने भी पकड़े हैं कान
ये जादू मन्तर कैसे सीखा
कहीं मिलते नहीं हाथों के निशान
ये जादू मन्तर कैसे सीखा

नगालैंड में ख़ुद प्रत्याशी वोट न करने आता
त्रिपुरा में वोटिंग पर्सेंटेज सौ से ऊपर जाता
सौ पर्सेंट से भी ज़्यादा मतदान
ये जादू मन्तर कैसे सीखा

प्रत्याशी के प्रस्तावक ही अंडर ग्राउण्ड हुए हैं
बाकी सभी लड़ाकों के भी पर्चे राउण्ड हुए हैं
सबकी सूरत पर है एक ही निशान
ये जादू मन्तर कैसे सीखा

बीजेपी की रैली, बाकी सबकी रेल बना दो
ऐसा करो चुनावों पर ही बुलडोजर चलवा दो
ना समस्या बचे ना ही समाधान
ये जादू मन्तर कैसे सीखा 

चुनाव 2024 : भाजपा की चुनावी रणनीति

जब खेलन देनउ नाय
तो हाय
जे खेल को ड्रामा काइं करनौ

बैटिंग करनेवालन के बल्ले ही तोड़ दए हैं
रन लेनेवालन के दोनूं जूते जोड़ दए हैं
सीमा कू चर गई गाय
आय हाय
जे खेल को ड्रामा काइं करनौ

कैसे फेंकें गेंद समूची पिच ही खोद रखी है
अपनी तीनों किल्ली तुमने भगवा पोत रखी हैं
भगवा कू कौन गिराय
मर जाय
जे खेल को ड्रामा काइं करनौ

जिधर जरा हरक़त हो गेंद उधर ही मुड़ सकती है
एम्पायर की अपनी ख़ुद की किल्ली उड़ सकती है
कोई कैसे हाथ हिलाय
रे हाय
जे खेल को ड्रामा काइं करनौ

चुनाव 2024 : मनमोहन सिंह के बयान पर सियासत

जिनको मौनी बाबा कह के चिढ़ाया
उन्हीं का बयान ले उड़े
पहले तुमको निहत्था बताया
फिर हाथ से कमान ले उड़े

कहने भर को पीएम थे पर बोल न पाए मनमोहन
हाथ हिलाना दूर, होंठ तक खोल न पाए मनमोहन
अपने ही घर में प्रतिभा का मोल न पाए मनमोहन
अपना ऑर्डिनेंस फटने पर डोल न पाए मनमोहन
उनके होंठों पे ताला लगाया
ये पूरा हिन्दुस्तान ले उड़े
जिनको मौनी बाबा कह के चिढ़ाया
उन्हीं का बयान ले उड़े

आंदोलन पर लाठी बरसी, कंघी बेची गंजे को
सीबीआई तोता बन गई ऐसा कसा शिकंजे को
अपनी ही बंदूक की गोली धांय लगी है पंजे को
जाने किस-किस बेचारे की हाय लगी है पंजे को
तुमने सोतों पे डंडा चलाया
ये सपनों की दुकान ले उड़े
जिनको मौनी बाबा कह के चिढ़ाया
उन्हीं का बयान ले उड़े

ऊंचाई का अहम न करते तो झुक जाना ना पड़ता
ठोकर पर संभले होते, घुटनों पर आना ना पड़ता
अपनों से मिलते-जुलते तो मान गंवाना ना पड़ता
दूर-दूर तक जनता के दर चलकर जाना ना पड़ता
अपने हाथों ही अवसर गंवाया
ये सत्ता का गुमान ले उड़े
जिनको मौनी बाबा कह के चिढ़ाया
उन्हीं का बयान ले उड़े

-चिराग़ जैन 

Monday, April 22, 2024

अरुण जैमिनी: एक नाम नहीं, एक किरदार

“छोड़ ना यार, क्या फरक पड़ता है।” -यह वाक्य कोरा तकियाक़लाम ही नहीं, अपितु अरुण जी के जीवन का मूल सिद्धान्त भी है। जीवन की बड़ी से बड़ी भँवर से भी वे इसी एक वाक्य की डोर थामकर किनारे आ लगते हैं। पहले मुझे ऐसा लगता था कि वे दूसरों की समस्या को छोटा समझते हैं, इसीलिए सामनेवाले की परिस्थिति और तनाव के पहाड़ को अपने इस एक वाक्य से छोटा साबित करने की कोशिश करते हैं। लेकिन बाद में मैंने देखा कि वे ख़ुद की समस्याओं को भी अपने इसी एक वाक्य से छोटा साबित कर देते हैं।
उन्हें जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण लगता है अपना कम्फर्ट ज़ोन। इसीलिए ज्यों ही उनके कम्फर्ट ज़ोन में कोई तनाव प्रवेश करने लगता है तो वे ‘किसी भी कीमत पर’ उससे अपने कम्फर्ट को सुरक्षित निकाल लाते हैं। अपने कम्फर्ट ज़ोन की रक्षा के लिए वे धन, सिद्धान्त, यश, लाभ और एक सीमा के बाद सम्बन्ध तक से मोहभंग कर लेते हैं। कई बार मुझे उनके मापदण्ड बदलने पर बहुत आश्चर्य होता था, लेकिन अब महसूस होता है कि समय की किसी एक इकाई में किसी एक मापदण्ड की अनदेखी कर देने से यदि आप एक लम्बी अवधि के तनाव से मुक्त हो जाते हैं, तो यह सौदा खरा कहा जा सकता है, बशर्त उसका उद्देश्य किसी को धोखा देना न हो। 

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अरुण जैमिनी जी से पहली बार मैं उस कवि-सम्मेलन में मिला था, जो एक श्रोता और कवि, दोनों रूपों में मेरा पहला कवि-सम्मेलन था। उसके बाद उनके कवि-सम्मेलनीय कद के कारण आगे से बढ़कर उनसे सम्पर्क बढ़ाने में संकोच होता रहा। लेकिन उनका व्यक्तित्व और उनके चेहरे की कांति मुझे हमेशा आकृष्ट करती थी। कई वर्ष तक मैं उनके अस्तित्व को दूर से ही देखता रहा, फिर न जाने कब वे मित्र हो गए; न जाने कब उन्होंने मेरे संकोच की दीवार गिराकर अपनत्व का सूत्र बांध लिया।
मुझे जहाँ तक याद है, वर्ष 2011 में जब मैंने जम्मू में नौकरी की थी, तब अरुण जी से मेरा रिश्ता सुदृढ़ होने लगा। 2012 में जब नौकरी छोड़कर आया, तो वह स्थिति जन्मी कि हम दिन में कम से कम एक बार बात ज़रूर करते थे। तब से अब तक यह क्रम अनवरत ज़ारी है। जीवन के उतार-चढ़ाव, सुख-दुःख... सब कुछ हम परस्पर साझा कर लेते हैं।
मेरी सर्जरी के दौरान उन्होंने जिस शिद्दत से मित्रता निर्वहन किया, वह मैं कभी नहीं भूल पाता। मुझे याद है कि जब मेदांता में वे मुझसे मिलने आए तो मैंने कहा कि मेरे कारण सब परेशान हो रहे हैं। इस पर वे भावुक होकर बोले - ‘अर तू जो सबके लिए परेशान होता है हमेशा!’

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अरुण जी के साथ एक बात ख़ास है, वो ये कि वे एक बार में एक ही काम करते हैं। और जो काम करते हैं, उसे पूरी शिद्दत से करते हैं। जैसे उन्हें एक बार यह बात समझ आ गई कि कवि-सम्मेलन समिति के अधिवेशन में सबको गले में आईकार्ड ज़रूर लटकाना है तो इसके बाद वे मुख्य अतिथि को भी बिना कार्ड के अधिवेशन हाॅल में एंट्री नहीं करने देंगे। काम महत्वपूर्ण है या नहीं, ये अलग बात है, लेकिन अगर उसकी ड्यूटी अरुण जैमिनी ने ली है तो वह होगा ज़रूर। अपने हिस्से काम वे उतना ही लेते हैं, जितना वे कर सकें। और अरुण जी कितना काम कर सकते हैं, ये उन्हें जानने वाले अच्छी तरह जानते हैं। लेकिन जितना काम वे करते हैं, उसमें कोई कमी नहीं निकल सकती।
जून 2023 में मेरी और मनीषा की शादी थी। मैंने कहा, चाचा, अबकी बार मुझे अधिवेशन की तैयारी से मुक्त कर दो। अरुण जी का डायरेक्ट जवाब था, शादी में तैने क्या करना है। सब हो जाएगा। मैंने कहा, ‘भाईसाहब सबको निमंत्रण भेजना है, सारी तैयारी करनी है...।’ उन्होंने पूरी ज़िम्मेदारी उठाते हुए कहा- ‘तेरी शादी में कवियों के निमंत्रण की ज़िम्मेदारी मेरी।’ उन्होंने इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी ले ली तो मुझे थोड़ा सहारा मिला। मैंने हर वर्ष की तरह पूरा समय लगाकर जोधपुर अधिवेशन सम्पन्न किया। और कवि-परिवार से इतर सबको निमन्त्रण के लिए व्यवस्थित रूप से सूची बनाकर विवाह का निमन्त्रण भी भेजता रहा। 25 जून को विवाह का रिसेप्शन था। समय से पहले अरुण जी और भाभी आयोजन स्थल पर उपस्थित थे। कवि-परिवार भी प्र्याप्त संख्या में उपस्थित था, लेकिन अनेक महत्वपूर्ण नाम दिखाई नहीं दिये। ...मैंने अरुण जी से कुछ लोगों के न आने का कारण पूछा तो पता लगा कि अरुण जी ने कवियों के व्हाट्सएप ग्रुप पर सबको सामूहिक निमंत्रण दे दिया था कि चिराग़ और मनीषा के ब्याह में सभी आमंत्रित हैं, चिराग़ बहुत व्यस्त है, अलग से निमंत्रण का इंतज़ार न करें।’
अब जो-जो उस ग्रुप में था, वो-वो निमंत्रित हो गया और जो जो उस ग्रुप में नहीं था, वो आज तक मुझे ताना देता है। ...मुझे अरुण जी की इस हरक़त पर क्रोध नहीं आया क्योंकि मैंने देखा है कि वे अपने घर के ब्याह-टेलों में भी कवि-समाज को निमंत्रित करने का ‘दायित्व’ ऐसे ही निभाते हैं।

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उनका किरदार उनकी सादगी से पोषित होता है। पंच और डांस को रोकने में वे हमेशा असमर्थ रहे हैं। मुझे याद है एक बार गौरव शर्मा और मैं काठमांडू के एक कार्यक्रम में थे। अरुण जी को इसी कार्यक्रम में कहीं और से आना था, तो वे दो घण्टे बाद होटल पहुँचे। होटल पहुँचने पर गौरव ने उन्हें बताया कि चाचा, चिराग़ ने रास्ते में मुझे बहुत शानदार गीत सुनाया।
गौरव की बात सुनकर चाचा के चेहरे पर भय मिश्रित आश्चर्य तैर गया। आँखें बड़ी हो गईं, फिर धीमे स्वर में गौरव से पूछा- इतनी देर में इसने गीत भी सुना दिया।
गौरव उनके व्यंग्य को समझकर झट से रुआँसा होकर बोला- ‘हाँ चाचा, एक नहीं तीन-तीन।’
अरुण जी ने चेहरा लाल करके मुझसे कहा- ‘साले, इन्हीं हरकतों से एक दिन तू अपने सारे दोस्त खो देगा।’
ठहाके का ऐसा निर्माण होता मैं पहली बार देख रहा था।

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कुल मिलाकर, तनाव से रहित जीवन जीने का जीवन्त उदाहरण है मेरा चाचा। आज ये सारी बातें इसलिए याद आ रही हैं क्योंकि आज चाचा का जन्मदिन है और चाचा अमरीका में है। अगर भारत में होते तो इतना लम्बा लेख लिखने का समय ही नहीं देते।
हैप्पी बर्थडे चाचा... लव यू।

Tuesday, April 16, 2024

माहेश्वर तिवारी: गीत का उदाहरण

एक सम्पूर्ण गीत को यदि मनुष्य बना दिया जाए तो उसका आचार-व्यवहार लगभग माहेश्वर दा जैसा होगा। संवेदना में डूबकर तरल हो उठी आँखें उनके गीतकार नहीं, 'गीतमयी' होने का प्रमाण थीं। आज वे आँखें हमेशा के लिए बंद हो गईं।
मृदु वाणी किसे कहते हैं, इसका उदाहरण आज हमसे छिन गया। सौम्य व्यक्तित्व कैसा होता है; इसका सबसे सटीक दर्शन आज लुप्त हो गया। निश्छल मुस्कान का एक बिम्ब आज अलभ हो गया। गीतकार को कैसा होना चाहिए- इसका उत्तर देने के लिए दृष्टि तर्जनी का पीछा करते हुए जिस मनुष्य पर जाकर ठहरती थी वह मनुष्य आज परलोक सिधार गया।
अपनी सृजन प्रतिभा के वैभव को भोगते हुए भी अंतर्मुखी होने से चेहरा कितना सुदर्शन हो उठता है- यह अब केवल तस्वीर में ही देखा जा सकेगा।
आधुनिकता के किसी बिम्ब में करवट लेते गीत को चुनकर शब्दाकार करने का लुत्फ़ किस संतुष्टि को जन्म देता है- इसका अब केवल अनुमान लगाया जा सकेगा।
गीत के नए साधकों के सौभाग्य से आज गीत का एक जीवंत गुरुकुल मिट गया। माहेश्वर जी के देहावसान ने आज मुझे एक बार फिर इस एहसास से भर दिया है कि लौकिक व्यस्तता की टुच्ची आड़ में सृजन के जिन अलौकिक देवदूतों की संगत से स्वयं को वंचित कर रहा हूँ, उनके व्यक्तित्व की सुगंध दोबारा नसीब नहीं होगी।
मुरादाबाद से गुज़रते हुए अब हर बार एक टीस हरी हो जाएगी।
विदा दद्दू!

Thursday, April 11, 2024

ईद

ईद के चांद अगर हो तो बस इतना कर दे
फिर से इस मुल्क के लहजे में मिठास आ जाए

- चिराग़ जैन

Thursday, April 4, 2024

विजय का मंत्र

जो समर्पित हो गया मजबूर होकर
वह तुम्हारा हित करेगा; भूल जाओ
जो न अपने मन मुताबिक जी रहा हो
वह तुम्हारे हित मरेगा; भूल जाओ

कर्ण इक एहसान के वश में विवश थे
द्रोण इक प्रतिशोध के कारण खड़े थे
शल्य इक षड्यंत्र से आहत हुए थे
भीष्म इक प्रण की विवशता में लड़े थे
मन बचा पाया नहीं जो, शूर होकर
वह तुम्हारा ध्वज धरेगा; भूल जाओ

पाप बर्बर हो उठेगा जीत कर भी
तुम स्वयं की हार से भी प्यार करना
मूढ़ता संख्या जुटाती ही रहेगी
तुम निहत्थे मित्र का सत्कार करना
कृष्ण जिसके साथ हो, भरपूर होकर
वह किसी सूरत डरेगा; भूल जाओ

बैठ मत जाना थकन से चूर होकर
पास आएगी विजय; कुछ दूर होकर
जब निराशा टीस दे नासूर होकर
तब करो निर्माण; चकनाचूर होकर
स्वयं को स्वीकार ले जो क्रूर होकर
वह कभी दुःख से भरेगा; भूल जाओ

~चिराग़ जैन 

अहंकार का अंत

बल के घमण्ड में नियम किए खण्ड-खण्ड
यही बल यश की कुदाल सिद्ध हो गया
जिसको समझकर तुच्छ पूँछ फूँक दी थी
वह भी भयानक कराल सिद्ध हो गया
जिसने भी टोका उसे घर से निकाल दिया
यही आचरण विकराल सिद्ध हो गया
जिसको दशानन समझता था शक्तिहीन
वही वनवासी महाकाल सिद्ध हो गया

-चिराग़ जैन 

Monday, April 1, 2024

गीत की चेतावनी

आज फिर एकांत की उंगली पकड़कर 
सोच को अपनत्व की बाँहों में भरकर 
कोई बोला प्राण का संगीत हूँ मैं 
ठीक से पहचानिए ना, गीत हूँ मैं 

अक्षरों के वस्त्र ओढ़े हैं बदन पर 
भंगिमा में भाव का विस्तार देखो 
शब्द के आभूषणों से हूँ अलंकृत 
नयन में रस की अलौकिक धार देखो 
मैं सुदामा की झिझकती पोटली हूँ 
कृष्ण बनकर भोगिये, नवनीत हूँ मैं 
ठीक से पहचानिए ना, गीत हूँ मैं 

अन्तरे तुमसे अभी रूठे हुए हैं 
त्रस्त हैं मुखड़े तुम्हारी बेरुख़ी से 
पंक्तियाँ करके प्रतीक्षा थक चुकी हैं 
कथ्य गुमसुम मौन फिरते हैं दुःखी से 
आओ, इन सबकी उदासी दूर कर दो 
मर न जाए मन, बहुत भयभीत हूँ मैं 
ठीक से पहचानिए ना, गीत हूँ मैं 

व्यस्तता की ओट में भूले सृजन को
जन्म के सौभाग्य का अपमान है ये 
कंकड़ों की चाह में मोती न छोड़ो
शौक मत समझो इसे, वरदान है ये 
ताक पर रख दो जगत् के मानकों को 
हार के उस पार हासिल जीत हूँ मैं 
ठीक से पहचानिए ना, गीत हूँ मैं 

छोड़कर वर्चस्व की हर होड़, आओ 
जान लो, अस्तित्व मुझसे ही बचेगा 
जीत हो या हार हो या हो उदासी 
देखना एकांत मुझको ही रचेगा
लोग सुख में साथ, दुःख में दूर होंगे 
इस प्रथा से एकदम विपरीत हूँ मैं 
ठीक से पहचानिए ना, गीत हूँ मैं 

एक दिन जब चेतना भी गौण होगी 
तब तुम्हारा चिह्न बनकर मैं रहूंगा 
कण्ठ, स्वर, वाणी, अधर सब लुप्त होंगे 
तब तुम्हारी बात जग से मैं कहूंगा 
सौंपकर अपना समूचा सत्य मुझको 
पाइए अमरत्व, कालातीत हूँ मैं 
ठीक से पहचानिए ना, गीत हूँ मैं 

~ चिराग़ जैन 

Sunday, March 31, 2024

ऊब का गीत

आस मंज़िल की किसी को भी नहीं है
आदमी को खींचती है राह उसकी
प्यार का मतलब नहीं है प्यार केवल
प्यार का आधार है परवाह उसकी

मेघ से ऊबे तो इक सूरज बुलाया
सूर्य दहका, देह ने बरसात कर दी
रात से उकता गए तो दिन उगाया
थक गए दिन से तो फिर से रात कर दी
जो हमारे पास है उससे दु:खी हैं
जो हमारा है नहीं है चाह उसकी
आस मंज़िल की किसी को भी नहीं है
आदमी को खींचती है राह उसकी

प्रेम से ऊबे घृणा का हाथ थामा
वैर नस-नस में भरा तो दिल निचोड़ा
भोग से ऊबे, तो ये संसार त्यागा
और फिर संन्यास में जंजाल जोड़ा
ऊब जाने से नहीं ऊबा कभी मन
ऊब जाने की नहीं है थाह उसकी
आस मंज़िल की किसी को भी नहीं है
आदमी को खींचती है राह उसकी

राह में ही भोग लो संबंध सारे
द्वार के उस पार उच्चाटन मिलेगा
प्रेम है जिससे उसे दुर्लभ बना लो
प्राप्ति के पश्चात भारी मन मिलेगा
कल्पना ने आज आलिंगन भरा है
सत्य में चुभने लगेंगी बाँह उसकी
आस मंज़िल की किसी को भी नहीं है
आदमी को खींचती है राह उसकी

~चिराग़ जैन 

Friday, March 22, 2024

सच बोलना पाप है

क्या कहा, तुम सच कहोगे 
और ज़िंदा भी रहोगे 
झूठ का चाबुक तुम्हारी खाल खींचेगा समझ लो 
और फिर सारा ज़माना आँख मीचेगा समझ लो 

ख़ुद नदी ने इस तरह के दाँव सारे रख दिए हैं 
नाव जैसे दिख रहे पत्थर किनारे रख दिए हैं 
पेड़, जिसकी छाँह के दम पर भिड़े हो धूप से तुम 
धूप ने उस पेड़ की जड़ में अंगारे रख दिए हैं
क्या कहा, सच का सहारा 
ये महज भ्रम है तुम्हारा 
हर सहारा फेर कर मुँह, होंठ भींचेगा समझ लो 
और फिर सारा ज़माना आँख मीचेगा समझ लो 

दिन दहाड़े हो नहीं सकता भला अंधेर कैसे
मौत पहले आ गई क्यों, न्याय में है देर कैसे 
जो सभी की थालियों से, ले गया रोटी उठाकर
सब उसी को दे रहे हैं तोहफ़ों के ढेर कैसे 
क्या कहा, दिल की सुनोगे
एक दिन तुम सिर धुनोगे
दिल उम्मीदों का ज़खीरा भी उलीचेगा समझ लो 
और फिर सारा ज़माना आँख मीचेगा समझ लो 

लूट के हर दृश्य में हम मूकदर्शक हो गए हैं 
झूठ की हर कामयाबी के प्रशंसक हो गए हैं 
कोई अत्याचार सुनकर दिल दहलता ही नहीं है 
आत्माएँ हैं दिवंगत, मन नपुंसक हो गए हैं 
क्या कहा विश्वास रखें 
आसमां से आस रखें 
आसमां ख़ुद तो न बंजर खेत सींचेगा समझ लो 
और फिर सारा ज़माना आँख मीचेगा समझ लो 

~चिराग़ जैन 

Sunday, February 18, 2024

आचार्य विद्यासागर की समाधि

सभी का मन सशंकित हो रहा था
बहुत दिन से कहीं कुछ खो रहा था
जुड़े सब हाथ ढीले पड़ गए थे
पनीले नेत्र पीले पड़ गए थे
तपस्या चरम तक आने लगी थी
ये भौतिक चर्म कुम्हलाने लगी थी
व्रतों पर नूर इतना चढ़ गया था
कि तन का रंग फीका पड़ गया था
 
हुई जर्जर तपस्यायुक्त काया
तो यम सल्लेखना का व्रत उठाया
किया आचार्य के पद से किनारा
व्रती ने मृत्यु तक का मौन धारा
 
सुना जिसने, वही थम-सा गया था
गला सूखा, हलक जम-सा गया था
ख़बर ये फैलती थी आग बनकर
हृदय छलका सहज अनुराग बनकर
श्रमण सब बढ़ चले विश्वास लेकर
तपस्वी के दरस की आस लेकर
दिगम्बर साधुओं के संघ दौड़े
हृदय के संग सारे अंग दौड़े
 
व्रती अंतिम तपस्या कर रहा था
अभागा तन विरह से डर रहा था
हठी तप में जुटा था मौन साधे
खड़ी थी मृत्यु दोनों हाथ बांधे
धरा पर भाग्य जागा था मरण का
उसे अवसर मिला गुरु के वरण का
 
बिताए तीन दिन यूँ ही ठहर कर
मगर फिर रात के तीजे पहर पर
अचानक साँस की ज़ंजीर तोड़ी
वियोगी ने ये नश्वर काय छोड़ी
चले, त्रैलोक्य तक विस्तार करके
गए ज्यों राम सरयू पार करके
 
दिगम्बर साधना का बिंदु खोया
व्रतों का चंद्रगिरि में इंदु खोया
धरा से त्याग का प्रतिरूप लेकर
चली हो सांझ जैसे धूप लेकर
पिपासा से अमिय का कूप लेकर
चली है मौत जग का भूप लेकर
 
प्रजा जागी तो बस माटी बची थी
प्रयोजन गौण, परिपाटी बची थी
चिता में जल रहा दिनमान देखा
सभी ने सूर्य का अवसान देखा
धरा का धैर्य दूभर कर गया है
धरा से स्वयं विद्याधर गया है
 
-चिराग़ जैन

विदा आचार्य श्री

आज संतत्व का एक उदाहरण साकार से निराकार हुआ है। आज तपश्चर्या का एक बिम्ब अंतर्धान हुआ है। निश्छल दिगंबरत्व की एक गाथा का पटाक्षेप हुआ है। आज आस्था और विवेक के एक अद्वितीय संगम की समाधि हुई है। आध्यात्मिक ऊर्जा के विराट केंद्र का स्थानांतरण हुआ है।
आचार्य श्री विद्यासागर जी का देह से विदेह हो जाना हमारी लौकिक आस्था को आहत कर रहा है। दुनिया के किसी भी कोने में रहते हुए आचार्य श्री का स्मरण यह एहसास कराता था कि एक देह में हमारे हिस्से के आशीष का वास इस धरती पर विराजमान है।
यह एहसास अभी भी यथावत रहेगा, किन्तु कल्पनाओं के चित्रपट पर अब वह चित्र नहीं उभरेगा जिसमें एक 77 वर्षीय बालक खिलखिलाता हुआ अपनी हथेलियाँ उठाकर आस्था को आशीर्वाद के अमृत से तृप्त कर देता था।
आचार्य श्री की हथेलियाँ जब आशीर्वाद के लिए ऊर्ध्वगामी होती थीं, तब उनकी उंगलियाँ जुड़ने की बजाय फैल जाती थीं। मानो, एक पिता अपने बालकों की समृद्धि के लिए अपना जी खोलकर वात्सल्य लुटा देना चाहता हो। उनके अधरों से मुस्कराहट कभी गौण नहीं होती थी, मानो एक बुज़ुर्ग अपनी फुलवारी को फलते-फूलते देखकर आह्लादित हुआ जाता हो।
...अब वह दिव्य मुस्कान अलभ हो गई। अब आचार्य श्री के अस्तित्व से भौतिक नयन वंचित हो गए हैं। अब आचार्य श्री की अनुभूति से भौतिक इन्द्रियाँ नदीदी हो गई हैं। अब आचार्य श्री तक पहुँचने के लिए लौकिक यातायात साधन असमर्थ हो गए हैं। अब तक आचार्य श्री को निहारनेवाली आँखों को उनके दर्शन के लिए अब मुंदना होगा। अब आचार्य श्री बाहर कहीं नहीं मिलेंगे। अब आचार्य श्री तक के लिए चलना नहीं, ठहरना होगा।
जैन आगम के अनुसार समाधि पर रोना नहीं चाहिए। जैन आगम के अनुसार मृत्यु को महोत्सव मानना चाहिए।
किन्तु मेरी आँखें रह-रहकर नम हुई जा रही हैं, मेरे लिए एक अनवरत महोत्सव की मृत्यु हुई है।
आचार्य परमेष्ठी को नमोस्तु!

Tuesday, February 6, 2024

मन रह गया अयोध्या में...

जहाज ने दिल्ली का रन-वे छोड़ा और मन राम के आचरण की कथा बाँचने लगा। खिड़की से बाहर झाँका, तो सूरज के तेज प्रकाश से आँखें चुंधिया गईं। भौतिक आँखें बंद हुई तो मन राम के नयनाभिराम चरित्र पर त्राटक करने लगा। अनायास ही राम से कुछ मांगने की उत्कंठा जगी तो याचना राम-आचरण की प्रार्थना के गीत में ढल गई।
अयोध्या विमानतल पर लैंडिंग की उद्घोषणा होने से पहले गीत पूरा हुआ। जहाज धरती पर उतर रहा था और मन सृजन के आनंद में उड़ान भर रहा था। आगमन हॉल में प्रवेश किया तो पुष्पक विमान के माध्यम से राम आगमन की भव्य पेंटिंग आँखों की चुंबक बन गई। जिधर दृष्टि जाती है उधर ही राम विराजमान हैं। एक दीवार पर मधुबनी शैली की पाँच पेंटिंग्स में राम की जीवन झाँकी प्रदर्शित है।
मैंने देखा कि कन्वेयर बेल्ट पर लगेज घूम रहा था और लोग अपने सामान की चिंता छोड़कर आगमन हॉल की चित्रकारी को कैमरे में क़ैद कर रहे थे।
हवाई अड्डे से निकलकर अपने प्रवास की ओर चले तो ऐसा लगा कि पूरा शहर किसी अनन्त उत्सव में संलग्न है। धूप तेज़ थी, लेकिन उत्साह में कोई कमी नहीं। सड़क के दोनों ओर जगह-जगह भित्तिचित्र, सूर्य-स्तम्भ और न जाने कितने नगर सिंगार दृश्यमान हैं। पूरी अयोध्या उस नारी की तरह इतरा रही है, जिसे पूरे जीवन के तिरस्कार के बाद पिया का संसर्ग मिल गया हो।
हमारे ठहरने की व्यवस्था नए बस अड्डे के पास बनी निषादराज गुहा टैंट सिटी में थी। हम अयोध्या को निहारते हुए गंतव्य तक पहुँचे।
टैंट सिटी क्या, एक छोटी-मोटी बस्ती बसी हुई है। प्रवेश करते ही एक बड़े से आँगन में ऊँचे चबूतरे पर खड़ाऊ की भव्य प्रतिकृति बनी है। उसके पीछे धनुर्धर श्रीराम स्वयं एक ऊँचे चबूतरे पर खड़े हैं। उसके पीछे सैंकड़ों टैंट कतारबद्ध तने हुए हैं। हर टैंट सुविधाओं से युक्त। एयर कंडीशनर भी मौजूद है और रूम हीटर भी; टीवी भी है और डबलबेड भी। कुल मिलाकर जब तक कोई याद न दिलाए, तब तक यह किसी शानदार होटल के कमरे से कम नहीं लगता।
भोजन के लिए शबरी रसोई है। पार्श्व में रामधुन का संगीत और थाली में सादा किन्तु स्वादिष्ट भोजन। हम सभी कवियों ने प्रसाद की तरह भोजन ग्रहण किया।
माहौल से मन का वातावरण प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। इसलिए हमारा मन भी आराम का विचार त्यागकर नगर भ्रमण और रामलला के दर्शन को आतुर हो गया। जहाँ हमें गाड़ी ने छोड़ा वहाँ बहुत बड़ा द्वार बना है, जिस पर सात घोड़ों पर सवार दिनकर उकेरे गए थे। इस द्वार से प्रारंभ हुई सड़क, सीधे लता मंगेशकर चौक तक जाती है। इस चौक पर एक बहुत बड़ी वीणा बनाई गई है। जब हम यहाँ पहुँचे तब इस्कॉन की एक मंडली 'हरे कृष्णा हरे रामा' गाते हुए नृत्यमग्न थी। उत्साह ने हमारे पैरों को भी सुरों का दास बना दिया। थोड़ी देर नाच-गाकर हम राम की पैड़ी पर जा पहुँचे। दिन, दोपहर की ड्योढी लाँघकर शाम के बगीचे में प्रवेश कर रहा था। सूरज शीतल हुआ जाता था और हवा मीठी। राम की पैड़ी पर सभी कवियों ने मस्तक पर चंदन-रोली से राम नाम लिखवाया। फिर सरयू की मुख्यधारा में नौका विहार किया। यहाँ नदी का जल इतना निर्मल है कि एक-एक लहर में आरपार झाँका जा सकता है। हम सरयू की अगम धार पर नौकायन कर रहे थे और मन के भाव लहरों से भी अधिक लहरा रहे थे।
रामशरणदायीनी सरिता को प्रणाम करके हम हनुमानगढ़ी की ओर बढ़ चले। विनीत चौहान जी कह ही रहे थे कि "इतनी भीड़ में हनुमानगढ़ी के मुख्य महंत राजूदास जी अति व्यस्त होंगे, अन्यथा मैं सब कवियों को उनसे मिलवाता"; इतनी देर में रामायण धर द्विवेदी ने राजूदास जी को फोन मिला दिया। अगले 4 मिनिट में हम महंत जी के सामने थे। विनीत जी के पुराने परिचित महंत राजूदास जी ने सभी कवियों का सम्मान करके सबको रामनामी ओढ़ाई। अयोध्या के राजा के दर्शन से आनंद द्विगुणित हो गया। और हम अंजनिपुत्र को राम-राम बोलकर दशरथ महल आ पहुँचे। फिर कनक भवन में माँ जानकी की आरती की और नवनिर्मित राममंदिर की ओर बढ़ चले।
उत्साह और कदम एक दूसरे से होड़ कर रहे थे। अभय सिंह निर्भीक, बड़े मन से हमें राममंदिर तक लाए। फोन और जूते बाहर जमा करा दिये गए। जूते उतारकर हम ज़मीन से जुड़ गए और फोन छोड़कर हम अनावश्यक व्यस्तता से छूट गए।
ज्यों-ज्यों हम मंदिर के भीतर घुसते जाते थे, राम के विग्रह को देखने की लालसा और घनीभूत हुई जाती थी। मंदिर की नक्काशी में दर्जनों कलाकृतियाँ उपस्थित थीं किन्तु मन को राम से कम कुछ नहीं लुभाता था। आँखों ने देखा कि स्तम्भों पर शिव के विविध स्वरूप उकेरे गए हैं; कहीं यक्ष अंकित हैं तो कहीं हनुमान; कहीं गणपति हैं तो कहीं शक्ति; कहीं किसी दीवार पर पत्थर को छैनी से छूकर कलाकार ने प्राणवान कर दिया है। दरवाज़ों पर कनक मँढ़ाई थी और भीड़ के बावजूद धक्का-मुक्की बिल्कुल नहीं थी। आँखें सब कुछ देख रही थीं, किन्तु मन व्याकुल हुआ जाता था। अभय सिंह निर्भीक आस्था और उत्साह में भरकर राम नाम की जयकार करता था... कहीं कोई टोली कीर्तन करती बढ़ रही थी, तो कहीं किसी कोई राम दर्शन के लिए आँखों को अश्रु स्नान करा रहा था।
उत्सुकता और भक्ति के यह तमाम दृश्य जिस एक सूत्र में पिरोए जा रहे थे, उस सूत्र का नाम है - 'प्रेम'। मैंने महसूस किया कि मेरे भीतर राम के प्रति जो आस्था थी वह प्रेम में रूपांतरित हो रही थी।
हम सब कवि सबसे बाईं लाइन में चल रहे थे। मुख्य गर्भगृह में सभी दर्शनार्थी तीन पंक्तियों में बँट गए थे। और ये तीनों पंक्तियाँ राम तक पहुँचती थी। मध्य पंक्ति में लगे लोग सबसे अधिक सौभाग्यशाली रहे। किंतु हमारे और राम जी के बीच एक स्तम्भ आ रहा था। बेचैनी बढ़ती जाती थी। मन करता था कि दृष्टि किसी तरह स्तम्भ के पार हो जाए। मध्य पंक्ति वाले भाव विभोर थे और मैं विकल हुआ जाता था। अचानक मेरे पैरों ने स्तम्भ के प्रभाव क्षेत्र को लांघकर मुझे राम के सम्मुख ला खड़ा किया। एक पल को धड़कन थम सी गई... ऐसा लगा राम के रूप को स्पर्श करके पलकें पत्थर हो गई थीं। क्या मज़ाल जो एक बार भी झपक जाएं! मूर्ति काफ़ी दूरी पर थी लेकिन मन ने दृष्टि के विमान पर बैठकर क्षणांश में यह दूरी तय कर ली। लगभग 4-5 सेकेंड के लिए मैंने बैकुण्ठ का अनुभव किया और फिर आँसुओं से आचमन करके दृष्टि लोक की ओर मुड़ गई। पलटकर देखने का मन हुआ, किन्तु देख न सका। सुनील व्यास फफककर रोते हुए दिखे। विनीत जी निःशब्द थे। पूनम वर्मा जी के पति मुकेश जी के चेहरे पर आनंद घुल गया था। निकुंज अपने मौन के साज पर कुछ गुन रहा था। अभय के चेहरे पर यह संतोष था कि उसने अपने सभी अतिथियों को अच्छे से दर्शन करवा दिए।
मन की तन्द्रा टूटी तो याद आया कि पांव काफी दुखने लगे थे। किंतु धमनियों में भक्ति और प्रेम प्रवाहित था, सो देह का कष्ट चेहरे तक न आ सका।
मन वहीं स्तम्भ की टेक लगाकर खड़ा रह गया और हमारे शरीर टैंट सिटी के बिस्तरों पर आकर पसर गए। सुबह उठे तो मौसम बदला हुआ था। सूरज की तीखी किरणों पर बादलों की चादर बिछ गई थी। हम नहा-धोकर नाश्ते के लिए चले तो आकाश ने बूंदों के हाथों से हमें छू लिया। हम नाश्ता करके गुप्तहार घाट की ओर रवाना हुए। मौसम ने तीर्थयात्रा को पर्यटन बना दिया था। हमारे होस्ट आशुतोष जी भी हमारे साथ थे। गुप्तहार घाट पर हमने ख़ूब फोटोग्राफी की। सरिता शर्मा जी ने बेर के पेड़ से बेर तोड़कर खाया; भुट्टे, चाय... अहा! आनंद ही आनंद हो रहा था। आशुतोष जी ने एक चायवाले की दुकान में घुसकर अपने हाथ से चाय बनाई। भीगा हुआ मौसम, नदी का किनारा और चाय-पकौड़े... स्वर्ग शायद इसी को कहते हैं।
एक बजते-बजते हम अपने ठिकाने पर लौट आए थे। दोपहर तीन बजे से कवि-सम्मेलन था। सुबह की बारिश की फुहार अब तक झमाझम बन चुकी थी। घनघोर बरसात के कारण सुरक्षा की दृष्टि से टैंट सिटी की लाइट काट दी गई थी। बिना रौशनी के जैसे-तैसे सब कवि सम्मेलन के लिए तैयार हुए। छप-छप पानी और कीचड़ से अपने कपड़े बचाते हुए हम कार्यक्रम स्थल तक पहुँचे।
कार्यक्रम स्थल पर मुख्य श्रोता स्वरूप राम दरबार का चित्र था। मंच पर विनीत चौहान, डॉ सरिता शर्मा, संजय झाला, पूनम वर्मा, शंभू शिखर, सुनील व्यास, मनीषा शुक्ला, निकुंज शर्मा, सुशांत शर्मा और मुझे मिलाकर कुल दस कवि थे। ऐसा लगता था मानो स्वयं राम जी को कविता सुनाई जा रही हो। सुबह से बरस रहा आकाश अब थम चुका था... बादलों की दीवार को पार करके सूरज की किरणें धरती को दुलार रही थीं। सभी कवियों ने राम शब्द के इर्द-गिर्द काव्यपाठ किया। सबको मन से सुना गया।
कार्यक्रम के बाद सबने भोजन किया और यह तय हुआ कि जो कवि कल दर्शन में उपस्थित नहीं थे, वे आज दर्शन करने जाएंगे। शंभू शिखर, डॉ सरिता शर्मा, संजय झाला, मनीषा शुक्ला और सुशांत शर्मा का कार्यक्रम बनने लगा। मैं और सुनील व्यास दोबारा दर्शन के लालच में इनके साथ हो लिए।
शंभू ने किसी को फोन करके विशेष व्यवस्था करवा ली। इसके कारण आज हमें बहुत पैदल नहीं चलना पड़ा। हम सीधे मुख्य मंदिर के निकट गाड़ी से उतरे और पीछे के रास्ते से रामलला के सम्मुख उपस्थित हो गए। लगभग दस-पंद्रह मिनिट तक बेरोकटोक राम जी को निहारा। न जाने क्यों, आँखें झरना बन गई थीं। ऐसा लगता था किसी ने दृष्टि को बांध लिया था। देह का रोम-रोम आँख बनकर इस अलौकिक रूप को निहारता था। अनवरत देखने पर ऐसा लगता था ज्यों कोई सलोना बालक खिलखिलाकर हँसता हो। मैंने सपत्नीक दर्शन किए। जी हटता ही नहीं था। श्याम पाहन पर राम के अस्तित्व की भंगिमा से विग्रह पर दमकते आभूषण मात खा रहे थे। तिलक पर सजे रत्नों की किरणें सलोने मुखमण्डल को सूर्य बना रही थीं। राजीव लोचन के नयन इतने जीवंत थे कि दृष्टि स्तंभित हो गई थी। दस-पंद्रह मिनिट तक इस रूप को आद्योपांत निहारता रहा। श्याम विग्रह के ठीक नीचे विराजित रामलला का स्वर्णिम स्वरूप भी पलकों में भरकर हम मंदिर से बाहर आ गए।
मैं चमत्कारों में विश्वास नहीं करता हूँ किन्तु सम्मोहन की अनुभूति मुझे दोनों बार हुई। मैं अंधविश्वासी नहीं हूँ किन्तु ऐसा विश्वास होता है कि उस मूर्ति में कुछ ऐसा है जो अन्यत्र कभी नहीं देखा। देर तक उन्हें निहारने के बाद भी मन मेरे साथ वापस न आ सका।
मंदिर से लौटकर हनुमानगढ़ी की ओर जाने लगे तो सीढ़ियों के बाहर खड़े पुलिसकर्मियों ने शंभू को पहचान लिया। दर्जनों लोग इकट्ठा हो गए। दर्जनों हाथ हवा में लहराकर उत्साह और उत्सव को रिकॉर्ड करने लगे। पुलिसकर्मियों ने भी कविताएं सुनाई। शंभू ने ख़ुद अपने कैमरे से सब रिकार्ड किया। कवियों ने भी चार-चार पंक्तियाँ इस अनियोजित कवि-सम्मेलन में सुनाई। हनुमानजी की सीढ़ियों पर राम जी की कविता हुई।
बरसात रात को फिर सक्रिय हो गई। टैंट पर बूंदों के संगीत के बीच बहुत मीठी नींद ली और सुबह नाश्ता करके हवाई अड्डे की ओर बढ़ आए। देह दिल्ली पहुँच गई है और मन अभी भी साकेत के एक तराशे हुए स्तम्भ से सटकर रामरूप को अपलक निहारे जा रहा है।
- चिराग़ जैन