Sunday, December 31, 2017

सर्दी : एक श्वेतवर्णा बूढ़ी दादी

कँपकँपाते शरीर को सफेद चादर में लपेटे हुए रोज़ सुबह एक बूढ़ी दादी ठंडे-ठंडे हाथों से गाल छूती है। मैं झल्लाकर सिर तक रजाई खींच लेता हूँ। दादी हँसकर रसोई में जाती है और सरसों के साग की ख़ुशबू से मेरे आलस्य में व्यवधान करती है। खेतों में हरी सब्ज़ियों की ताज़गी देखकर बूढ़ी दादी की क्यारियों से प्यार हो जाता है।
गाजर के हलवे की रंगत और ग़ज़क-रेवड़ी की झलक दिखाकर दादी मुझे रिझाती है। मैं रोज़ सुबह अंगड़ाइयों में टूटते आलस को भूलकर दादी की रसोई में घुस जाता हूँ। स्वाद और पेट को तृप्त करके मुझे दादी की शरारतों पर फिर से खीझ उठने लगती है। मैं टूटी हुई लकड़ियाँ जोड़कर अलाव जलाता हूँ और मूंगफलियों के आनंद में व्यस्त हो जाता हूँ।
मुझे अलाव की संगत में बैठा देखकर, दादी चुपचाप अपनी कोठरी में जा दुबकती है। थोड़ी देर बाद मूंगफलियों की संख्या कम होते-होते समाप्त होने लगती है। अलाव की रंगत फीकी पड़ जाती है। मैं दादी से छुपकर रजाई के आगोश में खो जाता हूँ। सुबह होते-होते; जब तक मैं दादी को भूलने लगता हूँ; हवा का एक झोंका गाल पर मीठी-सी चपत लगाकर कहता है- ‘उठ रे, दादी चाय के लिए अदरक कूट रही है।’

© चिराग़ जैन

Saturday, December 30, 2017

अस्तित्व का मापदंड

फेसबुक को अपने अस्तित्व का मापदंड माननेवाले लोगों का रक्तचाप मापने के लिए प्रति पोस्ट लाइक को प्रति पोस्ट शेयर से गुणा किया जाना चाहिए। इस डिजिटल संचार माध्यम ने एक ऐसी भ्रामक सृष्टि की सर्जना कर दी है कि किसी की चार दिन की निष्क्रियता उसके डिजिटल परिवार को ‘चिंतित महसूस कर रहा है’ वाली स्माइली चिपकाने पर विवश कर देती है।
इस गंभीर स्थिति में आधार कार्ड को फेसबुक से लिंक करने की बातें हो रही हैं। यह फ़रमान फेसबुकियों के लिए ऐसा वरदान सिद्ध हुआ कि मानो नास्तिकों की बस्ती में बने मंदिर के पुजारी को भगवान की माला के फूल मिल गए हों। सरकार की इस गंभीरता को देखते हुए फेसबुकजीवियों ने लॉगिन करते हुए और अधिक गंभीर होने का निर्णय किया है।
जो लोग अपनी पोस्ट पर टिप्पणियों की संख्या बढ़ाने के लिए इनबॉक्स तक दौड़-भाग करते थे, वे अब पोस्ट करने के उपरान्त 5000 लोगों को फोन मिलाने की सोचने लगे हैं। किसी के नकारात्मक कमेंट पढ़कर जिनकी भृकुटियाँ तन जाती थीं वे अब सिर पर ठंडे पानी की पट्टी रखकर एकाउंट लॉगिन करने लगे हैं।
फेसबुक पर कुकुरमुत्तों की तरह उग आए स्वयंभू साहित्यकारों में भी खासी हलचल है। मैं ऐसे कई कवियों को जानता हूँ जो ‘आत्मनिर्भरता ही सफलता की कुंजी है’ की सूक्ति को आत्मसात करते हुए पचास-साठ नक़ली फेसबुक खातों की बुनियाद पर अपनी प्रशंसाओं का विशाल भवन खड़ा कर रहे थे। एक पोस्ट करने के बाद बाक़ायदा पचास लॉगिन-लॉगआउट करना, फिर उन पचास खातों की आपसी लड़ाई करवाना और उस लड़ाई को सुलझाना... इतनी मेहनत-मशक्कत से अपने दम पर ज़िंदा ये मसिजीवी आधार लिंक करने के इस तुग़लकी फरमान से अचानक बेरोज़गार हो गए हैं। 
नक़ली मुद्रा के बंद होने पर जो लोग सरकार की प्रशंसा में जुट गए थे, वे ही नक़ली खाते बन्द होने पर सरकार को कोस रहे हैं। महिला कोटे में बने खातों से लड़कियों से चुहलबाज़ चैटिंग करनेवाले संस्कारी युवा आधार लिंक करने के इस बेग़ैरत फैसले से सदमे में हैं। 
सभ्यता का आधार कार्ड दिखाकर संस्कृति की दुहाई देनेवाले लोग मौब में तब्दील होते ही अशिष्ट हो जाते हैं। यदि पहचाने जाने का संकट न हो तो हम वे सब हरक़तें करेंगे जिनका हम आधार लिंक वाले खाते से विरोध करते हैं। सामाजिक नियमों की भौंडी सभ्यता की चुनरी कुण्ठाओं की सूरत पर एक आवरण डाल देती है। 
फेसबुक के फेक एकाउंट्स बंद करवाने से पूर्व समाज को उन खातों से संचालित गतिविधियों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करना चाहिए। इन खातों में समाज का वह चेहरा उजागर होगा, जिसे सामने लाने के मार्ग में नियमों और नैतिकता के छद्म पहाड़ों का अवरोध सदैव दिखाई दिया है। इन नक़ली खातों के डिजिटल अखाड़े की अध्यक्षता में नियमों की पुनर्स्थापना की जानी चाहिए ताकि वर्जनाओं के टैबू से त्रस्त समाज राहत की साँस ले सके।

© चिराग़ जैन

अलविदा 2017

दो हजार सत्रह भी बीता समय अनवरत दौड़ा जाय
क्या क्या छूट गया है हमसे आओ देखें नजर घुमाय
साल शुरू ही हुआ अभी था उत्सव का माहौल जवान
छोड़ गए संगत सितार की अब्दुल हामिद जाफर खान
अभी सिसकियों से बाहर भी नहीं आ सका था इक साज
मौन हो गई ओमपुरी की दानेदार अलभ आवाज
उधर राजनीति की गलियों में भी मातम ने दी दाब
बरनाला सुरजीत बिछड़ गए, बिलख उठा पूरा पंजाब
उसी दिवस इक उज्ज्वल तारा अंतरिक्ष का टूटा हाय
वैज्ञानिक विश्वेश्वरैया ब्लैक होल में गए समाय
हफ्ते भर के भीतर-भीतर गजल सुबक कर करी पुकार
नक्श ल्यालपुरी जी बिछुड़े आँसू भर रोए अशआर
माह फरवरी चढ़ते चढ़ते रोया लेखन का आकाश
उर्दू की सलमा सिद्दीकीय हिंदी शर्मा वेदप्रकाश
तमिल सिनेमा के आंगन का बूढा बरगद हुआ उदास
वर्ष एक सौ तीन जिए फिर गए एंटनी मित्रादास
व्यंग्य मृत्यु के हत्थे आया उल्टा चश्मा लीना तान
गुजराती साहित्य ने देखा तारक मेहता का अवसान
कैंसर की बीमारी बन गई एक सफल जीवन की सौत
बॉलीवुड के आँसू छलके हुई विनोद खन्ना की मौत
दिल की धड़कन थमी रह गई खड़े रह गए खाली हाथ
रीमा लागू विदा हो गईं दिल ने छोड़ दिया था साथ
ब्यूरोक्रेसी ने खो दी ईमान धर्म की एक मिसाल
आंखें मूंद गए केपीएस गिल भारत माता के लाल
हास्य व्यंग्य ने खोया अपना तारा तेंदुलकर मंगेश
प्रोफेसर यशपाल गए तो फिर से रोया भारत देश
दग्ध हृदय के अंतरिक्ष पर पुनः लगा इक गहरा घाव
शोध कार्य को छोड़ बीच में विदा हुए उडूपी राव
आसमान रोया अगस्त में फूट फूट कर कितनी बार
गोरखपुर में नन्हा बचपन अनदेखी का हुआ शिकार
उन्मादों के आरोहों में ऐसा लिपटा अपना देश
अभिव्यक्ति के आरोपों में चली गईं गौरी लंकेश
आसमान पर जिसने घेरा दुश्मन को फैला कर रिंग
विदा हो गए भारत भू से एअर मार्शल अर्जन सिंह
बॉलीवुड के अंग्रेजी तड़के का पिघल गया सब मोम
कुल सड़सठ की अल्पायु में चले गए जब आल्टर टॉम
अक्टूबर में बॉलीवुड ने पुनः भरी इक और कराह
जाने भी दो यारो कहकर विदा हो गए कुंदन शाह
ठुमरी की लहरी पर रोया काशी जी का महामसान
गिरिजा देवी ने जब छेड़ी काल राग वाली सुर-तान
कला जगत का काल देव ने छीन लिया नयनों का नूर
पंचतत्व में लीन हो गए जब अभिनेता शशि कपूर
इसी वर्ष में हिम ने खाए सेना के दर्जनों जवान
इसी साल में अमरनाथ के यात्री त्याग गए थे प्राण
बाढ़ लील गई लोगों के जीवन, पशुधन, खेत, मकान
पश्चिम के तट पर प्रलयंकर बना रहा ओखी तूफान
रोहिंग्या सीमा पर आए शरण मांगने लिए गुहार
एक फिल्म पर खून-खराबा देखा हमने कितनी बार
धर्म आस्था चबा रहे थे अपमानों के कड़वे नीम
शर्मिंदा कर गया धर्म को सिरसा वाला राम रहीम
रेलों ने पटरी को त्यागा, हवा हो गई विष की खान
जीएसटी ने व्यापारों पर इसी साल ली भृकुटि तान
कुछ खुशखबरी भी आई जिससे जख्मों ने पाया चैन
तीन तलाक प्रथा पर न्यायालय ने लगा दिया है बैन
सुंदरता ने लोहा माना मिला मानुषी को जब ताज
अंतरिक्ष अनुसंधानों में गूंजी भारत की आवाज
इसरो को यूँ अंतरिक्ष का मिला एक ऐसा आशीष
एक सौ चार उपग्रह धारी पीएसएलवी-सी सैंतीस
नया साल अब द्वार खड़ा है इतना सा है अब अरमान
अगले वर्ष मिले भारत को आँसू कम, ज्यादा मुस्कान

© चिराग़ जैन

Tuesday, December 26, 2017

ओ विकलता!

ओ विकलता
दो घड़ी मन को अकेला छोड़ दे तू

नींद का तुझसे पुराना वैर है री
श्वास ने लय खोई तेरे साथ चलकर
धड़कनों की ताल द्रुत होती अचानक
रह गई है शांति अपने हाथ मलकर
मान भी जा
एक क्षण भीषण प्रतिज्ञा तोड़ दे तू
दो घड़ी मन को अकेला छोड़ दे तू

अनवरत मस्तिष्क में हलचल मची है
मौन के क्षण को कभी सम्मान तो दे
तू समूची बुद्धि से मन तक बसी है
धैर्य टिक पाए कहीं पर स्थान तो दे
या चली जा
या हृदय को इक दफा झखझोर दे तू
दो घड़ी मन को अकेला छोड़ दे तू

दृष्टि को भीतर उतरने की गरज है
भंगिमा को सरल होने का समय दे
मुस्कुराहट खिल उठे व्याकुल अधर पर
त्यौरियों को तरल होने का समय दे
घूम-फिर आ
भृकुटियों को सहजता से जोड़ दे तू
दो घड़ी मन को अकेला छोड़ दे तू

© चिराग़ जैन

Sunday, December 24, 2017

उत्सव का संयोग

कवि के आँगन में पीड़ा के उत्सव का संयोग हुआ है
निश्चित है अब इस ड्योढ़ी पर कोई अनुपम गीत सजेगा

आँसू ने पलकें धो दी हैं, मुस्कानों के आमंत्रण पर
सपने आँगन पूर रहे हैं, आशा सज आई तोरण पर
वीणा के सोए तारों को छूकर निकली है बेचैनी
कुछ पल ठहरो इन तारों पर पावनतम संगीत सजेगा
निश्चित है अब इस ड्योढ़ी पर कोई अनुपम गीत सजेगा

सब कुछ खो देने की पीड़ा एक दिलासा ढूंढ रही है
नदिया की धारा सागर की अमर पिपासा ढूंढ रही है
आलिंगन में बांध लिया है अपनेपन ने हारे मन को
तय है इस किस्से में इस पल एक नया मनमीत सजेगा
निश्चित है अब इस ड्योढ़ी पर कोई अनुपम गीत सजेगा

वरदानों की सिद्धि; तपस्या की क्षमता पर आधारित है
जिसने सब कुछ खोया उसका सब कुछ पाना निर्धारित है
मरने की सीमा तक यदि संग्राम किया है इक काया ने
तो अगले पल उस काया में जीवन आशातीत सजेगा
निश्चित है अब इस ड्योढ़ी पर कोई अनुपम गीत सजेगा

© चिराग़ जैन

विच्छेद

स्वप्न तो खो गए बुद्धि के द्वार पर
प्यार को चंद मजबूरियाँ खा गईं
बच गई साथ की झुंझलाहट जहाँ
उस जगह प्रीत को दूरियाँ खा गईं

पारलौकिक सुखों की बड़ी प्यास को
कंदरा का महानंद जकड़े रहा
सुन सको तो सुनो काव्य एकांत का
बस जिसे मौन का छंद पकड़े रहा
ज़िन्दगी की समूची हिरन चैकड़ी
प्राण में व्याप्त कस्तूरियाँ खा गईं

प्रीत का रंग वैधव्य ने धो दिया
अनकही पीर अभ्यर्थना हो गई
आँसुओं पर लगी चैकसी आंख की
चाहतें सत्य को ओढ़ कर सो गई
धीर जितना बंधा था उसे एकदम
रेहड़ियों पर टंगी चूड़ियां खा गईं

भूख का इक ठहाका चुभा देर तक
जब कभी भी सड़क पर बसौड़ा पुजा
रीतियाँ ढोंग की ओट में नग्न थीं
पेट आँतों के पीछे दुबककर तुजा
अन्न के मूल्य की हर प्रबल सूक्ति को.
चौंक पर सड़ रही पूरियाँ खा गईं

© चिराग़ जैन


आलोचना-आमंत्रण

सिर्फ़ प्रशंसा से निश्चित ही धार बिगड़ती है लेखन की
तुम मेरे गीतों की अब से निर्मम-निठुर समीक्षा करना

बगिया के जो बिरवे माली की कैंची से दूर रहे हैं
वो बगिया की उर्वर भू से हटने को मजबूर रहे हैं
छँटने-कटने की पीड़ा से ही मिलता है रूप सुदर्शन
तुम बस घावों पर नव पल्लव उगने तलक प्रतीक्षा करना

मेरे अक्षर कवि-गुरुकुल में सद्य प्रविष्टित राजकुँवर हैं
इनके केशों का मुण्डन भी अंतर्मन पर इक पत्थर है
पर शिक्षा के अनुशासन हित इनको भिक्षुक बनना होगा
इन सुकुमारों की भी बाकी सब जैसी ही दीक्षा करना

लाड़-दुलार अधिक होने से पीढ़ी नष्ट हुई जाती है
धूल सना जीवन जीकर ही सौंधी महक सृजन पाती है
अलग नियम से राजकुँअर पर कायरता का दोष लगेगा
हो पाए तो इनकी, सबसे बढ़कर कठिन परीक्षा करना

© चिराग़ जैन

विध्वंस के बाद

पेड़ की डालियो! नवसृजन में जुटो
पत्तियों को मिला टूटने का हुनर
रात भर मत बिलखियो री सूरजमुखी
सूर्य को भा गया रूठने का हुनर

जो गुंथे एक ही तार में वो सुमन
एक दिन सूखकर तो बिखर ही गए
किन्तु जब तक जिए, तब तलक़ यूं जिए
उत्सवों के सुअवसर संवर ही गए
तुम किसी फूल से सीख लेना प्रिये
मुस्कुराते हुए छूटने के हुनर

चाक ने ही अगर संतुलन खो दिया
प्यास का हर समाधान खो जाएगा
हर कलश, हर सुराही तड़क जाएगी
तृप्ति का साज-सामान खो जाएगा
व्यर्थ अवशेष चुभ जाएंगे याद में
पात्र सीखे न गर फूटने का हुनर

भाग्य की कुछ लकीरों के अवरोह पर
चाह की श्वास हर पल सिसकती रही
सत्य कटुता का बाना पहनता रहा
प्राण की डोर गर्दन जकड़ती रही
नियति की डुगडुगी पर दिखाता रहा
इक जमूरा खुशी लूटने का हुनर

© चिराग़ जैन

Thursday, December 14, 2017

घर कैसे बचेगा?

देहरी ने झूठ बोला है कपाटों से
सांकलों ने सी लिए हैं होंठ
घर कैसे बचेगा?

धूल आंगन की छतों के सिर चढ़ी है
और चैखट मूकदर्शक बन खड़ी है
नींव तक हर रोज़ पानी रिस रहा है
फर्श बेचारा निरंतर घिस रहा है
रोज़ टलता जा रहा विस्फोट
घर कैसे बचेगा?

नींव का बिसरा चुकी है प्यार देखो
दूसरों पर लद गई दीवार देखो
खिड़कियां घर से अभी रूठी हुई हैं
दूसरों की दृष्टि से जूठी हुई हैं
भा रहा मन को पराया खोट
घर कैसे बचेगा?

बिस्तरों पर सिलवटें संदेह की अब
एड़ियां फटने लगी हैं स्नेह की अब
दूर ले जाती सड़क को तक रहे हैं
साथ चलने में सभी अब थक रहे हैं
आन पर हर रोज होती चोट
घर कैसे बचेगा?

इक अहम का भाव घर में तन चुका है
अन्तरंगता में झरोखा बन चुका है
आपसी विश्वास भी जर्जर हुआ अब
चाय की चर्चा हमारा घर हुआ अब
उफ़! उघड़ती जा रही हर ओट
घर कैसे बचेगा?

© चिराग़ जैन

Sunday, December 10, 2017

मनोरंजक चुनावी रैलियाँ

सरकार चाहती है कि दिल्ली की जनता सड़क पर पार्किंग न करे। जनता भी चाहती है कि उसे अपनी गाड़ी अनाधिकृत स्थान पर खड़ी न करनी पड़े। लेकिन सरकार गाड़ी के लिए पार्किंग का स्थान मुहैया नहीं करवा पाती। वह जनता से कहती है कि अपने घर के भीतर गाड़ी खड़ी करो। जनता हाथ जोड़ कर कहती है कि छोटे-छोटे फ्लैट्स और बिल्डर फ्लोर्स में रहनेवाला शख़्स गाड़ी घर में कैसे खड़ी करे।
उत्तर सुनते ही सरकार तुरंत नहले पे दहला मारते हुए कहती है- ‘इत्ते छोटे घर में रहनेवाला आदमी गाड़ी ख़रीदता ही क्यों है?’
जनता रुआंसी होकर कहती है- ‘माई बाप! हम डीटीसी की बस में दफ्तर जाना चाहते हैं लेकिन बस में पैर रखना तो दूर, लटकने की भी जगह नहीं होती। ऊपर से सरकारी चेतावनी और लिखी होती है कि पायदान पर यात्रा न करें। ...पायदान पर कर नहीं सकते, भीतर जगह नहीं है और लटकने का सामर्थ्य नहीं है। ऑटो-टैक्सीवाले खाल उतार लेते हैं। उनकी शिकायत करो तो पुलिसवाला ऑटोवाले के प्रति नमकहलाल बनकर तब तक नहीं पहुँचता, जब तक ऑटोवाला हमें मारपीट के फरार न हो जाए। ओला-ऊबर में इतना सरचार्ज लगता है कि तीन कर्मचारियों की तनख़्वाह मिला ली जाए तो भी एक कर्मचारी दफ्तर नहीं पहुँच सकता। मेट्रो में ऑफिस टाइम पर इतनी भीड़ होती है कि जब तक मेट्रो में घुस पाते हैं तब तक बायोमेट्रिक की मशीन हमें लेटलतीफ घोषित करके हमारी आधी दिहाड़ी चट कर जाती है। गाड़ी पूल करने की सोचें, तो उसके लिए गाड़ी होना ज़रूरी है और चार दिन में एक दिन नम्बर आवे तो बाकी तीन दिन गाड़ी खड़ी करने के लिए पार्किंग की जगह चाहिए।’
इतनी सारी कहानी सुनकर सरकार थोड़ी देर मौन रहती है। अचानक उसे ध्यान आता है कि दो महीने बाद राजस्थान में चुनाव है। सरकार मन ही मन स्वयं को कोसती है- ‘मूढ़मति, दिल्ली के लोगों की समस्याएँ कभी ख़त्म नहीं होंगी। ये थैंकलैस लोग एक नम्बर के आलसी हैं। इनके चक्कर में पड़ोगे तो राजस्थान हाथ से निकल जाएगा।’
सोच-विचार करके, सरकार जनता को आश्वासन देती है कि हमने एनसीआर कमेटी को बोलकर दिल्ली का विस्तार शामली तक करवा दिया है। लगभग सौ किलोमीटर दायर बढ़ जाएगा तो पार्किंग की समस्या हल हो जाएगी। फिर आप आराम से अपनी गाड़ी पार्क करना।
इससे पहले कि जनता इस आश्वासन को सुनकर सम्भल पाए, सरकार राजस्थान के दौरे पर निकल लेती है। जनता अपने घर पहुँचकर घर के बाहर गाड़ी पार्क करती है और टीवी पर सरकार की चुनावी रैली देखने लगती है। रैली के आश्वासनों को सुनकर जनता ठहाका मारती है और न्यूज़ चैनल का मनोरंजन त्याग कर पोगो चौनल के समाचार लगा लेती है।

© चिराग़ जैन

Monday, December 4, 2017

अलविदा शशि कपूर साहब!

एक पूरा जीवन समाप्त हो जाने की एक और ख़बर आई। वे शशि साहब जो कभी चहकते हुए एक नौजवान थे, वे जिनका अंदाज़ "स्टाइल" कहलाता था, वे जिनका उठना-बैठना, खानपान, आना-जाना सब कुछ सुर्खियों में तब्दील हो जाता था; आज "हमेशा" के लिए विदा हो गए। वो शरारती आंखें अब कभी नहीं खुलेंगी। कितना जरूरी और बेतुका सत्य है मृत्यु! और कितना निष्ठुर है लोकप्रियता का भ्रम! जिनका फ़िल्म में मरण देख कर लोगों की पलकें भीग जाती थीं आज उनके महागमन की ख़बर भी केवल एक सिंगल कॉलम न्यूज़ से ज़्यादा कुछ नहीं है। सामाजिक लोगों का जीवन किसी खूबसूरत जश्न जैसा है। जब इस जश्न पर नूर बरसता है तो पूरी दुनिया मुँह बाये इसकी रौशनी से झिलमिलाते संसार को देखती है लेकिन जश्न का रंग उतरने के बाद वही जीवन कितना वीरान और बदरंग हो जाता है- इसकी सुधि लेने कोई नहीं जाता। शशि जी ने जीवन के अंतिम कुछ वर्ष बेहद कष्ट में गुज़ारे। राजेश खन्ना भी अवसाद के दंश से रोज़ घायल हुए और अंततः चल बसे। दिलीप साहब, अटल जी और भी अनेक दैदीप्यमान सूरज किसी गुमनाम अंधेरे में जीवन काट रहे हैं। ये सब घटनाएँ आज इसलिए संदर्भित हो गई हैं कि कभी हमारे मनोरंजन, खेल, विज्ञान, राजनीति, कला, उद्योग और अन्य क्षेत्रों की धुरि रहे व्यक्तित्व हमारे भविष्य की धरोहर हैं। उनके अनुभवों की ऊर्जा को व्हील चेयर पर घिसटने के लिए छोड़ देने की बजाय यदि भविष्य के निर्माण हेतु प्रयोग करने का उपक्रम किया जाए तो संभवतः निजी जीवन को तिरोहित कर अनवरत मेहनत करने वाले लोग अधिक जिजीविषा से मानव जाति की सेवा कर पाएंगे। अलविदा शशि साहब!

Monday, November 27, 2017

सरकारी दफ्तर में काम

किसी सरकारी दफ़्तर में काम अटक जाये तो हर भारतीय के पास दो विकल्प होते हैं। पहला, वह ईमानदारी की लड़ाई लड़े और अपने सब काम-धंधे छोड़कर अधिकारियों, थानों, अदालतों, मीडिया और विजिलेंस के चक्कर लगाने शुरू कर दे। इस प्रक्रिया में काफ़ी परेशानी और ज़िल्लत उठाने के बाद अंततः यह पता चलता है कि जिस क्लर्क अथवा विभाग ने आपके आवेदन पर कार्य शुरू किया था, उसने ज़िम्मेदारी से काम नहीं किया इसलिए एक ज़िम्मेदार ईमानदार करदाता को महज कुछ वर्षों की परेशानी उठानी पड़ी। अंत में किसी पिछले जन्म के पुण्य के उदय से आपको हुई परेशानी के लिये खेद जताते हुए आपका कार्य सम्पन्न करने के आदेश जारी हो जाते हैं और उसी क्लर्क की चिढ़ी हुई शक्ल के अंतिम दर्शन करके आप अपना मनोरथ पूर्ण कर लेते हैं।
दूसरा विकल्प यह है कि आप किसी मंत्री, अधिकारी अथवा दलाल को नए नोट या अपना सामाजिक रुतबा दिखाकर वह काम करवा लें। 
दूसरे वाले विकल्प का प्रयोग करनेवाले लोग सामान्य भाषा में जुगाड़ू और न्यायिक शब्दावली में भ्रष्टाचारी कहलाते हैं। जबकि पहले विकल्प का प्रयोग करनेवाले लोग अदालतों और अधिकारियों की दृष्टि में ईमानदार लेकिन अपने परिवार, यार-दोस्तों, रिश्तेदारों और परिचितों की दृष्टि में सनकी, झक्की और मूर्ख कहलाते हैं। 
स्वतंत्र भारत में हमें जनहित में एक ऐसा तंत्र मुहैया कराया गया है, जिसमें कोई भी नागरिक किसी काम को हल्के में नहीं ले सकता। सहजता से मिलनेवाली चीज़ का मोल कम हो जाता है; इसी उक्ति को ध्यान में रखकर हमें कोई भी इच्छापूर्ति के लिए बाक़ायदा तपस्या करवाई जाती है। भारत देश के लोग ईश्वर को भूल न जाएँ, इसलिए हमें हर टेबल पर इतनी जटिलताओं में उलझाया जाता है कि क़दम-क़दम पर ईश्वर का स्मरण बना रहे।
हर सरकारी दफ़्तर उस सुरसा की भूमिका में मुँह बाए बैठा है कि जैसे ही कोई जीव उसके आगे से गुज़रे तो वह उसकी तरक्की की परछाई को पकड़ ले। यदा-कदा कोई बजरंगी सुरसा के विशालकाय मुँह में एप्रोच का जीरा डालकर ख़ुद को मुक्त करा ले, तो यह उसकी व्यक्तिगत करामात है।
देश के विकास की फाइलें ऐसे ही दफ़्तरों की किसी कतार में चप्पल घिस रही है और उसे अनावश्यक औपचारिकताओं में उलझाकर घर लौटता हर सरकारी बाबू सरकारी बस में लटकते हुए झल्लाकर कहता है- ‘कुछ नहीं हो सकता इस देश का।’ 

© चिराग़ जैन

Friday, November 24, 2017

इस राह चलकर देखते हैं

चलो, इस राह चलकर देखते हैं
कहाँ बदले मुकद्दर, देखते हैं

कहीं मुस्कान तो लब पर नहीं है
मेरे आँसू छलककर देखते हैं

हमें तो दिख रहा है कंठ नीला
यहाँ सब सिर्फ शंकर देखते हैं

हमारे हौसलों की थाह मत लो
कहाँ तक है समंदर, देखते हैं

अगर हँसता हुआ मिल जाऊँ उनको
तो जिगरी यार जलकर देखते हैं

अगर मुस्कान से परहेज रखूँ
तो फिर बच्चे सहम कर देखते हैं

अभी मजबूरियों की चल रही है
इरादे आह भरकर देखते हैं

यही एहसास दिल को खुश रखे है
वो हमको छुप-छुपाकर देखते हैं

© चिराग़ जैन

Sunday, November 19, 2017

अतिक्रमण

जिस चेहरे पर आगत के स्वागत का कौतूहल होता था
उस चेहरे पर आशंका के डर ने डेरा डाल लिया है

इच्छा बिरहन सी फिरती है, दूर हुआ उत्साह अचानक
जिन श्वासों में स्वर रहते थे उनमें व्यापी आह अचानक
जिन आँखों की आभा से मन का अंधियारा मिट जाता था
उन आँखों के नीचे चिंताओं ने घेरा डाल लिया है

संदेहों के विषधर लिपटे क्यों सम्बंधों के संदल पर
भूचालों से जूझ गया जो, वो कैसे चुप है हलचल पर
जिस साथी के हेतु निछावर स्वप्न किए अपनी आँखों के
उस साथी ने अपने मन में तेरा-मेरा डाल लिया है

द्रुत गति से उडती काया अब धीरे-धीरे सरक रही है
बांध उगा ऐसा जिससे नदिया की कलकल दरक रही है
उत्सव के जल-जीवों से शोभित था मन का मानसरोवर
अब इसमें पीड़ा ने अपना जाल घनेरा डाल दिया है

रातों को नींदों ने त्यागा, धीरज को मन ने ठुकराया
आशा त्याग चली पल भर में हिम्मत के आँचल का साया
हाथों की जिन रेखाओं में उज्ज्वल कल की बात लिखी थी
उनमें आज अचानक किसने घोर अंधेरा डाल दिया है

© चिराग़ जैन

Friday, November 17, 2017

हम उदासीन हैं

जब नोटबन्दी के पक्ष में भाजपा, जनता के बयान प्रस्तुत करने की कोशिश करती है, तब कांग्रेस, मनमोहन सिंह जी द्वारा जुटाए गए आँकड़े दिखाने लगती है और जब भाजपा ने एक विदेशी संस्था के आँकड़े दिखाकर देश की प्रगति की गवाही दी, तो कांग्रेस आम आदमी की व्यवहारिक समस्याओं का चित्र पेश करने लगी।
जब जीएसटी कांग्रेस की सरकार का प्रोजेक्ट था, तो भाजपा के नेता को उसके कारण होनेवाली समस्याएँ साफ दिखाई देती थीं, लेकिन अब भाजपा सरकार ने जीएसटी लागू किया तो उसका विरोध करनेवाले उन्हीं भाजपाइयों को बेईमान नज़र आने लगे।
कोई जालीवाली टोपी लगाकर ईद की मुबारकबाद दे, तो यह साम्प्रदायिक सद्भाव और कोई भगवा पहनकर कुर्सी पर बैठ जाए तो यह धर्म की राजनीति। कोई पूरे प्रदेश को हाथियों की मूर्ति से भर दे तो यह सत्ता का दुरुपयोग, और कोई पूरे प्रदेश को भगवा रंग से पुतवा दें तो यह विकास। कोई शहरों के नाम काशीराम, अम्बेडकर और खुद अपने नाम पर रख लें तो यह वर्गभेद को बढ़ावा लेकिन कोई चप्पे-चप्पे को हेडगेवार, गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय, सावरकर, मुखर्जी और विवेकानंद के संज्ञापट्ट से सजा दे तो यह संस्कृति की रक्षा।
मनमोहन सिंह की चुप्पी पर चुटकुले सुनाते पकड़े जाएं तो यह मोदी जी का सहज हास्यबोध और बाकी पूरा देश मोदी जी से कोई सवाल भी पूछ लें तो यह राष्ट्रद्रोह!
और हम... हम भी इस सबसे इतने उदासीन हो चुके हैं कि समाचार बुलेटिन में चीखती ढिठाई से हम मनोरंजन जुटाने लगे हैं। हम इतिहास से छेड़छाड़ पर देश फूंक देंगे, रामरहीम की गिरफ्तारी के प्रश्न पर भारत को नेस्तोनाबूद करने के बयान बर्दाश्त कर लेंगे, ज़िम्मेदार पदों पर बैठे व्यक्तियों द्वारा वोटों की राजनीति साधने के लिए क़ानून हाथ में लेने की वीडियो देखकर हँस लेंगे।
आसमान में ज़हर का बादल हर साँस के साथ हमें मौत के क़रीब लिए जाता है लेकिन हम इस बात पर गाली-गलौज करने लगते हैं कि हमारी दिवाली ही पटाखों के बिना क्यों मनेगी, उनके शब-ए-बारात पर या उनके गुरूपरब पर पटाखे पहले बन्द होने चाहिएँ। हम प्रदूषण से जलती अपने बच्चों की आँखे नहीं देख पाते लेकिन अरविंद केजरीवाल और एलजी की रस्साकशी पर तालियाँ ज़रूर पीटते हैं।
सात दशक की राजनीति में ग़रीबों के विकास का जुमला और ग़रीबों के लिए राजनीति की ढोंगी हमदर्दी से बड़ा मज़ाक़ इस लोकतंत्र में कुछ नहीं हुआ। कांग्रेसियों को चुनावों में दलित याद आते हैं। पाटीदारों के प्रति उनके हृदय में अचानक सौहार्द जाग जाता है। जिन सुशासन बाबू को मोदी जी फूटी आँख नहीं सुहाते थे वे ही सत्ता बचाने के लिए मोदी जी की प्रशंसा प्रारंभ कर देते हैं और हम इस बेशर्मी को पढ़कर अख़बार का पन्ना पलट देते हैं। आज लालू नीतीश के दुश्मन हैं, कल वे ही दोस्त हो जाएंगे।
नोएडा और नासिक में बिल्डरों की लूट पर कोई नहीं बोलता, क्योंकि हर बिल्डर राजनीति के गलियारों में सुविधाओं के पौधे लगाता है; दिल्ली मुम्बई के रेंगते ट्रैफिक पर किसी को इसलिए फर्क नहीं पड़ता क्योंकि इनकी गाड़ियां बेरोकटोक दौड़ने की सुविधा इनके पास उपलब्ध है; पुलिसिया भ्रष्टाचार पर किसी की नज़र नहीं जाती क्योंकि पुलिस के जो जवान जनता से बदतमीज़ी की हदें लांघते हैं वे ही इनको सेल्यूट मारते हैं।
राजनीति की चूहा दौड़ में जनता की मूलभूत समस्याएं कितनी पीछे छूट गई हैं इसका अनुमान हम लगा नहीं पा रहे हैं। हमें राजनीति से उदासीन हो जाना शोभा नहीं देता लेकिन यह ज़रूर ध्यान रखना होगा राजनीति की ढिठाई पर खुश होकर तालियाँ पीटने की आदत हमें नपुंसक बनाती जा रही है।

© चिराग़ जैन

Wednesday, November 15, 2017

सरकार का जवाब

चौराहे पर खड़ा भिक्षुक दल हमारी गाड़ी के शीशे पर जी भर के ठुक-ठुक करता है। जब हम उसे भीख देने से इनकार करते हैं तो वह गाली बकने से लेकर, गाड़ी पर खरोंच मारने तक की प्रतिक्रिया देता है। दस-बीस मीटर दूर खड़ा ट्रैफिक पुलिस का जवान उसे कुछ नहीं कहता क्योंकि उसका काम गाड़ियों को रोकना है, भिखारियों को नहीं। लेकिन सरकार उस पुलिसवाले की तरह निष्ठुर नहीं है। वह जगह-जगह विज्ञापन करती है कि ‘भिक्षावृत्ति अपराध है।’ सरकार मानती है कि भिक्षावृत्ति में संलग्न लोग इस विज्ञापन को पढ़कर, अपनी ग़लती मानते हुए पश्चाताप की अग्नि में तपकर कुंदन बन जाएंगे और देश को दमकाने में सहयोग करने लगेंगे। 
ट्रैफिक जाम में गाड़ी रुकती है तो किन्नर आपकी गाड़ी को घेर लेते हैं। गाली-गलौज से लेकर आपके परिवार के सामने अश्लीलता की सीमाएँ पार करने लगते हैं। पैसे देने से इनकार करने की स्थिति में ये लोग आपकी गाड़ी के आगे लेटने लगते हैं, अपने कपड़े उतारने लगते हैं, आपके परिवार से सामने आपके गुप्तांगों को छूने लगते हैं और अभद्र शब्दावली का स्तर बढ़ाने लगते हैं। आप विवश होकर अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए अपना पैसा लुटा देते हैं। सौ मीटर दूर खड़ी पुलिस की जिप्सी ऐसी घटनाओं से अनभिज्ञ रहती है। सरकार इस जिप्सी की तरह अज्ञानी भी नहीं है। वह ऐसे लुटेरों को सबक सिखाने के लिए विज्ञापन करती है- ”अच्छे नागरिक बनिये!“ विज्ञापन पढ़कर ये सभी अपराधी सुधर जाते हैं और मंदिरों के बाहर विकलांगो की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर देते हैं। 
ट्रेन मुग़ल सराय जंक्शन पर तब तक खड़ी रहती है जब तक ट्रेन के यात्री भूख से व्याकुल होकर केटरिंग वेंडर्स का सारा सामान ख़रीद न लें। यात्री पूछता है कि उसकी यात्रा में हो रहे विलंब से उसे जो घाटा होगा उसके लिए रेल विभाग क्या मुआवज़ा देगा? तभी उद्घोषिका उसके मस्तिष्क में कौंध रहे प्रश्न का उत्तर देते हुए कहती है- ‘आपको हुई असुविधा के लिए हमें खेद है।’ उद्घोषणा सुनकर यात्री भावुक हो जाता है, वह लाउड स्पीकर के पास जाकर उसे सहलाता है और उसका कंधा थपथपाते हुए कहता है- ‘कोई बात नहीं बहन। तुम दिल छोटा न करो।’ सरकार रेल विभाग और यात्रियों के मध्य इस भावुक पल को देखकर द्रवित हो जाती है और मुग़ल सराय जंक्शन का नाम बदलकर ‘दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन’ रख देती है। 
आपको देर रात घर लौटते समय कोई लूट लेता है। आप हज़ार बार ऊँच-नीच का विचार करके थाने जाते हैं। पुलिसवाला आपसे ऐसे बात करता है ज्यों आप ही ख़ुद को लूटकर आ रहे हों। आप उससे रपट लिखने के लिए रिरियाने लगते हैं। वह रपट लिखने की बजाय आपको धमकाने लगता है। फिर कुछ ले-दे के रपट लिखे बिना ही लुटेरे को फोन मिलाकर लूट के रुपयों में के साथ गए कागज़ात मंगवा लेता है। आप इतनी त्वरित सेवा से प्रभावित होकर गद्गद हो जाते हैं और ख़ुशी-ख़ुशी थाने से बाहर आते हैं। थाने के आंगन में बड़े-बड़े शब्दों में लिखा है- ‘पुलिस आपकी दोस्त है।’ 
आप सरकार से कहते हैं कि देश में महंगाई बढ़ रही है। सरकार जवाब देती है कि देश में सत्तर साल से कांग्रेस ने महंगाई बढ़ाई है। आप पूछते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था चरमरा क्यों रही है। सरकार कहती है कि देश को पूरी दुनिया में सम्मान मिल रहा है। आप पूछते हैं कि नोटबन्दी और जीएसटी के अपरिपक्व फैसले से ठप्प हुए व्यापार का उत्तरदायी कौन होगा। सरकार कहती है कि बेईमान और राष्ट्रद्रोही लोग, नोटबन्दी का विरोध कर रहे हैं। आप पूछते हैं कि कश्मीर में जवानों पर पत्थर फेंके जाने कब बन्द होंगे? सरकार ख़ुश होते हुए कहती है, ‘जनता हमारे साथ है, हम उत्तर प्रदेश जीत गए।’ आप पूछते हैं कि जिओ के सिवाय किसी अन्य मोबाइल का नेटवर्क क्यों नहीं आता? सरकार ठहाका लगाकर कहती है, ‘देखो हमने बिहार में भी सरकार बना ली।’ आप पूछते हैं कि कोई बैंक का पैसा लेकर कैसे भाग गया? सरकार कहती है कि ताजमहल का वास्तविक नाम तेजोमहालय है। आप पूछते हैं कि इतनी महंगाई में इतना सारा टैक्स कैसे चुकाएँ? सरकार चहककर नाचते हुए कहती है, ‘देखो, देखो हमारा देश फिर से सोने की चिड़िया बनने जा रहा है।’

© चिराग़ जैन

Saturday, November 11, 2017

स्मॉग

चाह पूनम की थी तो अमा दे गए
रौशनी से रहित चन्द्रमा दे गए 
फॉग बनकर जिन्होंने बुलाया निकट 
स्मॉग बनकर वही अस्थमा दे गए 

© चिराग़ जैन

कौरव

लड़ने को तो लड़ ही लूंगा, लेकिन ये डर लगता है 
कौरव से लड़ते-लड़ते मैं ख़ुद कौरव ना हो जाऊँ 

© चिराग़ जैन

Wednesday, November 8, 2017

नोट बंद हो गये

जिनके इशारों पर नाचता था भ्रष्टतंत्र
कैश के बिना सभी रिमोट बंद हो गये
वोट फोर नोट की जो करते थे राजनीति
उन मायाधारियों के वोट बंद हो गये
डाकुओं का कैश से हुआ है ऐसा मोहभंग
सरे-आम लूट व खसोट बंद हो गये
पर्दे के पीछे काफ़ी कुछ अभी भी है बंद
जनता को लगता है नोट बंद हो गये

-चिराग़ जैन

Tuesday, November 7, 2017

एक गीत मस्ती का

आकलन नहीं करना आप मेरी हस्ती का
कुछ अलग कलेवर है मेरे दिल की बस्ती का
एक ही ज़मीं पर मैं एक संग उगाता हूँ
एक गीत करुणा का, एक गीत मस्ती का

अश्क़ की कहानी भी शब्द में पिरोता हूँ
दर्द देखता हूँ तो ज़ार-ज़ार रोता हूँ
ख़ूब खिलखिलाता हूँ ग़लतियों पे मैं अपनी
व्यंग्य-बाण ख़ुद को मैं आप ही चुभोता हूँ
साज़िशें दिखें तो ये मन उदास होता है
लुत्फ़ भी उठाता हूँ साज़िशों की पस्ती का
एक गीत करुणा का, एक गीत मस्ती का

जिस क़लम से लिखता हूँ इक ग़्ाुलाब का खिलना
मैं उसी से कहता हूँ, तार-तार का छिलना
मंच पर चहकता हूँ, डायरी में रोता हूँ
आप जिस जगह चाहें मुझसे उस जगह मिलना
मानता हूँ लोहा भी चप्पुओं की हिम्मत का
गर्व भी है नौका की मौन सरपरस्ती का
एक गीत करुणा का, एक गीत मस्ती का

© चिराग़ जैन

Monday, November 6, 2017

काँटों पर कटती हैं रातें

झलक नहीं मिलती इनके पैरों के छालों की
काँटों पर कटती हैं रातें हँसने वालों की

सब जैसी ही देह, जरा का डर इनका भी है
आयु बढ़े तो तन निश्चित जर्जर इनका भी है
भूख-तृषा की व्याधि इन्हें भी घेरे रहती है
ख़ुद से हैं बेहोश, पीर ही इनको सहती है
स्वार्थ गलाकर कुंजी गढ़ लीं ग़म के तालों की
काँटों पर कटती हैं रातें हँसने वालों की

घर-परिवार-समाज-ललक-आशा-हसरत-सपने
रिश्ते-नाते-मित्र-विरोधी-अनजाने-अपने
जन्म-मरण-अपनत्व-परायापन-संयोग-वियोग
अगिन ठहाके इन शब्दों की भट्ठी में तपने
फ़िक्र नहीं है अपने जीवन के भूचालों की
काँटों पर कटती हैं रातें हँसने वालों की

दर्द मिला; करुणा लिख डाली इसमें क्या है ख़ास
बात तभी, जब पीर पचाकर उपजा जाए हास
आँसू के गीतों से अंतर्मन धुल जाता है
किंतु हँसी से महके भीतर दिव्य पवित्र सुवास
टीस नहीं सुनती दुनिया मदिरा के प्यालों की
काँटों पर कटती हैं रातें हँसने वालों की

© चिराग़ जैन

रणसिका, हरियाणा।

Thursday, October 26, 2017

छल का पल

आँखें पलकों की सीमा से बाहर आने को आतुर थीं
कंधे ढूंढ रहे थे कोई एक हथेली धीर बँधाए
रक्त शिराओं के तटबंधों की मर्यादा लांघ रहा था
अपनेपन के छल से आहत दिल ख़ुद को कैसे समझाए

मुट्ठी भींच नहीं सकता था, संबंधों का दम घुँट जाता
और हथेली के खुलते ही भाग्य मुझे उपहास बनाता
किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा मैं सोच रहा था कैसा क्षण है
मेरे तन पर मेरे मन का क्यों कुछ ज़ोर नहीं चल पाता
शब्द गले में मौन पड़े थे, वक़्त थमा-सा था मुँह बाये
अपनेपन के छल से आहत दिल ख़ुद को कैसे समझाए

अपना सुख ईंधन कर डाला, जिसका पथ उज्ज्वल करने में
उसने पल भर भी न विचारा, संबंधों से छल करने में
मैं इस पल भी चाह रहा हूँ, यह कोई झूठा सपना हो
उसके हाथ नहीं काँपे थे, अपनों को घायल करने में
दिल धक से बैठा जाता था, पलकों तक आँसू भी आए
अपनेपन के छल से आहत दिल खुद को कैसे समझाए

इस पल में समझा चेहरे का रंग बदलना क्या होता है
इस पल जाना पाँव तले से ज़मीं खिसकना क्या होता है
विश्वासों की परत चढ़ाकर विष देना किसको कहते हैं
इस पल ही जाना जीते जी, प्राण निकलना क्या होता है
दुनियादारी क्या होती है, इस पल ने सब पाठ पढ़ाए
अपनेपन के छल से आहत दिल खुद को कैसे समझाए

© चिराग़ जैन

Monday, October 23, 2017

बचपन के किस्सों से पूछो

तुम खरगोशों के अनुयायी
मैं हूँ कछुए का पथगामी
बचपन के किस्सों से पूछो
आख़िर में जय किसकी होगी

जब सारस को आमंत्रित कर
खीर परोसी थी थाली में
लम्बी चोंच लिए बेचारा
कैसे जल पीता प्याली में
दृश्य मगर परिवर्तित होगा
सारस का भी दिन आएगा
शर्बत युक्त सुराही होगी
धूर्त देख कर पछताएगा
बंदर को छलने की नीयत
मूर्ख मगर को रिस्की होगी
बचपन के किस्सों से पूछो
आख़िर में जय किसकी होगी

आज कथा का पहला दिन है
आज बया का घर टूटेगा
संत लुटेगा, चोर हँसेगा
पाप अभी चांदी कूटेगा
लेकिन ज्यों ज्यों बात बढ़ेगी
कौआ मीठा जल पाएगा
ऊँची हांडी की खिचड़ी से
बूढ़ा ब्राह्मण फल पाएगा
वैसा हाल बनेगा उसका
जैसी करनी जिसकी होगी
बचपन के किस्सों से पूछो
आख़िर में जय किसकी होगी

ताल किनारे लक्कड़हारा
सच कहने का फल पाएगा
भगत बना बगुला खुद इक दिन
कर्क गरल से छल जाएगा
हाथी को चींटी डस लेगी
सच का मुश्किल पंथ नहीं है
न्याय अगर है न्यून जहाँ तक
वह किस्से का अंत नहीं है
खुद गड्ढे में गिर जाएगा
जिसने भी साजिश की होगी
बचपन के किस्सों से पूछो
आख़िर में जय किसकी होगी

© चिराग़ जैन

Sunday, October 22, 2017

सृजन-पथ

मौन लम्हों को पकड़कर शब्द में साकार करना
भावसागर से अमिय का घट जुटाने-सा कठिन है
कल्पना में कौंधते लाखों विचारों से उलझना
इक उफनती बाढ़ को काबू में लाने-सा कठिन है

राम का दुःख तब कहा जब रह गए तुलसी अकेले
मेघदूतम् के रचयिता ने विरह के कष्ट झेले
कृष्ण की इक बावरी ने विष पिया जीवन गँवाया
सूर के अंधियार में ही रौशनी के खेल खेले
अनुभवों की देह छूकर, शब्द में जीवन पिरोना
साँस से अहसास की क़ीमत चुकाने सा कठिन है

दूसरों को बाँट कर देखो कभी अपना उजाला
क्यों कबीरा ने लुकाठी से घरौंदा फूँक डाला
सीकरी की भेंट ठुकराना निरी दीवानगी है
प्राण से प्यारी सुता खोकर बना कोई निराला
आँसुओं को आँख में ही रोक कर स्याही बनाना
धमनियों में वर्णमाला को बहाने-सा कठिन है

सो गया शहरे-अवध में रोते-रोते मीर कोई
फै़ज़ होने के लिए पहने रहा ज़ंजीर कोई
गै़र मुमकिन है बिना अनुभव के वारिस शाह होना
उस बशर ने खोई होगी ज़िन्दगी में हीर कोई
ज़ख़्म की हर टीस को दिलचस्प-सा क़िस्सा बनाना
चोट खाकर महफ़िलों में खिलखिलाने-सा कठिन है

गीत लिखकर गीत ऋषियों ने असीमित दर्द ढाँपा
शायरों को इल्म है किस शाख़ पर कब फूल काँपा
जेल की दीवार पर अशआर हिम्मत से लिखे पर
पुत्र के सिर का कलेवा कर नहीं पाया बुढ़ापा
भाव, पारे की तरह छूने नहीं देता स्वयं को
काव्य रचना ओसकण से घर बनाने-सा कठिन है

भावनाओं के प्रसव का मिल गया वरदान कवि को
अश्रु पीकर बाँटनी होगी सदा मुस्कान कवि को
मुश्क़िलों की हर परत को खोल कर छूना पड़ेगा
ज़िन्दगी मिलती भला कैसे बहुत आसान कवि को
एक जीवन में सभी की भावना को शब्द देना
हर पहर मरते हुए जीवन बिताने-सा कठिन है

© चिराग़ जैन

Saturday, October 21, 2017

साम्प्रदायिक सद्भाव की बातें

युग बीत गए साम्प्रदायिक सद्भाव की बातें करते हुए। धार्मिक कट्टरता की अग्नि में मानवीय मूल्यों के संरक्षण की संभावनाएँ भस्म हो जाती हैं। पुरानी पुस्तकों के सफ़हे पीले पड़कर झड़ने लगे हैं। उन्हें पुनर्मुद्रित न कराया गया तो उनका नामोनिशान भी न बचेगा। मंदिरों-मस्जिदों ने खंडहर में तब्दील होकर बताया है कि समय-समय पर जीर्णाेद्धार न किया जाए तो सब कुछ विलीन हो जाता है।
मूर्तियाँ खण्डित हो जाएँ तो उन्हें वेदी से हटाकर संग्रहालय में रख लेना आवश्यक हो जाता है। मुस्कुराहट मनुष्य का सहज स्वभाव है। जो संबंध मनुष्य के इस स्वभाव में विघ्न डालेगा; मानव उसे बिसार देगा।
किसी संत, मौलवी या धार्मिक व्यक्ति के कुकृत्य पर शर्मिंदा होने से बेहतर है कि मस्तिष्क और मन की खिड़कियों को खोलकर यह विचार करें कि आख़िर क्या कारण है कि त्याग और आत्म कल्याण के पथ पर बढ़ते साधक को भ्रष्ट होने की परिस्थितियाँ आकृष्ट कर लेती हैं। या फिर हमारी साधना की दिव्य वीथियों में धूर्त मस्तिष्कों के प्रवेश का कौन सा द्वार बन गया है; इसकी पड़ताल करनी होगी। किन्तु यह पड़ताल धर्म के अनुयायी होकर नहीं की जा सकती। इसके लिए धर्म का शुभचिंतक होना होगा।
‘राजनीति धर्म को भ्रष्ट करती है’ -यह वाक्य इस युग का सबसे बड़ा भ्रम है। मानव की आत्मा के विकास का कोई संस्थान राजनीति जैसी किसी क्षणिक बुद्धि से प्रभावित होकर अपने पथ से भटक जाए; इसका अर्थ जिसे आप धर्म कह रहे हैं, वह एक छल है। ध्यान रखना, जो डिग जाए वह धर्म नहीं है।
हम प्रत्येक युग की समाप्ति पर धर्म के परिष्करण हेतु महाकुम्भ का आयोजन करनेवाले भारतीय हैं। हम गुरु परंपरा की शुचिता बनाए रखने के लिए एक ग्रंथ को गुरु मान लेनेवाले भारतीय हैं। हम अपने ही शिष्य को अपने आसन पर विराजित कर उसके चरणों में बैठनेवाले भारतीय हैं। हम राष्ट्रधर्म पर मातृधर्म निछावर करनेवाले भारतीय हैं। हम कलिंग में रक्तस्नान करने के उपरांत धवल वस्त्र दीक्षा धारण करनेवाले भारतीय हैं। हम कुरुक्षेत्र में काल-पात्र-स्थान के अनुरूप क्षण-क्षण नियम बदलनेवाले भारतीय हैं। हम फ़क़ीरों की याद में फूलों की चादरें संजोनेवाले भारतीय हैं।
जिन लोगों को धर्म अपनाना था, वे मौन हो गए। उन्हें शब्द अनावश्यक लगने लगे। उन्हें बखान की ज़रूरत ही महसूस न हुई। लेकिन जिन्हें धर्म भुनाना था, उन्होंने शोर मचाना शुरू किया। नारे लगानेवाले और शोर-शराबा करनेवाले लोग धर्म को भुनानेवाले लोग हैं। किसी भी संप्रदाय के प्रवर्तक ने, किसी भी पंथ के उद्घोषक ने किसी को पकड़कर अपने मार्ग से नहीं जोड़ा। उसके आचरण में ऐसा चुम्बक बन गया कि लोग स्वतः ही खिंचे चले आए। महावीर, बुद्ध, नानक, राम, कृष्ण, पैगम्बर, जीसस, परमहंस और विवेकानंद जैसे लोगों ने मुनादी नहीं करवाई कि उनके पंथ पर चलो, उन्होंने तो बस स्वयं चलना शुरू कर दिया। फिर गाँव के गाँव उनके पीछे हो लिये। उन्होंने कोई पोस्टर नहीं छपवाया कि आज यहाँ प्रवचन होगा। वे तो बस, यकायक बोलने लगे होंगे, ख़ुद से बतियाने लगे होंगे। फिर यह होश ही कहाँ होगा कि हज़ारों लोग सुन रहे हैं या दस-बीस। उन्हें किसी को सुनाना ही न था। वे तो बस बतिया रहे थे स्वयं से। उन्होंने किसी को दिखाना थोड़े ही था, वे तो स्वयं को देखने में व्यस्त रहे।
धर्म का नाम लेने पर अधर खिल जाएँ, आँखें चमक उठें, सीना चौड़ा हो; यह तो ठीक है किंतु उसी नाम पर माथे में बल पड़ जाएँ, चेहरे पर चिंता उभर आए तो स्थिति शोचनीय है। अपने धर्म पर अभिमान करना आस्था है किन्तु अन्य धर्मों को अपमानित करना कट्टरता है। त्रिकूट पर्वत पर खच्चर चलाते मुल्ला जी का परिवार एक हिन्दू देवी की आस्था से पलता है। जिस चद्दर पर बिखरे मोती चुन-चुनकर राखियाँ बुनी जाती हैं उन पर कभी-कभी नमाज़ भी पढ़ी जाती है। जिन बगीचों में मज़ारों पर चढ़नेवाले फूल उगते हैं उन्हीं की कुछ क्यारियाँ रामजी की मूर्ति पर चढ़नेवाली मालाएँ भी उगाती हैं।
हैरत की बात ये है कि कर्बला में मुहम्मद का नवासा जिनसे लड़ रहा था, वे लोग हिन्दू नहीं थे और कुरुक्षेत्र में अभिमन्यु जिनसे जूझ रहा था, वे सातों महारथी मुस्लिम नहीं थे। जो पंचवटी से सीता को चुरा ले गया था, वह शैव ब्राह्मण था और जिन्होंने मीरा को विष का प्याला दिया था वे सब हिन्दू राजपूत थे।
सृष्टि के आदि से चलता आया सुर और असुर संग्राम; रामायण काल का शैव-वैष्णव युद्ध; महाभारत काल का कौरव-पाण्डव संग्राम; जैन-बौद्ध; ब्राह्मण-बौद्ध; मौर्य; चोल; मंगोल ये सब तो लगभग एक ही वृक्ष की शाखाएँ थीं। राजपूतों की आपसी लड़ाइयाँ, रजवाड़ों की निजी मुठभेड़ें; इन सबमें धर्म कहाँ और कब जुड़ गया यह बिंदु इतिहास से नदारद है। सेना में लड़नेवाले बेटे धर्म पूछ कर दुश्मन पर गोली नहीं चलाते।
हम यदि अपने सामाजिक व्यवहार को करुणा और मानवता की छलनी से छान लेंगे तो कोई राजनैतिक अवसरवादी हमें इमारतों की जाति के प्रश्न में उलझाकर थाली से नदारद हुई रोटियों के सवाल से विमुख न कर सकेगा।

© चिराग़ जैन

Thursday, October 19, 2017

भारत की पूर्णता

भारत की पूर्णता का भान करने के लिए
वेद की ऋचाओं का सुज्ञान भी ज़रूरी है
मंदिरों की संध्या आरती के सुर मुख्य हैं तो
मस्जिदों से उठती अजान भी ज़रूरी है
कातिक, असौज, माघ, सावन भी अहम हैं
मीठी ईद वाला रमज़ान भी ज़रूरी है
नानक, कबीर, बुद्ध, महावीर, ईसामसीह
राम भी ज़रूरी, रहमान भी ज़रूरी है

मीरा का मुरारी, जसोदा का नंदलाल और
राधिका के सांवरे से कंत भी समान हैं
जन्म से मरण तक कोई-सा भी पंथ रहे
आदि भी समान और अंत भी समान हैं
बैरागी, फ़क़ीर, ब्रह्मचारी, त्यागी, पीर, बाबा
सिद्ध, ऋषि-मुनि, साधु-संत भी समान हैं
यंत्र भी समान, तंत्र-मंत्र भी समान और
भीतर से सारे धर्मग्रंथ भी समान हैं

झाड़-फूंक वाले टोने-टोटके भी अपने हैं
जड़ी-बूटी वाला वो इलाज भी हमारा है
शंख फूंकने से बाँसुरी की तान तक दक्ष
शस्त्र भी हमारा और साज भी हमारा है
शोणित के पान की परंपरा हमारी ही है
क्षमादान करता रिवाज़ भी हमारा है
गंगा जी का तट मणिकर्णिका हमारा ही है
जमुना किनारे बना ताज भी हमारा है

युध्द से विरक्त हो के संत जो बना था वीर
मौर्यवंशी शासक महान भी हमारा है
भोज, अकबर, शेरशाह, रणजीत, हर्ष,
महाराणा, पौरुष, चौहान भी हमारा है
भारतीय दर्शन जान के सुदर्शन
शून्य पे जो बोला था वो ज्ञान भी हमारा है
भारत हमारा, आर्यावर्त भी हमारा ही है
इंडिया हमारा, हिंदुस्तान भी हमारा है

© चिराग़ जैन

Wednesday, October 18, 2017

दीपावली

उत्सव से ऐसे करो, जीवन का शृंगार।
ज्यों मावस की रात में, दीपक का उजियार।।

© चिराग़ जैन

कामना

नभ तक पसरे अंधियारे में
अनहोनी के भय से आगे
आँखों में बस एक सपन है
इस अंधे दुर्दांत तिमिर में
जिसकी किरण उजाला भर दे
वो दीपक मेरा अपना हो

वृक्ष सभी निस्पंद खड़े हों
निविड़ निशा का सन्नाटा हो
श्वानों का मातम सुन-सुनकर
अंतर्मन बैठा जाता हो
देह गलाती शीतलहर में
झींगुर का स्वर दहलाता हो
भयपीड़ित अस्तित्व सहमकर
दम साधे बढ़ता जाता हो
ऐसी कालनिशा से बचकर
शुभ-वेला का इंगित पाकर
श्वासों में उजियार उगाकर
जो जग के जीवन को स्वर दे
वो कलरव मेरा अपना हो

जीवन रेखा लुप्त हुई हो
शनि रेखा कटती जाती हो
गृह-नक्षत्र विरुद्ध खड़े हों
लग्न अशुभ युति दिखलाती हो
शनि-मंगल की युति वक्री हो
चंद्र ग्रहण हो, सूर्य अस्त हो
गुरु-चाण्डाल त्रिकोण स्थित हो
बुध पीड़ित हो, शुक्र त्रस्त हो
कर्मों के फल की चिंता तज
विधिना के लेखे विस्मृत कर
मेरे हित हर नियम भुला कर
जो धरती को अम्बर कर दे
वो ईश्वर मेरा अपना हो

© चिराग़ जैन

Tuesday, October 10, 2017

साँकल फँस गई है

सूर्य चलकर आ गया है देहरी तक
द्वार की साँकल इसी पल फँस गई है
भाग्य सब वैभव लुटाने को खड़ा है
किसलिए मुट्ठी इसी पल कस गई है

रंग-भू पर जब हुआ अपमान, तब ये आस रक्खी
एक दिन रणक्षेत्र में गाण्डीव भी दो टूक होगा
शर बताएंगे कभी जब गोत्र मेरी वीरता का
राजसी वैभव पगा जयघोष उस क्षण मूक होगा
जब समर में सामने है पार्थ मेरे
क्यों उसी पल भूमि ऐसे धँस गई है

क्या करे जीवट अगर हर आस दामन छोड़ जाए
लड़खड़ाती झांझरों का ताल से संबंध क्या है
ताश के घर से कई सपने संजोए पुतलियों में
धैर्य के क्षण का भला भूचाल से संबंध क्या है
ईश जाने कौन-सी दुर्भाग्य रेखा
आज जीवन रेख के संग बस गई है

© चिराग़ जैन

Saturday, October 7, 2017

कन्या कुँवारी

कन्या एक कुँवारी थी
छू लो तो चिंगारी थी
वैसे तेज कटारी थी
लेकिन मन की प्यारी थी
सखियों से बतियाती थी
शोहदों से घबराती थी
मुझसे कुछ शर्माती थी
बस से कॉलेज आती थी
गोरी नर्म रुई थी वो
मानो छुईमुई थी वो
लड़की एक जादुई थी वो
बिल्कुल ऊई-ऊई थी वो

अंतर्मन डिस्क्लोज किया
इक दिन उसे प्रपोज किया
तबीयत सी नासाज हुई
वो पहले नाराज हुई
फिर बोली ये ठीक नहीं
अपनी ऐसी लीक नहीं
पढ़ने-लिखने के दिन हैं
आगे बढ़ने के दिन है
ये बातें फिर कर लेंगे
इश्क-मुहब्बत पढ़ लेंगे
अभी न मन को हीट करो
एमए तो कंप्लीट करो

उसने यूँ रिस्पांड किया
प्रोपोजल पोस्टपोंड किया
हमसे हिम्मत नहीं हरी
मन में ऊर्जा नई भरी
रात-रात भर पढ़ पढ़ के
नई इबारत गढ़ गढ़ के
ऐसा सबको शॉक दिया
मैंने कॉलेज टॉप किया

अब तो मूड सुहाना था
अब उसने मन जाना था
लेकिन राग पुराना था
फिर एक नया बहाना था
जॉब करो कोई ढंग की
फिर स्टेटस की नौटंकी
कभी कास्ट का पेंच फँसा
कभी बाप को नहीं जँचा

थककर रोज झमेले में
नौचंदी के मेले में
इक दिन जी कैड़ा करके
कहा उसे यूँ जाकर के
जो कह दोगी कर लूंगा
कहो हिमालय चढ़ लूंगा
लेकिन किलियर बात करो
ऐसे ना जज्बात हरो
या तो अब तुम हाँ कर दो
या फिर साफ मना कर दो

सुनकर कन्या मौन हुई
हर चालाकी गौण हुई
तभी नया छल कर लाई
आँख में आँसू भर लाई
हिम्मत को कर ढेर गई
प्रण पर आँसू फेर गई

पुनः प्रपोजल बीट हुआ
नखरा नया रिपीट हुआ
थोड़ा सा तो वेट करो
पहले पतला पेट करो
जॉइन कोई जिम कर लो
तोंद जरा सी डिम कर लो
खुश्बू सी खिल जाऊंगी
मैं तुमको मिल जाऊंगी

तीन साल का वादा कर
निज क्षमता से ज्यादा कर
हीरो जैसी बॉडी से
डैशिंग वाले रोडी से
बेहतर फिजिक बना ना लूँ
छः छः पैक्स बना ना लूँ
तुझको नहीं सताऊंगा
सूरत नहीं दिखाऊंगा
रात और दिन श्रम करके
खाना-पीना कम करके
रूखी-सूखी खा कर के
सरपट दौड़ लगा करके
सोने सी काया कर ली
फिर मन में ऊर्जा भर ली

उसे ढूंढने निकल पड़ा
किन्तु प्रेम में खलल पड़ा
किसी और के छल्ले में
चुन्नी बांध पुछल्ले में
वो जूही की कली गई
किसी और की गली गई
शादी करके चली गई
हाय री किस्मत छली गई

थका-थका हारा हारा
मैं बदकिस्मत बेचारा
पल में दुनिया घूम लिया
हर फंदे पर लूम लिया
अपने आँसू पोछूँगा
कभी मिली तो पूछूंगा
क्यों मेरा दिल तोड़ गई
प्यार जता कर छोड़ गई

कुछ दिन बाद दिखाई दी
वो आवाज सुनाई दी
छोड़ा था नौचंदी में
पाई सब्जी मंडी में
कैसा घूमा लूप सुनो
उसका अनुपम रूप सुनो
वो जो एक छरहरी थी
कंचन देह सुनहरी थी
अब दो की महतारी थी
तीजे की तैयारी थी
फूले-फूले गाल हुए
उलझे-बिखरे बाल हुए
इन बेढंगे हालों ने
दिल के फूटे छालों ने
सपनों में विष घोला था
एक हाथ में झोला था
एक हाथ में मूली थी
खुद भी फूली फूली थी
सब सुंदरता लूली थी
आशा फाँसी झूली थी

वो जो चहका करती थी
हर पल महका करती थी
हिरनी बनी विचरती थी
खुल्ला खर्चा करती थी
वो कितनी लिजलिजी मिली
बारगेनिंग में बिजी मिली

धड़कन थाम निराशा से
गिरकर धाम हताशा से
विधिना के ये खेल कड़े
देख रहा था खड़े खड़े
तभी अचानक सधे हुए
दो बच्चों से लदे हुए
चिकचिक से कुछ थके हुए
बाल वाल भी पके हुए
इक अंकल जी प्रकट हुए
दर्शन इतने विकट हुए
बावन इंची कमरा था
इसी कली का भ्रमरा था

तूफानों ने पाला था
मुझसे ज्यादा काला था
मुझसे अधिक उदास था वो
केवल दसवीं पास था वो
ठगा हुआ सा ठिठक गया
खून के आंसू छिटक गया
रानी साथ मदारी के
फूटे भाग बिचारी के
घूरे मेला लूट गए
तितली के पर टूट गए
रचा स्वयंवर वीरों का
मंडप मांडा जीरो का
गरम तवे पर फैल गई
किस खूसट की गैल गई

बिना मिले वापस आया
कई दिनों तक पछताया
अब भी अक्सर रातों में
कुछ गहरे जज्बातों में
पिछली यादें ढोता हूँ
सबसे छुपकर रोता हूँ
मुझमें क्या कम था ईश्वर
किस्मत में गम था ईश्वर
भाग्य इसी को कहते हैं
अब भी आँसू बहते हैं

© चिराग़ जैन

Friday, September 29, 2017

दीवारों के कान

शायद लफ़्ज़ों के ही पर हों
दीवारों के कान नहीं हैं

© चिराग़ जैन

देवता बहरा हुआ है

पूजने वाले का संकट और भी गहरा हुआ है
जब से वेदी पर विराजा, देवता बहरा हुआ है

हम अभागों के दुखों को देखकर रोया कभी जो
क्रांति की ज्वाला जगा कर फिर नहीं सोया कभी जो
ईश जाने उस हृदय पर कौन सा पहरा हुआ है
जब से वेदी पर विराजा, देवता बहरा हुआ है

आज तक जिसने सभी के पाँव से काँटे निकाले
और सब आदेश भूखों के लिए खुद फूंक डाले
अन्न का वितरण उसी के हुक्म पर ठहरा हुआ है
जब से वेदी पर विराजा, देवता बहरा हुआ है

खून की परवाह तजने का सबक दे साथियों को
वो बताता था कि तोड़ेगा बरसती लाठियों को
आजकल लाठी पे कपड़ा खून का फहरा हुआ है
जब से वेदी पर विराजा देवता बहरा हुआ है

© चिराग़ जैन

Thursday, September 28, 2017

कविकर्म

कभी हिचकी, कभी आँसू, कभी मुस्कान बाँटेंगे
अना, उम्मीद, नेकी, हिम्मत-ओ-अरमान बाँटेंगे
कभी शब्दों का मरहम इश्क के घावों पे रखेंगे
कभी नफरत को चैनो-अम्न का सामान बाँटेंगे

© चिराग़ जैन

Wednesday, September 27, 2017

बलात्कार

फिर से एक प्रश्न पर
अटक गये हैं मिस्टर यक्ष; 
कि सामान्यतया 
बलात्कार के होते हैं दो पक्ष। 

एक बलात्कारी, 
जो बलात्कार करता है, 
और एक बलात्कृता 
जिसका बलात्कार होता है। 

पहला पक्ष 
यानि बलात्कारी 
एक से लेकर 
दस-बीस तक हो सकते हैं 
अपनी संख्या 
और बलात्कृता की लाचारी के अनुपात में 
ये लोग 
बलात्कार की सिचुएशन को 
कुछ मिनिटों, 
कुछ घंटों, 
कुछ दिनों 
और कुछ वर्षों तक 
ढो सकते हैं। 

यहाँ तक तो बात है बिल्कुल साफ़ 
लेकिन प्रश्न ये है 
कि बलात्कार की सिचुएशन में 
किसको कहा जाता है इंसाफ़! 

जिसका हुआ है बलात्कार 
उसका न कोई मुक़द्दमा 
न कोई एफ़ आई आर 
न कोई तारीख़ 
न कोई सुनवाई 
...सीधी फ़ाइनल कार्रवाई 

टिमटिमाते हुए बुझ जाती है 
जीवन की ज्योत 
उसके हिस्से आती है सज़ा-ए-मौत। 

और जिसने किया है ये दुराचार 
उसको 
पहले तो पुलिस प्रोटेक्शन देती है सरकार 
फिर पुलिस के सामने 
सेलिब्रिटी की मुद्रा में बैठता है वो ढीठ 
और उससे पूछ-पूछ कर पुलिस बनाती है चार्जशीट। 

फिर अदालत, तारीख़ और जाँच 
तब तक ठंडी हो चुकी होती है 
पीड़ित लड़की की चिता की आँच। 

फिर सही और ग़लत की खेंचम-खेंच 
फिर क़ानून की ऊँची अदालतों के पेंच 
जैसे-तैसे फाँसी तक पहुँचती है सरकार 
तब तक सामने आ जाते हैं 
दोषियों के मानवाधिकार। 

कुल मिलाकर कैंसिल हो जाता है फाँसी का प्लान 
कोई नहीं लेता फ़ैसले का संज्ञान 
बार बार दोहराया जाता है यही स्टाइल 
हर बार इसी तरह बंद हो जाती है 
बलात्कार की फ़ाइल। 

इस यक्ष प्रश्न पर सारा समाज मौन है 
यक्ष समझ नहीं पा रहा है 
कि सभ्य क़ानून की निगाह में 
बलात्कार का असली दोषी कौन है। 

© चिराग़ जैन

स्त्री-समर्पण

जब कभी
अपनी परेशानी की लेकर आड़
मैं तुमको बहुत मजबूर करता हूँ
कि तुम अपने सभी कष्टों को पल में भूल जाओ
और मेरी हर समस्या को बड़ा समझो!
हर बार झुंझला कर सही
पर मान लेती हो मेरी हर बात
ऐसा भला क्या खास है मुझमें
भला हर बार ऐसे क्यों पिघल जाती हो तुम?
जब कभी
अपने किसी आलस्य पर पर्दा किये
बीमारियों का, मूड का या काम का
मैं डाल देता हूँ तुम्हारे सिर
सदा हर एक लापरवाही अपनी
इन सभी अय्यारियों को जानकर भी
क्यों, भला किस बात से मजबूर हो
मेरे उन्हीं झूठे बहानों से
(जो तुम्हें अब तक यकीनन रट चुके हैं)
क्यों बहल जाती हो तुम?
सच बताऊँ
तुम ही हो
जो प्यार के कोरे छलावे में
निभाए जा रही हो
इस अभागे एक रिश्ते को
जहाँ उस प्यार की हर लाश
जल कर बुझ चुकी है
बह चुकी है भस्म भी उसकी
किसी उफनी नदी की बाढ़ में।
और तुम अब तक
उसी ठंडी लपट में जल रही हो,
मूर्ख हो शायद
जो इक अंधे सफर पर चल रही हो!
सच बताऊँ
मैं अगर होता तुम्हारी ही जगह पर
तो तुम्हें अब तक कभी का छोड़ देता!

© चिराग़ जैन

सोच बड़ी कर ले

बिन मतलब के लड़ना छोड़
अड़ना और अकड़ना छोड़
या तो सोच बड़ी कर ले
या फिर लिखना-पढ़ना छोड़

© चिराग़ जैन

Monday, September 25, 2017

छेड़छाड़ का विरोध

दिल्ली और मुम्बई जैसे शहरों को पूरे देश का सेम्पल मानने की चूक सही नीतियों के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है। जेएनयू, जामिया और डीयू में किसी लड़की को राह चलते परेशान करना या छेड़ना किसी मनचले के लिए महंगा पड़ सकता है लेकिन कानपुर, इलाहाबाद, पटना, बनारस, लखनऊ जैसे शहरों में स्थिति ऐसी नहीं है। इन विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने वाली लड़कियाँ छोटे शहरों, कस्बों और गाँव से आती हैं जहाँ ‘आज भी’ जागरूकता का आलम यह है कि छेड़छाड़ के किसी मुआमले की नुक्कड़-सभाओं में लड़कियों को ही दोषी माना जाता है। यदि कहीं कानूनी प्रक्रिया लड़की का पक्ष ले भी ले तो बाद में सामाजिक कानाफूसी से उपजा जनविरोध लड़कियों के लिए किसी प्रताड़ना से कम नहीं होता। यही वह स्थिति है कि कई शताब्दियों तक ‘बदनामी’ से बचने के लिए लड़कियाँ ‘बलात्कार’ के बाद भी थाने जाने से कतराती रहीं। 

दिल्ली जैसे जागरूक शहर में भी आज तक ऐसे मुआमलात खूब होते हैं कि छेड़छाड़ का विरोध करने से पहले लड़की हिचकिचाती है कि लोग उसके बारे में बातें बनानी शुरू न कर दें। 

छोटे शहरों की लड़कियों के मस्तिष्क में उनके माहौल ने यह धारणा बना दी होती है कि वे बड़े शहर की लड़कियों जितनी आधुनिक नहीं हैं इसलिए न तो उनमें लड़कों से बात करने का आत्मविश्वास होता है न ही उनकी बदतमीजी का विरोध करने का। उत्तर प्रदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में पढ़ रही लड़कियों की स्थिति इतनी दयनीय है कि उन्हें अपने हॉस्टल से मेस तक जाने के लिए भी किसी साथिन की जरूरत होती है। बेंच पर दो-चार लड़के बैठे हों और लड़कियाँ वहाँ से गुजरें तो यह मुमकिन नहीं कि उन पर फब्ती न कसी जाए। यदि किसी लड़की का दुपट्टा पेड़ की झाड़ी में अटक जाए तो वह वहां रुक कर उसे निकालने में समय लगाते हुए अश्लील डायलॉग सुनने की अपेक्षा उसे त्याग कर आगे बढ़ जाना उचित समझती है। शाम के बाद तो सड़क पर किसी भी अकेली लड़की का रास्ता रोकने, हाथ पकड़ने, छातियाँ मसलने और किसी भी हद तक बढ़ जाने का अधिकार लड़कों को मिल जाता है। 

इन परिस्थितियों में पढ़ना-लिखना तो दूर, साँस लेना तक कितना दूभर होता होगा इसकी कल्पना करने के लिए कुछ क्षण स्वयं को वहाँ खड़ा करना आवश्यक है। एक लड़का किसी लड़की को दबोच कर चूम ले और फिर रोज शाम अपने दोस्तों के साथ उसकी खामोश लाचारी का जुलूस निकालकर उस पर हँसता हुआ निकले तो कैसा लगता होगा इसका अनुमान लगाना जरूरी है। हॉस्टल के बाथरूम में नहाते हुए किसी लड़की की निगाह ऊपर के झरोखे से टकराए और वहाँ दो आँखें उसे बेशर्मी से टंगी हुई दिखाई दें तो कैसा एहसास होता होगा। 

शिक्षाध्य्यन के समय इन संस्थानों की लड़कियों को यह पहेली भी बूझनी होती है कि इनके सामने से गुजरते हुए बेचारे लड़कों को अपने गुप्तांग खुजाने का नियम क्यों निभाना पड़ता है? 

मैं हमेशा आश्चर्य करता था कि इस दमघोंटू माहौल में रहकर पढ़ना और फिर अपनी काबिलियत सिद्ध करके उन्नति करना कितना मुश्किल होता होगा। इन छोटे शहरों की लड़कियों का चेहरा अपने ध्यान में लाकर एक बार हम सबको यह प्रश्न स्वयं से करना चाहिए कि इन मासूम परियों को हमने कितनी मुसीबत में डाल दिया है? हमें सोचना चाहिए कि इतनी सारी जिल्लत सहकर भी मौन रहने की इनकी विवशता हमारी कौन सी परंपराओं और संस्कारों के सम्मिलन से जन्मी है? 

पहली बार इन डरी हुई बच्चियों ने इस देश के प्रशासन को अभिभावक समझ कर इन हरकतों की शिकायत की है। इन्हें फटकार लगाकर चुप रहने को न कहें। इनके साथ वह सुलूक न करें जो अब तक इनके माता-पिता करते आए हैं। इनके साथ मारपीट न करें हुजूर, सच मानिए, इन्हें किसी लड़के ने छेड़ा इसमें इनका कोई कुसूर नहीं है। 

बेटियों को बचाने की जिम्मेदारी प्रशासन उठा ले तो बेटियों को पढ़ाने में किसी परिवार में हिचक न होगी। एक बात और, ये सब लड़कियाँ किसी और मुल्क से भागकर आईं शरणार्थी नहीं हैं, ये हमारे आंगन में गूंजी वही किलकारियां हैं जिनका आकर्षण हमें दफ्तर से घर लौटने के लिए बेताब कर देता है। 

© चिराग़ जैन

वाराणसी विश्वविद्यालय में लड़कियों की सुरक्षा की मांग के संदर्भ में।

Thursday, September 21, 2017

मीडिया

मीडिया "वाच डॉग" के रूप में जन्मा था लेकिन "पैट पप्पी" बन कर मर रहा है।

✍️ चिराग़ जैन

Wednesday, September 20, 2017

आयुध पूजन

जब भी आयुध पर अहंकार की परत चढ़ी इतिहासों में
तब चंद्रहास को रावण-ग्रीवा भेंट मिली है ग्रासों में
जब शास्त्र नीति अनदेखी करके तीर चलाए जाते हैं
तब अर्द्धरात्रि में सोते बच्चे मार गिराए जाते हैं
अविवेक शक्त हो जाए तो, हर रेख लांघता रण होगा
निशस्त्रो की हिंसा होगी, गर्भस्थों का तर्पण होगा
यदि धर्म विफल हो जाएगा, आवेशों को समझाने में
तो द्रोणशिष्य को देर नहीं अश्वत्थामा बन जाने में
ऋषिकुल से जब भी ग्रहण किये दुर्धर्ष शस्त्र रघुबीरों ने
मंत्रों से मन की शुद्धि की ऋषियों ने और फकीरों ने
यह शस्त्र शुद्धि का उपक्रम केवल ढोंग नहीं, आवश्यक है
यह शक्ति-शौर्य को इंगित है कि दुरुपयोग निजघातक है
रण में जब क्रोध चढ़े सिर पर, रणचण्डी तांडव करती हो
जब काल खड़ा गुर्राता हो, जब भू पर मौत विचरती हो
जब युद्ध चरम पर आ पहुँचे, जब तप्त शिराएँ दहती हों
जब शव पर चलना पड़ता हो, जब रक्त तटीना बहती हो
जब भले बुरे का भान न हो, जब नेत्र बड़े हो जाते हों
जब जबड़े भिंचने लगते हों, जब रोम खड़े हो जाते हों
जब अपने घावों की पीड़ा का ध्यान न हो, आभास न हो
जब महासमर में ध्वंस मचाने में कोई संत्रास न हो
जब हृदय शून्य हो जाता हो, मस्तिष्क गौण हो जाता हो
जब देह शेष रह जाती हो, कारुण्य मौन हो जाता हो
जब क्रोध धधकता हो भीषण, सारा विवेक खो जाता हो
वैरी का लोहू पी पी कर, जब नर पिशाच हो जाता हो
ऐसे आवेगुद्वेगों में संयत रहने का ध्यान रहे
विध्वंस मचाने से पहले मानवता का कुछ भान रहे
शर का संधान करे उस क्षण, तब नयन निमीलित हो जाएं
आक्रोश, क्रोध, आवेश, ध्वंस इक क्षण को कीलित हो जाएं
गाण्डीव उठाए जब अर्जुन, उस पल उसको यह भास रहे
छूटा शर लौट न पाएगा, बस इतना भर अहसास रहे
दिव्यास्त्र साधने से पहले, योधा पल भर यह ध्यान धरे
क्या यह क्षण टल भी सकता है, इसका उत्तर अनुमान करे
झंझा के तेज झखोरे में, अंतर दीपक को आड़ मिले
हिंसा से घिरते चेतन को, सतपथ का एक किवाड़ मिले
इस हेतु दहकते शोलों पर, थोड़ी बौछार जरूरी है
इस हेतु शस्त्र संधान समय में मंत्रोच्चार जरूरी है

© चिराग़ जैन

Tuesday, September 19, 2017

सामाजिक जीवन का मूल्य

रामायण के राम से ही यह सिलसिला प्रारम्भ हो गया था कि सामाजिक जीवन जीने के लिए व्यक्तिगत जीवन की बलि चढ़ानी होगी। कबीर ने इस बात को बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में कहा कि जो घर जारै आपना, चले हमारे साथ। सामाजिक जीवन की अपेक्षा होती है कि मनुष्य 24 में से 48 घंटे काम करे। ऐसे में जाने-अनजाने परिवार के लोगों का समय चोरी किया जाता है।
कभी-कभी यह प्रश्न मन को व्यथित करता है कि व्यष्टि की अनदेखी कर समष्टि को प्राथमिकता देनेवाले मनुष्यों के एकाकीपन का मोल कैसे चुकाया जाए? राम की पीर, बाबा तुलसी ने कही भर है किंतु उस पीड़ा को भोगने की कल्पना भी मन में सिहरन पैदा करती है। उधर कृष्ण जनहित में जारी हुए, तो जन्म से ही जन्मदात्री ने छोड़ दिया, यौवन में प्रेम छूट गया और पालनेवाली माँ की गोदी छूट गई। परिस्थितियों ने कृष्ण को इतना निष्ठुर बना दिया कि महाभारत के युद्ध में अभिमन्यु, घटोत्कच्छ और यहाँ तक कि कर्ण और भीष्म तक कि मृत्यु पर भी समाज के हित को सर्वाेपरि रख स्थितप्रज्ञ बने रहे।
गंगापुत्र भीष्म, गौतम बुद्ध, कबीर, अशोक महान, पन्ना धाय, बिनोवा भावे, केशव बलिराम हेडगेवार, महात्मा गांधी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, गुरु गोलवलकर, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, इंदिरा गांधी, किरण बेदी, एपीजे कलाम, अटल बिहारी वाजपेयी तक ऐसे हजारों व्यक्तित्व हैं जिनमें से कुछ ने पारिवारिक सुविधाओं को त्याग करके सामाजिक जीवन जीना शुरू किया तो कुछ ने सामाजिक जीवन में उतरकर पारिवारिक सुख त्याग दिए।
गुरु सिख परंपरा, सनातन संत समाज, जैन संत, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक वृन्द, सीमाओं पर खड़े वीर जवान और बड़े पदों पर बैठे अफसर -ये सब वर्ग या तो अपने परिवार बसाते ही नहीं, बसाते हैं तो अपने दायित्वों के निर्वहन में परिवार की अनदेखी करते हैं और अंततः पारिवारिक सुखों से वंचित हो जाते हैं। पत्रकारिता, चिकित्सा, विज्ञान, विधि, अभियांत्रिकी, शोध, कला, राजनीति और रक्षण से जुड़े लोगों के जीवन में यह परिस्थिति कमोबेश होती ही है।
कहानियाँ सुनकर बहुत आसान लगता है किंतु एक बार यह अनुभूत करके देखें कि अपनों के अपनत्व का मूल्य चुकाकर समाज और मानवता की सेवा करनेवाले लोगों से उऋण होना लगभग असंभव है। वैचारिक मतभेद और निजि पसंद-नापसंद के कारण हम इन सब लोगों के सामाजिक योगदान की आलोचना कर सकते हैं, इन लोगों की आर्थिक स्थितियों से हम ईर्ष्या रख सकते हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन सबके पास समाज से प्राप्त सुविधाएँ ज़रूर हैं लेकिन अपनों से मिलनेवाले सुख का सर्वथा अभाव है।
हम कई सदियों से ऐसे लोगों को आदर और निरादर की सौगात देते रहे हैं लेकिन इन लोगों की निष्ठा को प्यार से हम कभी नहीं नवाज़ सके और यही कारण है कि समाज के लिए सर्वस्व स्वाहा करनेवाले इन योगियों के जीवन में हम अपनत्व का एक भी पल नहीं सजा सके।

© चिराग़ जैन

Tuesday, September 12, 2017

दिन निकलेगा

रात कटेगी, दिन निकलेगा
यह क्रम तो निर्धारित ही है
दिन इक दिन मुझ बिन निकलेगा
यह अनुमोदन पारित ही है

मैं इस भ्रम में जूझ रहा हूँ
मुझसे ही सब काज सधेंगे
पर दुनिया के लोग मुझे भी
दो ही दिन में बिसरा देंगे
विस्मृतियों के वरदानों पर
यह दुनिया आधारित ही है

चाहत, सपना, डर, उम्मीदें
प्रेम, प्रयास, प्रथा, यश-वैभव,
गर्व, विनय, संबंध, सृजन, सुख
हर्ष, विजय, सम्मान, पराभव
इन सब आभासी शब्दों पर
सृष्टि कथा विस्तारित ही है

© चिराग़ जैन

Thursday, September 7, 2017

सूचना पट्ट से झाँकती सभ्यता

यदि आवश्यकता आविष्कार की जननी है तो दीवारों पर लिखी हिदायतें हमारी बुरी आदतों का आईना हैं।
कल्पना करें तो शायद हम समझ पाएंगे कि अपने सपनों के घर की खूबसूरत दीवार पर तारकोल से ‘गधे के पूत, यहाँ मत मूत’ लिखनेवाला आदमी किस हद तक परेशान हुआ होगा। यत्र-तत्र-सर्वत्र मूत्रत्याग करने वाले निष्ठावान नागरिकों को रोकने की दिशा में पट्ट-लेखकों ने काफी विकास किया है। ‘देखो गधा पेशाब कर रहा है’; ‘यहाँ मूतने वाले तेरी माँ की.....’ और ‘यह मंदिर की दीवार है कृपया यहाँ मूत्रत्याग न करें’ जैसे बहुभाषी ग्रंथों से मूत्रसाधकों को सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं हो सका तब ‘एक चित्र सौ शब्दों के समान होता है’ का अनुसरण करते हुए हमने मूत्रनीय दीवारों पर ईश्वर के विराट रूप की छोटी-छोटी टाइल्स लगवा दीं। किन्तु इतने पर भी मूत्रत्यागकर्ताओं ने हार न मानी और वे अपने पूज्य देव को बचाकर अन्य दीवारों पर कार्य निष्पादन करते रहे। साईं बाबा के भक्त को हिंदू देवताओं की तस्वीर न रोक सकी और घोर रामभक्त ने साईं बाबा की परवाह नहीं की। वैष्णव, शाक्त, शैव और न जाने क्या-क्या बहाने बनाकर साधकों ने भक्तिप्रवाह का उपाय खोज ही लिया। अंततः सभी देवताओं ने मीटिंग करके एक साथ एक ही दीवार पर चिपकना स्वीकार किया तब कहीं कुछेक दीवारों के भूमिगत जल में मूत्र संवर्द्धन बन्द हुआ।
विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता का दावा करनेवाले हम लोग कितने सभ्य रहे होंगे इसके प्रमाण-पत्र पूरे देश में हिदायती सूचना-पट्टों पर शान से चिपके हुए हैं। कितने फख्र की बात है कि हमें डायरेक्टली ‘बेहया’ कहनेवाले वाक्य भी अपनी विनम्रता नहीं छोड़ते और सम्मानपूर्वक हमें लताड़ते हुए लिखते हैं- ‘कृपया पान की पीक यहाँ न थूकें।’ हम इस सम्मान से गद्गद हो उठते हैं और आभार ज्ञापन करते हुए उस इबारत पर अपने मुखारविंद से पीक अर्पण कर आगे बढ़ जाते हैं।
रेल के टॉयलेट में मग्गे से बंधी ज़ंजीर हमारी आदतों के गले में पहनाई गई स्वर्णकड़ी जैसी भूमिका निभाती है।
आज्ञाकारी हम इतने हैं कि हर बात बोर्ड पर लिखकर समझाई जाती है। ‘कृपया यहाँ न थूकें’ और ‘गंदगी न फैलाएँ’ जैसे सूचना पट्ट हमारी आदतों के गौरवशाली इतिहास की झलक दिखाते हैं। ‘कूड़ा कूड़ेदान में ही डालें’, ‘फाटक बंद हो तो लाइन पार न करें’, ‘ट्रांसफार्मर के आसपास पेशाब करना जानलेवा हो सकता है’ और ‘कृपया लाइन न तोड़ें’ जैसे प्रशासनिक वाक्यों के अतिरिक्त निजी क्षेत्र में भी सूचनाओं का विपुल भंडार है। ‘जगह मिलने पर साइड दी जाएगी’, ‘जिनको जल्दी थी वो चले गए’, ‘उड़ के जावेगा के’, ‘कुत्ता भी बिना वजह नहीं भौंकता’ और ‘सड़क तेरे बाप की है क्या बे’ -जैसे वाक्य हमारे ट्रैफिक सेंस की गौरवगाथा के स्वर्णिम अध्याय हैं।
‘मतदान अवश्य करें’, ‘राष्ट्र की संपत्ति को नुकसान न पहुँचाएँ’, ‘बस की सीट न फाड़ें’, ‘सीढ़ियों पर न बैठें’, ‘रिश्वत न लें, न दें’, ‘दलालों से सावधान’, ‘जेबकतरों से सावधान’ या ‘लेडीज सीट पर न बैठें’ और ‘बंदरों को न छेड़ें’ जैसे वाक्यों में सजा भारतीय लोकतंत्र पूरी दुनिया की चित्र प्रदर्शनियों में दमकता है, तो हमारा गौरवशाली इतिहास और भी प्रखर हो उठता है।
‘कृपया अस्पताल में शोर न करें’ और ‘एम्बुलेंस को रास्ता दें’ जैसे लौकिक मानवीय आदेशों से लेकर ‘जलती चिता में कचरा न डालें’ जैसे पारलौकिक सूचना पट्टों ने हमारी संवेदनाओं की हकीकत चेहरे पर जो श्रृंगार किया है उसे धोने के लिए पानी नहीं आँसुओं की ज़रूरत है।

© चिराग़ जैन

Tuesday, September 5, 2017

जनता की ज़िम्मेदारी

आप रेडलाइट पर खड़े हैं अचानक आपके पीछे कोई हॉर्न बजाने लगता है। उसको इस बात पर आश्चर्य है कि जब कोई पुलिसवाला नहीं खड़ा तो आप रेडलाइट का सम्मान क्यों कर रहे हो? आप बाजार से गुज़रते हैं। बीच सड़क पर कोई स्कूटर पार्क कर गया है। सारा ट्रैफिक रुक गया है। सबको परेशानी हो रही है। दस-पंद्रह मिनिट बाद स्कूटर का मालिक बेशर्मी से फोन कान पर लगाए आता है और स्कूटर स्टार्ट करके निकल जाता है। 

सब लोग "उसके जाने के बाद" कुछ अपशब्द टाइप बड़बड़ाते हुए अपने-अपने रास्ते चले जाते हैं। नो पार्किंग के बोर्ड के ठीक नीचे पार्किंग करने वाले लोग; नो राइट टर्न से दाएं मुड़ने वाले लोग; यू-टर्न को ब्लॉक करने वाले लोग; पार्क के बेंच पर च्विंगम चिपकाने वाले लोग; बस की सीट फाड़ने वाले लोग; पैट्रोल पम्प पर पेट्रोल चुराने वाले लोग; अपने दूर के रिश्तेदार की पहुँच पर इतराने वाले लोग; चौराहों पर भीख देने वाले लोग; आसाराम की रिहाई के लिए जंतर-मंतर पर धरना देने वाले लोग; रेल लाइनों पर गंदगी फेंकते लोग; बिजली-पानी की चोरी करते लोग; रामपाल के लिए सेना को पथराने वाले लोग; रामवृक्ष के लिए पुलिस को दबोचने वाले लोग; रामरहीम के लिए देश जलाने वाले लोग और माँ की कसम देकर मेसेज फारवर्ड करने वाले लोग ....इन्हीं सब लोगों से मिलकर हमारे देश की जो तस्वीर बनती है उसमें सरकारी योगदान अथवा निकम्मेपन की कोई भूमिका नज़र तो नहीं आती लेकिन फिर भी हम अपने हर सामाजिक व नैतिक अपराध को सरकार तथा सिस्टम की ओट लेकर छुपा देने के अभ्यस्त हो गए हैं। 

मैं सरकार और सिस्टम की तरफदारी या विरोध न करके केवल इतना भर सोचना चाहता हूँ कि जो सुई पिछले सात दशक से सिस्टम की ख़राबी पर अटकी है उसे एक बार जनता की अथक ईमानदारी से आगे क्यों नहीं बढ़ाया जा सकता! क्या आवश्यक है कि बर्बरीक बनकर इस देश की महाभारत को एकटक निहारते रहा जाए और हर मृत जयद्रथ तथा अभिमन्यु को वीरता के ख़िताब की डुगडुगी थमाकर उससे निंदा का रस प्राप्त किया जाए? 

क्या एक सप्ताह मात्र के लिए हम यह प्रयोग नहीं कर सकते कि सरकारी नीतियों के उलाहनों को छोड़कर हम आत्म अनुशासन से इस देश की छोटी छोटी समस्याओं को बढ़ने से रोक पाएं। क्या अपने बच्चों को कल सड़क पर बेहिचक चलने देने के लिए आज हम अपनी गाड़ी थोड़ी दबा कर पार्क नहीं कर सकते? क्या कल अपनी बिटिया के निडर जीने की सुविधा देने के लिए आज अपने बेटों को संस्कार का छोटा-सा पाठ नहीं पढ़ा सकते। क्या कल अपने देश पर फख्र करने के लिए आज अपने आलस्य व प्रमाद का त्याग नहीं कर सकते? क्या हम देश को बदलने की ख़्वाहिश के लिए अपनी आदतों को सुधारने की कोशिश नही कर सकते!!! 

© चिराग़ जैन

Friday, September 1, 2017

कबिरा इन द मार्केट

कबिरा लुकाठी लेकर बाज़ार की ओर गया। उसे देखकर अपना घर फूँकने को प्रेरित हुए कुछ नवयुवक उसके साथ हो लिए। बीच बाज़ार खड़े होकर कबिरा ने लड़कों से पूछा- ‘बॉयज़, आर यू रेडी टू सेट फायर ऑन योर ओन हाउस?’
लड़के जोश में आकर बोले- ‘यस सर!’
कबिरा बोला- ‘ओके, गेट रेडी विद योर लुकाठी।’
लड़के निराश होकर बोले- ‘बट वी डोंट हेव लुकाठी विद अस!’
कबिरा मुस्कुराहट छुपाते हुए बोला- ‘डोंट वरी जेंटलमेन, आई विल अरेंज अ हॉट लुकाठी फ़ॉर यू।’
लड़के कृतार्थ भाव से बोले- ‘सो नाइस ऑफ यू सर!’
‘बट इट विल कॉस्ट फाइव हंड्रेड रूपीज़ ईच।’ -कबिरा ने मौके पर चौका मारा।
कबिरा ने पाँच-पाँच सौ रुपये सबसे ऐंठे। फिर सबके हाथ में लुकाठियाँ थमाकर अपने घर चला गया और अपने एसी बेडरूम में लेटकर ‘हाउस बर्निंग शो’ का लाइव टेलीकास्ट देखता-देखता सो गया।
© चिराग़ जैन

Wednesday, August 30, 2017

कवि-सम्मेलनों का स्तर

हिंदी की साहित्यिक गोष्ठियों में यह प्रश्न अक्सर चर्चा का विषय बनता है कि कवि-सम्मेलनों का स्तर गिर रहा है। मंच पर फूहड़ता बढ़ रही है। चुटकुलेबाज़ ख़ुद को कवि कहने लगे हैं। लफ़्फ़ाज़ी और बकवास करके श्रोताओं का समय नष्ट किया जाता है। वही पुरानी कविताएँ सुनाकर मोटे लिफाफे लेने का चलन बढ़ गया है। कविता के धंधेबाज़ों ने मंच को बर्बाद कर दिया है, इत्यादि। 

वैष्णोदेवी में कभी एक पहाड़ी जंगल को लांघ कर तीन पिंडियों के दर्शन किये जाते थे। उस समय निष्ठावान पुजारी तमाम कष्ट सहकर पिंडियों की सेवा करने जाता था। फिर वहाँ दुर्गम मार्ग की जगह एक सड़क बन गई। उस सड़क पर चलकर खोमचे तीर्थ तक पहुंच गए। फिर लोग घूमने-फिरने के लिए वैष्णोदेवी जाने लगे। फिर लोग पिकनिक मनाने वैष्णोदेवी जाने लगे। फिर लोग हनीमून मनाने वैष्णोदेवी जाने लगे। लेकिन इस स्थिति में भी आस्थावान पुजारी ने कभी पिंडियों को गाली नहीं दी। 

उस पुजारी की पीढियां चुक गई किन्तु पिंडियों की आराधना एक दिन भी नहीं रुकी। हिंदी काव्य मंचों पर बढ़ रही विकृतियों के नाम पर कुल कवि सम्मेलनों को फूहड़ कह देना ऐसा ही है ज्यों तीर्थक्षेत्र पर खोमचे की गंदगी देखकर ईश्वर की मूर्ति के प्रति निष्ठा समाप्त हो जाए। 

हिंदी की लोकप्रियता में इज़ाफ़ा करने वाले कवि सम्मेलनों को उन आस्थावान पुजारियों की ज़रूरत है जो किसी भी स्थिति में अपने ईश्वर के प्रति अपना समर्पण कम न होने दें। तीर्थयात्रियों की हरक़तों से रुष्ट होकर मंदिर की इमारत पर कालिख़ पोतना कहाँ तक नैतिक है? जब मंदिर की ओर जाने वाले रास्ते पर पहला खोमचा जमा था उस समय पुजारी किस उपक्रम में व्यस्त थे? जब पवित्र तीर्थ की जड़ में हनीमून पैकेज वाला होटल खुला था तब पुजारी किस खोह में घुसकर तपस्या कर रहे थे? 

खुसर-पुसर को "परिचर्चा" कहने वाले बुद्धिजीवियों को मंच की उठा-पटक से ऐतराज़ है लेकिन सम्मानों और पुरस्कारों पर होने वाले जुगाड़ उनकी दृष्टि में अपराध नहीं है। यदि किसी योग्य मेधावी ने परिवेश से परेशान होकर स्थान छोड़ा है तो ऐसा करके उसने किसी अयोग्य के लिए अवसर निर्माण करने का अपराध किया है। 

© चिराग़ जैन

Monday, August 28, 2017

बच सकते हैं तो बच लें

बधाई हो! 
एक बार फिर हमें धर्म के कपड़े उतारने का मौक़ा मिला है। इस बार हमाम में हिन्दू धर्म खड़ा है। कीचड़ का एक थेपा कोई हिंदू संतों पर फेंकेगा तो बदले में हिन्दू लोग भर-भर बाल्टी कीचड़ पादरियों और मौलवियों के थोबड़े पर दे मारेंगे। बाबागिरी की आड़ में अय्याशी कर रहा कोई कुकर्मी नंगा हुआ तो हमने सभी संतों को कठघरे में खड़ा कर दिया। 

सामान्यीकरण की यही आदत हमें सामाजिक कुरीतियों से दूर नहीं होने देती। आसाराम गिरफ्तार हुए और हम हिंदुओं को चिढा-चिढ़ाकर नाचने लगे। इमाम बुख़ारी के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज हुई और हम मुसलमानों को गालियाँ बकने लगे। साध्वी प्रज्ञा पर आरोप तय हुए और हम सभी हिंदुओं को आतंकवादी सिद्ध करने पर तुल गए। अफजल को फाँसी हुई और हमने हर मुसलमान को आतंकी मान लिया। एक भिंडरवाला अपराध कर के भागा और हमने हर सरदार को ज़िंदा जला देने की कसम उठा ली। 

इस जल्दबाज़ी में हम यह समझ ही नहीं पाते कि किसी एक डेरे के सेम्पल से पूरी सिख परंपरा का चरित्र नहीं समझा जा सकता। दो जैनियों के हवाला में लिप्त होने से पूरा जैन समाज चोर सिद्ध नहीं होता। ठीक वैसे ही ज्यों एक अम्बेडकर के संविधान लिख देने से हर बौद्धिस्ट कानून का ज्ञाता नहीं हो जाएगा। एक उंगली पर गर्म तेल गिर जाए तो पूरे शरीर पर बरनॉल नहीं डाली जाती। रामरहीम एक व्यक्ति है जिसे श्रद्धा की वेदी में बैठाया गया था। अब उसके अपराधों ने उसे आदर की वेदी से उतार कर अपराध के परिणाम तक पहुंचा दिया। 

इससे वेदी बदनाम नहीं होती। कोई विवेकानन्द उस वेदी को छुए बिना ही हज़ारों रामरहीमों की करतूत से अपनी परंपराओं को अनछुआ रखने के लिए पर्याप्त है। घटना विशेष से व्यक्ति के चरित्र का आकलन और व्यक्ति विशेष से पूरी संस्कृति का आकलन एक ऐसा अपराध है जिसे हम युगों-युगों से करते आ रहे हैं। विकास के जो स्वप्न हम देख रहे हैं उसको साकार करने के लिए इस चूक से अपनी पीढ़ियों को मुक्त कराना हमारा दायित्व है। 

© चिराग़ जैन

Saturday, August 26, 2017

रामरहीम की गिरफ्तारी

प्रश्न किसी फैसले में हुई पंद्रह साल की देरी का नहीं है। प्रश्न रामरहीम के समर्थकों की गुंडागर्दी का भी नहीं है। और प्रश्न किसी प्रदेश में जनता की संपत्ति को बर्बाद करने का भी नहीं है। इन सब प्रश्नों के तो हम आदी हो चुके हैं। 
अब सवाल ये है कि जो लोग रामरहीम के समर्थन में इस देश को नेस्तोनाबूद करने का ऐलान कर रहे हैं क्या उन लोगों के कंधों पर हम विकसित भारत का स्वप्न देख सकते हैं। कितनी आश्चर्यजनक घटना है कि जिस लोकतंत्र में सात दशक की सरकारें सबको वोट डालने के लिए प्रेरित नहीं कर पाईं उसी देश में एक व्यक्ति कुल पंद्रह साल के कालखंड में लाखों लोगों को घर-परिवार छोड़ कर मरने-मारने के लिए प्रेरित देता है। 

शर्म की नहीं बल्कि निराश हो जाने वाली बात ये है कि इस देश की न्यायपालिका को इसलिए कठघरे में खड़ा किया जा रहा है कि न्यायालय ने बाबा के लाखों समर्थकों की बात अनसुनी कर दी। 

माननीय न्यायालय यदि देश की संपत्ति के नुकसान की भरपाई बाबा की संपत्ति से करवा सकता है तो जनता के कष्टों की भरपाई बाबा के कष्टों से क्यों नहीं कर सकता। क्यों न हो ऐसा की टीवी स्क्रीन को दो हिस्सों में स्प्लिट करके एक ओर उपद्रवियों की हरकतें और हर हरकत पर बाबा को इलेक्ट्रिक शॉक का दूसरा चित्र हो। 

प्रश्न यह है कि न्यायालय और सीबीआई पर प्रत्यक्ष रूप से सरकार का पिट्ठू होने का आरोप लगता है और लोकतंत्र देखता रहता है। 

प्रश्न यह है कि एहतियातन रास्ते रोके जाएं तो मीडिया इसे सरकार की नाकामी कहता है। रास्ते न रोके जाएँ तो इसे सरकार की लापरवाही कहा जाता है। रामरहीम को हेलीकॉप्टर से ले जाया गया तो इसे वीआईपी ट्रीटमेंट बताया जा रहा है। सड़क से ले जाते तो इसे रोड शो कह दिया जाता। 

प्रश्न यह है कि मीडिया चैनल पर यदि किसी पार्टी का कोई प्रवक्ता किसी रिपोर्टिंग की किसी तथ्यात्मक चूक को सुधारने की सलाह देता है तो एंकर चीख चीख कर उसे जलील करने लगती है और फिर उसकी बात सुने बिना बुलेटिन समाप्त कर देती है। प्रश्न यह है कि जो मीडिया अपनी बुराई सुनने को तैयार नहीं है उसे सबको कठघरे में खड़ा करने का अधिकार कैसे दे दिया गया। 

प्रश्न यह है हुजूर कि विज्ञापनों की कमाई से थालियाँ जुटाने वाले खबरिया चैनलों को इस देश की जनता की बौद्धिक खुराक और जनमत निर्माण का ठेका कैसे दिया जा सकता है? 

और प्रश्न यह भी है साहिब कि जिस देश की जनता मूलभूत सामान्य ज्ञान और सिविक सेंस से भी वंचित है उस देश के विकास का भवन किन हवाई बुनियादों पर खड़ा किया जा सकेगा? प्रश्न यह है कि अच्छे इंजीनियर और अच्छे डॉक्टर बनाने वाले पाठ्यक्रमों में अच्छा नागरिक बनाने का अध्याय' कब जुड़ेगा?

© चिराग़ जैन

Friday, August 18, 2017

भीष्म प्रतिज्ञा का मीडिया ट्रायल

भीष्म ने प्रतिज्ञा ली थी कि जो सिंहासन पर बैठेगा उसमें अपने पिता की छवि देखूंगा। भीष्म लकी थे कि उस दौर में कांग्रेसी और भाजपाई लोग नहीं थे। वरना कोई भी चैनल अपने प्राइम टाइम में विरोधी पार्टी वाले किसी बड़बोले को बुलवाकर भीष्म की प्रतिज्ञा का ऐसा हश्र करता कि भीष्म उसका एक्सप्लेनेशन देने की बजाय इच्छामृत्यु का ऑप्शन सेलेक्ट करना ज़्यादा ईज़ी समझते।

भीष्म की इस प्रतिज्ञा को अवसरवाद का उदाहरण बताकर यह कहा जा सकता था कि यह तो सरासर ओछापन है। चापलूसी की हद है कि जो भी सिंहासन पर बैठेगा उसी को बाप बना लेगा। कोई पात्रा टाइप का प्रवक्ता कहता कि ये तो इनकी पुरानी परंपरा है। इनके पिता ने भी गधे को बाप बनाया था। इनकी दादी ने भी गधे को बाप बनाया था। इनके नाना तो गधे थे ही। ...कैसा दोहरा मापदंड है। गधे को बाप बना सकते हो लेकिन गाय को माता नहीं मान सकते। वाह जी वाह... ये सब नहीं चलेगा।

पूनावाला टाइप कोई प्रवक्ता कह सकता था कि बायलॉजिकली यह पॉसिबल तभी है जब डीएनए सेम हो। भीष्म ने इनडायरेक्टली यह कहा है कि जो सिंहासन पर बैठेगा उसकी शक्ल मेरे पापा से मिलती होगी। यह शुद्ध भाई-भतीजावाद है। बीजेपी हमेशा कांग्रेस को एक परिवार की पार्टी कहती रही है लेकिन बीजेपी में बेटे-बहुओं को आउट ऑफ टर्न आगे लाया जाता रहा है।

सिन्हा साहब संभाले हुए स्वर के साथ कहते महाभारत में ऐसी कोई प्रतिज्ञा का ज़िक्र ही नहीं मिलता। यह प्रतिज्ञा तो मुग़ल काल में बाबर ने ली थी कि वे रामलला के मंदिर में मस्जिद की छवि देखेंगे। इस तथ्य के ठोस प्रमाण मैगस्थनीज़ के यात्रा वृत्तांत में मिलते हैं कि जब वे बुलेट ट्रेन से दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन पर उतरे तो उन्हें प्लेटफॉर्म नंबर 7 से अयोध्या के भव्य राममंदिर का स्वर्ण शिखर दिखाई दिया। 

उधर ओवैसी इस प्रतिज्ञा पर बोलते हुए बताते कि हिन्दू मैरिज एक्ट में अपनी फेयोंसी से अपने वालिद की शादी कराना ग़ैरक़ानूनी है। इसलिए जनाब भीष्म को और उनके वालिद साहब को इस जुर्म के लिए सज़ा होनी चाहिए। मुस्लिम पर्सनल लॉ में इस मुद्दे पर तफसील से साफ किया गया है लेकिन भीष्म क्योंकि हिन्दू हैं इसलिए उन पर मुस्लिम पर्सनल लॉ इम्पलीमेंट नहीं होता।

इन चारों के बयान के बाद बॉय कट हेयर स्टाइल को झटकते हुए एंकर अपना फैसला सुनाती - मतलब साफ है कि भीष्म को सिंहासन पर प्रतिज्ञा नहीं लेनी चाहिए थी। पिता की छवि सिंहासन से सुंदर है। मतलब भीष्म पिता हैं और पितामह भी। इस बुलेटिन में फिलहाल इतना ही देखते रहिये टाइम पास। 

© चिराग़ जैन

Monday, August 14, 2017

गोरखपुर बाल हत्याकांड

इक कमीशनखोर से उसकी कमीशन छीन ली
उसने मासूमों से सारी ऑक्सीजन छीन ली
हाकिमों ने वहशियों के साथ बस इतना किया
दे के उनको ट्रांसफर उनकी डिवीजन छीन ली

© चिराग़ जैन

Sunday, August 13, 2017

जनता की ज़िम्मेदारी

अगर पूरी हक़ीक़त जानने की चाह रखते हो
अमां फिर मुल्क के हालात अख़बारों से मत पूछो
जहाँ तक हो सके हर शख़्स की बढ़कर मदद कीजे
तरक़्क़ी आएगी कैसे? -ये सरकारों से मत पूछो
हमें अब अम्न की बातें महज बकवास लगती हैं
वतन से प्यार करने वालों की खिल्ली उड़ाते हैं
सियासत के नुमाइंदे वतन को खा रहे जमकर
कभी मुम्बई निगलते हैं, कभी दिल्ली उड़ाते हैं
हमारी फ़िक्र घुटकर रह गई है एक बुलेटिन तक
बसों में वक़्त कटने के लिए बातें भी करते हैं
महज फ़ीगर समझ बैठे हैं हम भी आदमी को अब
हमें सिहरन नहीं होती कहीं जब लोग मरते हैं
हमें मसरूफ़ करके रोज़ बेमतलब के मुद्दों में
सियासत चैन से अपनी ज़मीनें सींच आती है
हमें गंगाजली और आबे-ज़मज़म की क़सम देकर
हुक़ूमत पैग पटियाला लपक कर खींच आती है
अगर हम आपसी नफ़रत का थोड़ा शोर कम कर दें
तो फिर अहले-रियाया की आवाज़ें मर नहीं सकती
अगर हम रोज़मर्रा के मसाइल को तवज्जोह दें
सियासत फिर कोई भी बदतमीज़ी कर नहीं सकती

हत्यारा तंत्र

गोरखपुर मुआमले जैसे महापाप के सूतक की ज़िम्मेदारी एक बार फिर सरकारी दफ्तरों की कार्यशैली ने ली है। पाकिस्तान में जब स्कूली बच्चों की लाशें बिछीं तो पूरे विश्व ने आतंकवाद से मिलकर लड़ने की शपथ उठाई थी। आज जब हमारे मुल्क में नन्हीं किलकारियों की प्राणवायु तक दफ्तरी छीन ले गए तो इस हिंसक व्यवस्था के साथ एकजुट होकर लड़ने के लिए हम क्यों शपथ नहीं ले सकते।

स्थितियां इतनी विकराल हैं कि "ईमानदारी" के साथ आप ड्राइविंग लाइसेंस तक नहीं बनवा सकते हैं और बेईमान होते ही आप कुछ भी कर सकते हैं। "चप्पल घिसना"; "एड़ियां रगड़ना"; "धक्के खाना"; अड़ंगा लगाना"; "पेंच फँसना"; "जुगाड़ भिड़ाना" और "ले-दे के करवाना" जैसे मुहावरों से सुसज्जित हमारे सरकारी कार्यालय स्वाधीनता दिवस के अवसर पर हर साल रौशनी में नहा जाते हैं लेकिन देश के भीतर का अंधेरा कम होने का नाम नहीं लेता। किसी दफ़्तर में आपका सामान्य-सा काम भी पड़ जाए तो इस हद तक हैरासमेंट होता है कि अराजक हो जाने का मन करने लगता है। 

फॉर्म के एक कॉलम में चूक हो जाए तो खिड़की पर बैठा बाबू आपको इस तरह लताड़ता है जैसे किसी बलात्कारी को रंगे हाथ पकड़ लिया हो। किसी काग़ज़ की फोटोकॉपी करवानी पड़ जाए तो दफ्तरी आपको यह भी नहीं बताएगा कि फोटोकॉपी होगी कहाँ से। बाबू से कोई सवाल पूछ लो तो ऐसे हिक़ारत से देखा जाता है मानो उसकी जेब काट ली हो। चपरासी भी प्रतीक्षा करने वालों के साथ ऐसे बर्ताव करता हो जैसे किसी इकलखौन्डी बहू के घर उसकी ननद छह महीने से पड़ी हो।

दो और दो चार जैसे सामान्य सवाल को भी इतना जटिल बना दिया जाता है कि आदमी गिनती भूल जाए। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर और नर्स तो हैं ही; सफाईकर्मी तक किसी भी मरीज़ या उसके परिजन को अकारण धकियाने और लताड़ने के लिए अधिकृत होते हैं। रेलवे में किसी की इतनी औक़ात नहीं है कि पूछताछ खिड़की के उस पार बैठे साहब से रेल के लेट होने का कारण पूछ सके। अदालतों में जज साहब ग़लत समय पर छींकने के जुर्म में भी किसी पर अवमानना का अभियोग चला सकते हैं। और थाने तो दैवीय प्रकोप के महाभवन हैं ही। 

पुलिसवाले जनता के बीच जब गाना बजाते हैं "पुलिस- आपके लिए आपके साथ" तो ऐसा सुखद अनुभव होता है मानो फरिश्तों ने खाकी पहन कर क़ौम की खिदमत का बीड़ा उठाया हो। पुलिस के जनहित में जारी विज्ञापन देखो तो ऐसा महसूस होता है मानो पूरी पुलिसफोर्स आपके पैर पकड़ कर गिड़गिड़ा रही हो कि हे जनता जनार्दन! हमारा कर्तव्य है कि आपको कोई कष्ट न हो। हमें हमारा फ़र्ज़ अदा करने का मौका दो माई-बाप! ....लेकिन अगर किसी दिन आपको थाने के दर्शन करने पड़ जाएं तो ये सारे विज्ञापन आपके पीछे तालियाँ पीट-पीट कर नाचते हुए गाना गाने लगते हैं - "अप्रैल फूल मनाया, तो उनको गुस्सा आया..."।

व्यवस्था की यह घिनौनी तस्वीर न तो जनता से छिपी है न ही सरकार से। ऐसे में किसी भी नेता की या समाजसुधारक की इच्छा शक्ति संक्रमित पतीले में दूध की तरह व्यर्थ है। सरकार संसद में बैठ कर योजनाएं बनाती है और बाबू उस योजना का सागर मंथन करके उसमें से लक्ष्मी जी के अवतरण का उपाय खोज लेते हैं। रेड लाइट जम्पिंग रोकने के लिए चालान की राशि बढ़ाकर सौ से पांच सौ की जाती है तो रेडलाइट के पार पेड़ की ओट में अपराध करने का अवसर देने वाले सार्जेंट के ईमान की क़ीमत पचास रुपये से बढ़कर स्वतः ही दो सौ हो जाती है।
भारत में कई नेता ऐसे हुए हैं जो सचमुच इस देश को एक लोककल्याणकारी गणराज्य बनाने का स्वप्न देखते थे। लेकिन उन सब स्वप्नों की फाइलें टूथपिक से कान खुजाते किसी बाबू के बासी चाय के झूठे कप के नीचे दबी धूल खा रही हैं।

© चिराग़ जैन

Ref : Gorakhpur Case, Children dead in hospital due to shortage of Oxygen.

Friday, August 11, 2017

हौसला

तानने वाले जमाने भर की तोपें तान लें
हौसला बारूद से डरता नहीं, ये जान लें

छोड़िये साहिब, खुशी से कौन मरता है भला
दर्द ही हद से गुजर जाए तो फिर भी मान लें

जो कभी हमको कहा करते थे अपनी जिंदगी
खुदकशी के मूड में हों तो हमारी जान लें

देख लीजे कुछ हमारे पास बचने पाए ना
ख्वाब लें, उम्मीद लें, अल्फाज लें, अरमान लें

इस भरे बाजार में हम भी बहुत बेचैन हैं
वे पुराना लूट लें तो हम नया समान लें

© चिराग़ जैन

Monday, July 31, 2017

चरित्र का प्रमाण

रघुवीर अवध से वनवास को चले तो
रोते-रोते पैरों से लिपट गई धरती
शठ कोई झपट के ले गया जनकसुता
शव इतने गिरे कि पट गई धरती
हनुमान राम जी की भक्ति का सबूत लाओ!
फटे हुए सीने में सिमट गई धरती
सीता से चरित्र का प्रमाण मांगा राम ने तो
पीर इतनी बढ़ी कि फट गई धरती

© चिराग़ जैन

Thursday, July 27, 2017

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का

1. लड़की शाॅप लिफ्टिंग में पकड़ी गई और जेल गई। बाप जमानत करा कर लाया और गुस्से में बोला- ‘आज से इसका कॉलेज बन्द। कोई लड़का देखकर इसकी शादी करा दो।’ 

2. लड़की अपनी ही सगाई में फोटोग्राफर के साथ सेक्स करती पकड़ी गई। लड़की की माँ ने देख लिया और उस पर लिपिस्टिक-पाउडर की लीपापोती करके उसे सगाई में बैठा दिया। 

3. लड़की अपनी माँ से पूछती है कि मेरी शादी की इतनी क्या जल्दी है? लड़की की माँ बोलती है - ‘मुझे तुझ पर भरोसा नहीं है। तुझे वक्त दिया तो फिर से तू किसी के साथ मुँह काला कर लेगी।’ 

ये ऊपर की तीनों लड़कियाँ जिस भी लड़के से ब्याह करेंगी उसके प्रति समाज और कानून की क्या जिम्मेदारी है? जब आपकी पाली हुई लड़की आपके हिसाब से ‘बिगड़ चुकी है’ तब आप किसी के गले से फटे ढोल की तरह लटका कर अपनी इज्जत और आपकी जिम्मेदारियों की लीपापोती कर लेते हैं। आपके मापदंडों पर जो लड़की ‘बिगड़ी हुई लड़की’ बन चुकी है उसे किसी निर्दोष के पल्ले बांधते समय क्या आप उसकी खामियों का जिक्र करते हैं? 

और इतने पर भी तुर्रा ये कि शादी के बाद जब उस लड़की की उन्हीं हरकतों से परेशान होकर वह लड़का शिकायत करने पहुँचता है तो वही माँ-बाप, वही समाज और वही कानून उल्टे लड़के को ही आँखें दिखाने लगते हैं। 

लड़की के माँ-बाप उसकी हरकतों से दुखी होकर उसका कॉलेज बंद करें तो यह ‘उत्तरदायित्व का निर्वाह’ है लेकिन उसी लड़की का पति वैसी ही हरकतों की वजह से उसे घर से बाहर निकलने से मना कर तो यह ‘क्रूरता’ है। 

लड़की की माँ उसे किसी लड़के से मिलने से रोके तो यह माँ की बेटी के प्रति चिंता है। लेकिन उसी लड़की का पति उसी लड़के से मिलने से उसे रोके तो वह लड़का ‘रुढ़िवादी और गँवार’ है। 

समाज का यह दोहरा रवैया न्याय की अवधारणा को तार-तार करता है। माँओं द्वारा लीप-पोत कर विदा की हुई लड़कियाँ जब ससुराल पहुँच कर मेकअप उतारती हैं तो उनके अतीत के चेहरे पर पड़े हुए नील उनके वैवाहिक जीवन में अंधियारे की ऐसी लकीर खींच देते हैं जिसके साये में सैंकड़ों नौजवानों का जीवन अवसाद के संत्रास को झेलता हुआ समाप्त हो जाता है। 

‘लिपिस्टिक अंडर माई बुरका’ का फिल्मकार महिलाओं की आजादी के नाम पर ‘बोल्डनेस’ का जो हवाई झरोखा खींचना चाहता है उसमें से विवाह संबंधों के इस कड़वे सच का लकवाग्रस्त चेहरा साफ दिखाई देता है। 

© चिराग़ जैन 

Monday, July 24, 2017

विजय गान

गाँव के वटवृक्ष जिसकी झाड़ियाँ छूकर दुखी थे
अब नए बिरवे उसी कीकर को बाबा बोलते हैं
जिस मुहल्ले से निकलकर स्नान करना था ज़रूरी
आजकल अख़बार उन गलियों को क़ाबा बोलते हैं

ये नया अध्याय अब इस नस्ल को किसने पढ़ाया
कौन है जो पोखरों के नाम लिखता है रवानी
धूर्तता से ध्वस्त करके भीष्म का वैभव धनंजय
गुरुकुलों में बाँचता है आत्मश्लाघा की कहानी
कुछ पुराने लोग ये सच जानते भी हैं; मगर अब
हैं बहुत लाचार, अंगारे को लावा बोलते हैं

लिख रहे हैं आज जो इतिहास इक भीषण समर का
वे समर के वक्त डरकर छुप-छुपाते बच रहे थे
जब समय इनसे अपेक्षा कर रहा था वीरता की
ये कहीं बैठे हुए झूठी कहानी रच रहे थे
दो मवाली पीट आए थे कभी इक बेसहारा
पाठ्यक्रम इस बात को ‘दुश्मन पे धावा’ बोलते हैं

© चिराग़ जैन

Saturday, July 22, 2017

संज्ञा का अपमान

एक विशेषण की चाहत में
संज्ञा का अपमान किया है
लाए को अनदेखा कर के
पाए पर अभिमान किया है

अभिलाषा के रथ पर फहरी
स्पर्धा की उत्तुंग ध्वजा है
लोभ बुझे तीरों से भरकर
लिप्सा का तूणीर सजा है
अपना ही सुख खेत हुआ है
कैसा शर संधान किया है

जीवन को वरदान मिला है
श्वास किसी की दासी कब है
मीठे जल से ना बुझ पाए
तृष्णा इतनी प्यासी कब है
निश्चित की आश्वस्ति बिसारी
संभव का अनुमान किया है

मानव होना बहुत न जाना
जाने क्या से क्या बन बैठा
चोर, दरोगा, दास, नियामक
और कभी धन्ना बन बैठा
ख़ुशियों का अमृत ठुकरा कर
कुंठा का विषपान किया है

भोर न जानी, रैन न देखी
दिन भर की है भागा-दौड़ी
सुख के पल खोकर जो जोड़ी
छूट गई हर फूटी कौड़ी
अपने जीवन के राजा ने
औरों को श्रमदान किया है

© चिराग़ जैन

Wednesday, July 19, 2017

ग्राफ़ में उसका नाम छपा तो क्या होगा

अनलिखा पैग़ाम छपा, तो क्या होगा
धडकन का कोहराम छपा, तो क्या होगा
ईसीजी करवाने से डर लगता है
ग्राफ़ में उसका नाम छपा तो क्या होगा

-चिराग़ जैन

Monday, July 17, 2017

वतन की फ़िक्र किसको है

सुलगते ही रहें तो ठीक हैं जज़्बात, रहने दो
हुए खाली तो रोटी मांग लेंगे हाथ, रहने दो
कोई मुद्दा उठाकर आप अपनी कुर्सियां जोड़ो
वतन की फ़िक्र किसको है, अमां ये बात रहने दो

© चिराग़ जैन

Sunday, July 16, 2017

अपना कहकर मिलते थे

अपने क़द के भीतर रहकर मिलते थे
नाराज़ों से आप सुलह कर मिलते थे
हम तो उनसे उस मुद्दत से वाकिफ़ हैं
जब वो हमको अपना कहकर मिलते थे

© चिराग़ जैन

Thursday, July 6, 2017

हिंदी-चीनी भाई-भाई

ओ मगरमच्छ के भ्रष्ट रूप, ओ दानव के कल्पित स्वरूप
इतिहास हमें बतलाता है, बड़बोला हानि उठाता है
बासठ की याद दिलाते भी, क्या बिल्कुल लाज नहीं आई
तब तेरे पुरखे भजते थे, हिंदी-चीनी भाई-भाई
ऊपर-ऊपर मीठा बनता, भीतर से खड़े सरौते सा
कहने भर को चीनी है पर, कड़वा है सड़े चिरौते सा
तिब्बत को आँख दिखाता है, लतियाता है शरणागत को
छल-द्वेष-धूर्तता ओढ़-ओढ़, शर्मिंदा किया तथागत को
क्या पता कौन सा दाँव कहाँ, कब कैसा मंज़र ले आए
ये सड़क बनाने का चस्का, कब तुझे सड़क पर ले आए
ओ चीनी मिट्टी से चिकने, ओ ड्रैगन से अस्तित्वहीन
ये बात भलाई की सुन ले, मत अहंकार में फूल चीन
तुझसे बातें करने में भी, नज़रें नीची करता भारत
ये बासठ वाला दौर नहीं, लड़ने से कब डरता भारत
ये समय विश्व-बंधुत्व का है, अब झगड़ा-वगड़ा ठीक नहीं
मानवता के उन्नति पथ पर, आपस का रगड़ा ठीक नहीं
भारत के सिंह दहाड़े तो, तेरा ड्रैगन डर जाएगा
दिल्ली शॉपिंग बंद कर दे तो, पीकिंग भूखा मर जाएगा
फिर भी मन बना चुका है तो तू देख लड़ाके भारत के
तू बस माचिस को हाथ लगा, फिर झेल धमाके भारत के
हम अनुनय भी कर सकते हैं, हम तीर चलाना भी जानें
सागर पूजन करते-करते, सागर लंघ जाना भी जानें
सागरमाथा फिर देखेगा बल-पौरुष कंचनजंगा का
फिर से गौरव गुंजित होगा दुनिया में अमर तिरंगा का
हम संख्या में हैं न्यून किन्तु हिम्मत में तुझसे न्यारे हैं
पाण्डव हर युग में जीते हैं कौरव हर युग में हारे हैं
है शांतिपर्व अंतिम अवसर समझौते वाली बोली का
इसके उपरांत महोत्सव है माँ रणचण्डी की डोली का
आमंत्रण मत दे मातम को ओ हठधर्मी दो पल डट जा
तेरा हित सिर्फ़ इसी में है सेना लेकर पीछे हट जा

© चिराग़ जैन

Saturday, July 1, 2017

मेरी डायरी से पूछ लो

सच समझते आदमी की बेक़ली से पूछ लो
नेकियाँ ख़ामोश क्योंकर हैं, बदी से पूछ लो

मैं कहाँ कह पाऊँगा अपनी हकीक़त मंच से
यूँ करो तुम जा के मेरी डायरी से पूछ लो

एक गिरते आदमी पर हँस पड़ी तो क्या हुआ
पुत्र के शव पर बिलखती द्रौपदी से पूछ लो

दूसरों की बेहतरी का मोल क्या होगा जनाब
फैक्टरी के पास से गुज़री नदी से पूछ लो

इल्म का कोरा दिखावा हो चुका हो तो हुज़ूर
मसअले का हल चलो अब सादगी से पूछ लो

ज़िन्दगी जीने का सबसे ख़ूबसूरत क्या है ढंग
जिस सदी में हम हुए हैं, उस सदी से पूछ लो

© चिराग़ जैन

Thursday, June 22, 2017

समय-समय का फेर

सुबह-सवेरे देवालय में जो धुल-धुल अर्पित होते थे
शाम तलक वे रंग बदलकर वेश्यालय में सजते देखे

ना राघव के तीर बहुत था, ना सीता का त्रास बहुत था
रावण के मरने की ख़ातिर, अपनों का विश्वास बहुत था
अवसर पाकर बहुत विभीषण, भाईचारा तजते देखे
शाम तलक वे रंग बदलकर वेश्यालय में सजते देखे

जो तूती के स्वर में अपनी, ताल मिलाकर इतराते थे
यश-वैभव के हर उत्सव में ठुमक-ठुमक सोहर गाते थे
महल ढहा तो वो ही घुंघरू, ढोल सरीखे बजते देखे
शाम तलक वे रंग बदलकर वेश्यालय में सजते देखे

आँच चिता की रोटी सेंके तो जिनको परहेज नहीं था
निज हितसाधन में कोई मरता हो तनिक गुरेज़ नहीं था
एक दिवस हमने वे सारे, रामभजन भी भजते देखे
शाम तलक वे रंग बदलकर वेश्यालय में सजते देखे

© चिराग़ जैन

Saturday, June 17, 2017

सफ़हे पलटते रहते हैं

ज़िन्दगानी है, या कोई किताब अनजानी 
साँस चलती है या सफ़हे पलटते रहते हैं 

-चिराग़ जैन

Wednesday, June 14, 2017

ओछी हथेली

कंकडी को यदि तिजोरी में रखोगे
वो कनक का मूल्य जाँचेंगी यक़ीनन
क़ामयाबी से जुडी ओछी हथेली
सभ्यता का मुँह तमाचेंगी यक़ीनन

एक नग़्मा लिख लिया जिसने वही अब
वेद के वैभव पर अपना रौब झाड़े
डीप फ्रीज़र में पड़ा टुकड़ा ज़रा सा
हिमशिखर की श्वेत चादर को लताड़े
वेदियों में नगरवधुएँ मत बिठाओ
महफ़िलों में रोज़ नाचेंगी यक़ीनन

कृष्ण की रणनीति से अर्जुन लड़ेगा
कीर्ति फिर भी कर्ण के मस्तक चढ़ेगी
चक्रव्यूहों में जयी हो या नहीं हो
रीति तो अभिमन्यु का ही यश गढ़ेगी
आज तुम छल से समर को जीत जाओ
कल कथाएँ सत्य बाँचेंगी यक़ीनन

© चिराग़ जैन

Tuesday, June 13, 2017

सघन तलाशी

सघन तलाशी समय करेगा, धीरज के गठरी-झोलों की
और कथाएँ युग बाँचेगा, शायद कल इन अनबोलों की

देख रही हैं उनकी आँखें, षड्यंत्रों के दृश्य घिनौने
फिर भी त्याग नहीं पाए वे, अपने संयम के मृगछौने
सूरज पूजा करता होगा, श्वासों में भड़के शोलों की
और कथाएँ युग बाँचेगा, शायद कल इन अनबोलों की

सच जबड़े भींचे बैठा है, झूठ निरंतर बोल रहा है
अपराधों के उत्सव में बस, निर्दोषों का मोल रहा है
मासूमों की किलकारी ही, आज चुनौती हथगोलों की
और कथाएँ युग बाँचेगा, शायद कल इन अनबोलों की

सहना है तो सह ही लेंगे, कठिन समय की पीर विजेता
कुछ मुठभेड़ों से उकताकर, तनिक न खोते धीर विजेता
प्राण गँवाकर और बढ़ेगी, रंगत बासंती चोलों की
और कथाएँ युग बाँचेगा, शायद कल इन अनबोलों की

© चिराग़ जैन

Sunday, June 11, 2017

संयम का उपदेश

जब मन में ताण्डव करते हों संबंधों के क्लेश
तब कोई भी दे सकता है संयम का उपदेश
धीरज संग ढहने लगते जब यादों के अवशेष
 ऐसे में पीड़ा देता है संयम का उपदेश

भाई का शव देख हुआ जब एक विभीषण क्लांत
तब यह ज्ञान मिला संकट में मन को रखिये शांत
ओछे हैं जो पीड़ा लखकर खो देते हैं धीर
दारुण दुख पाकर संयत हों वे ही सच्चे वीर
लक्ष्मण पर मूच्र्छा छाई तो बदल गया परिवेश

जो अर्जुन को समझाते थे, है संसार असार
पूर्व नियत घटनाओं का ही आभासी विस्तार
बंधु, सखा, परिवार, पितामह, शैशव के अनुबंध\
जो समझाते थे मिथ्या हैं ये सारे संबंध
वो रो-रोकर भिजवाते थे राधा को संदेश

© चिराग़ जैन

Thursday, May 25, 2017

सौर ऊर्जा

आओ अपने घर में सूरज का इक अंश उठा लाएँ
आओ जीवन के अंधियारे का विध्वंस उठा लाएँ

जिस सूरज की स्वर्णिम किरणें धरती को दमकाती हैं
जिस ऊर्जा से पोषित होकर सब फसलें लहराती हैं
उस सूरज की एक किरण का जगमग वंश उठा लाएं

जो सूरज की ऊर्जा वैदिक मंत्रों में ढल सकती है
वो ऊर्जा घर के भीतर बिजली बनकर जल सकती है
यंत्रों के इस मानसरोवर का इक हंस उठा लाएं

ये ऊर्जा मानवता के हित ईश्वर का उपहार सखे
इस पर कुछ अवरोध नहीं ना सिस्टम ना सरकार सखे
बिजली के उस इंतज़ार का सार्थक ध्वंस उठा लाएं

© चिराग़ जैन

Tuesday, May 16, 2017

फिर आया सूरज

दिन भर आग बबूला होकर
दम्भ दहक का बोझा ढोकर
सांझ ढले फिर आया सूरज दो पल बतियाने
नदिया की कलकल धारा से शीतलता पाने

मरना देखा, जीना देखा
सबका दामन झीना देखा
दौलत के सिर छाया देखी
श्रम के माथ पसीना देखा
रूप गया क़िस्मत के द्वारे, दो रोटी खाने
सांझ ढले फिर आया सूरज दो पल बतियाने

भोर भये मैं सबको भाया
सांझ ढले जग ने बिसराया
दोपहरी में कोई मुझको
आँख उठा कर देख न पाया
जिसने इस जग को गरियाया, जग उसको जाने
सांझ ढले फिर आया सूरज दो पल बतियाने

चंदा डूबा दूर हुआ था
मैं अम्बर का नूर हुआ था
शाम हुई फिर चाँद उगा तो
मान तड़क कर चूर हुआ था
ढलते की सुधि छोड़ चले सब, उगते को माने
सांझ ढले फिर आया सूरज दो पल बतियाने

© चिराग़ जैन

Thursday, May 11, 2017

हिन्दी पढ़ने वाली लड़की

हिंदी पढ़ने वाली लड़की
हिंदी पढ़ने वाली लड़की
सीधी-सादी, सहज-सलोनी, कभी न तड़की-भड़की

बातों का भावार्थ समझ लेती है वो झटपट से
उसके सरल वाक्य अपराजित रहते सदा कपट से
स्वाद बढ़ाते हैं बातों का उसके बोले व्यंजन
देवनागरी की अक्षर लिपटे रहते हैं लट से
अनुपम है अनुभूति भाव की
सक्षम है अभिव्यक्ति भाव की
कविता पढ़-पढ़ स्वयं हो गई कविता किसी सुगढ़ की

नियम छोड़ कर रोमन हो गई हैं जब शीला-मुन्नी
ऐसे में भी उसे सुहाए शिरोरेख सी चुन्नी
भीतर-बाहर एक सरीखी उसकी जीवनचर्या
ना कठोर, ना जटिल, न दूभर, ना अभद्र, ना घुन्नी
वो इक रोचक उपन्यास है
वो उत्सव का अनुप्रास है
शायद वो है किसी निराले कवि की बिटिया बड़की

उसको है आभास सभी की लघुता-गुरुता द्वय का
उसे पता है अर्थ शब्द संग अलंकार परिणय का
छंद भंग हों संबंधों के यह संभव कब उससे
ध्यान हमेशा रखती है वो यति-गति का सुर-लय का
कभी अकड़ है पूर्णछन्द सी
कभी रबड है मुक्तछन्द सी
भाषा से सीखी हैं उसने सब बातें रोकड़ की

नवरस की अनवरत साधना उसका धर्म ग़ज़ब है
भाषा से अनुराग उसे जो है, अन्यत्र अलभ है
मात्र भंगिमा के बल पर वह श्लेष साध लेती है
उसे यमाताराजभानसलगा से फुर्सत कब है
हीरामन-होरी से परिचित
हर गौरा-गोरी से परिचित
उसने कंधों से समझी है पावनता काँवड़ की

© चिराग़ जैन

Wednesday, May 10, 2017

दीवारों की दरकन

तर्क-वितर्क से किसी समस्या का समाधान न निकले तो व्यक्ति अक्सर मौन हो जाता है। किन्तु मौन की इस अंतर्मुखी अवस्था में भी मन में वैचारिक घमासान बना रहता है और एक स्थिति यह आ जाती है कि मौन अनायास ही चीखने लगता है। बस इसी स्थिति की देहरी पर खड़ा एक गीत प्रस्तुत है :

कैसे मैं अनदेखा कर दूं संबंधों के नित्य क्षरण को
कंगूरों से कब तक ढाँपूँ इन दीवारों की दरकन को

तिनका-तिनका मन जोड़ा था, तब जाकर ये नीड़ सजा था
श्वासों में सुर-ताल सधे थे, तब मधुरिम संगीत बजा था
रोज़ बिखरते देख रहा हूँ, स्वप्न सुधा के इक-इक कण को
कंगूरों से कब तक ढाँपूँ इन दीवारों की दरकन को

एक शिरा के बहकावे में, दिल की धड़कन ऊब गई है
देह पहेली बूझ न पाए, श्वास भला क्यों डूब गई है
केवल एक घुटन ने घेरा, जर्जर तन को, पीड़ित मन को
कंगूरों से कब तक ढाँपूँ इन दीवारों की दरकन को

दलदल ने डेरा डाला तो, कँवलों से यह ताल सजाया
इक दिन दलदल ने बेचारे, कँवलों को जंजाल बताया
बांझ धरा ने जी भर कोसा, मौसम के पहले सावन को
कंगूरों से कब तक ढाँपूँ इन दीवारों की दरकन को

© चिराग़ जैन

Friday, May 5, 2017

गुनगुनाते रहो

जो मिले बस उसे ही निभाते रहो
वक़्त के साज पर गुनगुनाते रहो
सुख मिले तो ख़ुशी के तराने रचो
दुख मिले दर्द के गीत गाते रहो

दर्द हद से गुज़रने लगे जिस घड़ी
उस घड़ी लेखनी से शरण मांग लो
और टूटे हुए स्वप्न को बीनकर
शब्द से काव्य की सीपियाँ टाँक लो
भाग्य जब दर्द से आज़माए तुम्हें
तुम सृजन कर उसे जगमगाते रहो

क्या मिला, क्या अचानक पराया हुआ
इन सवालों का दामन नहीं थामना
जब कभी धड़कनों में विकलता बढ़े
ताल की चाल जैसा उसे साधना
अश्रुओं को रसों में अनूदित करो
और फिर देर तक मुस्कुराते रहो

एक दिन जब कथा मौन हो जाएगी
गीत ही ये कहानी पुनः गाएगा
तुम समर्पित हुए प्रीति की राह पर
पीढ़ियों को यही बात बतलाएगा
तुम सदा स्वार्थ के लोभ से हीन थे
इस अकथ की गवाही बनाते रहो

तुम अगर चाह लो पीर से टूटकर
जीवनी शक्तियों का अनादर करो
तुम अगर चाह लो दर्द की भेंट का
बाँह फैलाए सत्कार सादर करो
तुम अगर चाह लो छटपटाते रहो
तुम अगर चाह लो जग सजाते रहो

© चिराग़ जैन

Monday, May 1, 2017

सुधार

आप इस नाराज़गी की फिक्र करना छोड़ भी दो
मैं अब अपनी चाहतों को डाँट कर बहला रहा हूँ

ये सही है, मैं हठी होने लगा हूँ बालकों सा
किन्तु हठ को आपकी अनुमति मिले, निश्चित नहीं है
मैं न जाने कौन सा अधिकार अनुभव कर रहा हूँ
आपकी इस भाव को स्वीकृति मिले, निश्चित नहीं है
आप मेरी अनुनयों के साथ जो जी चाहे कीजे
मैं प्रणय की प्रार्थना को साध कर टहला रहा हूँ

एक जंगल काटकर निकला नगर निर्माण करने
किन्तु उस वन की किसी शाखा ने अपनापन जताया
किस तरह उसको कुचल कर भूमि को श्रीहीन कर दूँ
जिस लचकती डाल पर मैं मन समूचा टाँक आया
लक्ष्य का संधान करने के समय है मोह शर से
मैं कदाचित् इस तरह का आदमी पहला रहा हूँ

© चिराग़ जैन

Wednesday, April 26, 2017

शोर-शराबा क्यों है?

रे सागर! सच-सच बतला दे
इतना शोर शराबा क्यों है
भीतर तो चुप-चुप रहता है
तट पर मार दिखावा क्यों है

मीठी नदिया के पानी को, तू है इतना प्यारा सागर
वो तो तुझमें डूब गई पर, तू ख़ारा का ख़ारा सागर
इन लहरों में इक नदिया की कलकल का परछावा क्यों है

दिन भर सूरज की गर्मी का चुप-चुप तूने भार उठाया
चंदा शीतल था तो तूने कितना भीषण ज्वार उठाया
उद्दण्डों से भय कैसा है, भद्रजनों पर धावा क्यों है

तू जग में सर्वाधिक विस्तृत, तू जग में सर्वाधिक गहरा
तू ही दुनिया भर के मोती-मूंगों का भी स्वामी ठहरा
इतना सब वैभव पाकर भी, सबसे अधिक अभागा क्यों है

© चिराग़ जैन

Thursday, April 20, 2017

कुछ ग़लत भी नहीं

कुछ सही भी नहीं, कुछ ग़लत भी नहीं
प्रेम फंसता नहीं ज्ञान-अज्ञान में
प्राण तो सृष्टि भर से अधर हो गए
देह उलझी रही मान-अपमान में

प्रेम ने जब हृदय को सहज कर दिया
कोई सीमा बची ही नहीं लाज की
श्याम के बालपन पर सलोनी लगी
नग्नता और निर्लज्जता आज की
लाज दो हालतों में सताती नहीं
एक अपनत्व में एक अज्ञान में

जब कभी भी समर्पण की नौका चढ़ा
प्यार बैकुंठ की देहरी पा गया
फँस गया जब कभी स्वार्थ के जाल में
बस तभी वासना का धुआं छा गया
कुछ समस्याओं में ही फँसे रह गए
कुछ मगन हो रहे हैं समाधान में


© चिराग़ जैन

Tuesday, April 18, 2017

सैनिक का दावा

ये शेरों की दहाड़ें झूठ हैं, कोरा दिखावा है
हमें अपनों से ख़तरा है, ये हर सैनिक का दावा है
बहुत लाचार हैं; पैरों में बेड़ी है सियासत की
वगरना हाथ में बंदूक है, सीने में लावा है

© चिराग़ जैन

Saturday, April 8, 2017

आकांक्षा

मैं तुम्हारी आँख में कुछ स्वप्न अपने आँज आया
तुम मेरे सपनों को अपने आँसुओं में मत बहाना

जब तुम्हें आभास हो, गंतव्य दुर्गम हो रहा है
या सफलता के प्रयासों के जकड़ ले पाँव कोई
राह का मौसम गुलाबी हो करे कर्तव्य विस्मृत
या तुम्हें आकृष्ट कर बैठे, मनोहर गाँव कोई
तब घड़ी भर देखना दर्पण में अपनी पुतलियों को
तब घड़ी भर इस अनोखे स्वप्न से आँखें मिलाना

एक दिन तुमको समूची साधना मिथ्या लगेगी
एक दिन उलझाएगी तुमको इसी पथ की पहेली
एक दिन थककर तुम्हारे पाँव भी दुखने लगेंगे
एक दिन तुम भी चलोगी साधना-पथ पर अकेली
बस उसी दिन जान लेना, है बहुत नज़दीक मंज़िल
बस उसी दिन और भी जीवट जुटाकर पग बढ़ाना

मन्त्र हैं निष्प्राण उनमें साधना के प्राण भर दो
शब्द को अनुभूतियों का स्पर्श दो, वह जी उठेगा
जिस समंदर ने तुम्हारे वक़्त की नैया डुबोई
चंद्रमा की ओर बढ़ता ज्वार उससे ही उठेगा
जब नई आभा छलक आए सफलता के नयन में
तब नयन की कोर पर उसको सजाकर मुस्कुराना

© चिराग़ जैन