Monday, April 30, 2018

स्वर्णिम भविष्य

कल बना लेगा उदाहरण जग हमारे निर्णयों को
पर अभी हम आपके उपहास का संत्रास झेलें
कल हमारे अनुकरण की सीख देना पीढ़ियों को
आज हम अपने किये पर धृष्टता का त्रास झेलें

जब कभी गौतम नकारेगा गँधाती रीतियों को
तब उसे उद्दण्ड कहकर विश्व कर देगा बहिष्कृत
जब वही कृशकाय होकर लकड़ियों जैसा बनेगा
तब उसे गृहिणी करेगी देवता कहकर पुरस्कृत
स्वर्णबिंबित हो पुजेंगे कल तथागत विश्व भर में
आज भीषण जंगलों में कष्टप्रद संन्यास झेलें

जब किसी वैधव्य को जीवित चिता स्वीकार ना हो
तब उसे कुलटा बताकर राजगृह दुत्कार देंगे
बावरी जब कृष्ण की दीवानगी में मग्न होगी
तब नियम उसको गरल का पात्र देकर मार देंगे
कल तुम्हारी अर्चना का गान बन जाएंगी मीरा
आज भगवत भक्ति में वे दण्ड का विषग्रास झेलें

जग यही करता रहा है, जग यही करता रहेगा
अब जिसे द्रोही कहा है, कल उसे ईश्वर कहेगा
जिस कथा को हीन कहकर आज कर दोगे उपेक्षित
कल उसी पोथी से जग की आस्था का रस बहेगा
कल समूचा जग यही चौपाइयाँ गाता फिरेगा
आज तुलसी ज्ञानियों के दम्भ का परिहास झेलें

© चिराग़ जैन

Sunday, April 29, 2018

लालकिले का टेंडर

मई 2014 में हमने अपना स्वाभिमान पाँच वर्ष के लिए एक कॉन्ट्रेक्टर को आशाओं की लीज़ पर दिया था। कॉन्ट्रेक्टर ने कॉन्ट्रेक्ट शुरू होने से पहले ही सपनों की बड़ी किश्त प्रत्येक भारतवासी को अदा भी की। हम उन सपनों की हुंडी को मन में दबाए हुए स्वाभिमान के लालकिले का विकास होने का इंतज़ार करते रहे। कॉन्ट्रेक्ट शुरू होते ही लालकिले के परंपरागत प्रवेश-पत्र बंद करके नए पत्रक छपवाए गए। हमें बताया गया कि इन नए पत्रकों के चलन से असामाजिक तत्वों का लालक़िले में प्रवेश असम्भव हो जाएगा। बाद में जब नए पत्रकों के बंडल लेकर असामाजिक तत्व लालक़िले के अंदर ही उनकी कालाबाज़ारी करते पकड़े गए तो कॉन्ट्रेक्टर ने शिकायतकर्ता को ही सुरक्षा में सेंध लगाने के ज़ुर्म में प्रतिबंधित करवा दिया। हम अपनी ही इमारत में प्रवेश के लिए कतारें बनाए खड़े रहे।
कुछ रोज़ बाद हमारे स्वाभिमान की प्राचीर पर कॉन्ट्रेक्टर के मित्र ने अपने मोबाइल फोन का विज्ञापन चिपका दिया। एक-एक मेहराब नए फोन के इश्तिहार से ढाँप दी गई। प्रचारकों ने बताया इन्हीं इश्तिहारों के पीछे विकास का कबूतर अंडे देगा। हम संतुष्ट हो गए।
एक दिन कॉन्ट्रेक्टर किसी विदेशी के साथ रिक्शा में बैठकर चांदनी चौक आया और मुनादी कर दी कि लालक़िले से चावड़ी बाज़ार होते हुए फतेहपुरी तक बुलेट ट्रेन दौड़ेगी। किसी ने हाथ जोड़कर पूछा कि चावड़ी बाजार में संकरी गलियों के कारण हाथठेला भी ठीक से नहीं निकल पाता। शिकायत सुनकर कॉन्ट्रेक्टर का पारा चढ़ गया। वे लताड़ते हुए गुर्राए- ‘तुम्हारा कभी भला नहीं हो सकता। हम बुलेट ट्रेन चलाने की बात कर रहे हैं और तुम हाथ ठेले पर अटके हो।’ शिकायतकर्ता अपना-सा मुँह लेकर अपने ठेले पर बैठ गया और कॉन्ट्रेक्टर का रिक्शा रास्ते के हथठेलों को खदेड़ता हुआ लालक़िले में घुस गया।
आज ख़बर आई है कि कॉन्ट्रेक्ट समाप्त होने में डेढ़ साल बचा है और ठेकेदार ने स्वाभिमान की इमारत की बुनियाद को पाँच साल के लिए सबलैट कर दिया है। विकास का कबूतर सबलेटिंग के इसी कॉन्ट्रेक्ट के पीछे जा छुपा है। ज़्यादा हो-हल्ला न करना, नहीं तो विकास का कबूतर डर जाएगा और अंडे देने का प्रोग्राम टालकर पिकनिक मनाने विदेश चला जाएगा।
लेकिन भाईसाहब की निष्पक्षता पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता। डालमिया जैसे उपेक्षित उद्योगपति को कॉन्ट्रैक्ट देकर उन्होंने सिद्ध किया है कि खरबूजा किसी एक अम्बानी की बपौती नहीं है।

© चिराग़ जैन

Saturday, April 28, 2018

कहने लगा गिटार

हँसकर मेरे हाल पर, कहने लगा गिटार।
सुर तब ही गुंजित हुए, कसे रहे जब तार।।

© चिराग़ जैन

Friday, April 27, 2018

बारहमासा

मीत! तुम्हारी सुधियों का ये कैसा बारहमासा है
अधरों पर मधुमास रखा है आँखों में चौमासा है

पल में मुखड़े पर जगमग दीवाली-सी आ जाती है
पल में मन में चैत दुपहरी की वीरानी छाती है
पल में डरकर मन बेचारा पूस निशा-सा कँपता है
पल में आषाढ़ी चातक-सा चंद्रकिरण को तकता है
क्षणिक हताशा, क्षणिक पिपासा, क्षणिक मिलन अभिलाषा है
अधरों पर मधुमास रखा है आँखों में चौमासा है

जब पुरवा के बहकाने से मन भरमाने लगता है
तब बिन मौसम की बारिश से खेत लजाने लगाता है
दुनियादारी के पचड़ों से आलस करने लगता है
इस बैरागी मन में महुए का रस झरने लगता है
मन संतृप्त हुआ बैठा है पर तन भूखा-प्यासा है
अधरों पर मधुमास रखा है आँखों में चौमासा है

इधर हृदय के पास अचानक जेठ पिघलने लगता है
उधर पुराने पल से तपकर अन्तस् गलने लगता है
सपनों के कजरारे बादल अम्बर तक बढ़ जाते हैं
धूप चढ़े तो इच्छाओं के मृग काले पड़ जाते हैं
इस पल शांत तथागत है मन, अगले पल दुर्वासा है
अधरों पर मधुमास रखा है आँखों में चौमासा है

© चिराग़ जैन

Wednesday, April 25, 2018

काला अम्ब

हरियाणा और हिमाचल के संगम पर एक छोटा सा कस्बा है - काला अम्ब। दोपहर बाद जब यहाँ पहुँचे तो उदासी और वीराने के दर्शन हुए। सूखी हुई पहाड़ी नदी, ट्रैफिक, धूप और बेतरतीब सी शहरी ज़िन्दगी जी रहे लोग। लेकिन ज्यों-ज्यों शाम ढली, त्यों त्यों इस उदासी में उत्सव पैर पसारने लगा। हिमालयन ग्रुप ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज़ के परिसर में रौशनी सिंगरने लगी। पहाड़ से उतरी हुई ठंडी हवाओं ने उमस का तख्ता पलट दिया। 
यूकलिप्टस के ऊँचे वृक्षों पर टंगा हुआ आधा चाँद ऐसा लगता था मानो आसमान के गाढ़े अंधेरे ने काले धागे सोने का तावीज पहन रखा हो। शिक्षण संस्थान के वार्षिकोत्सव से निकसित स्वर लहरियाँ हवा के सोर में गुंथकर मटके और बीन का संगीत निर्मित करती थीं। 
परिसर के भीतर श्रोतादीर्घा भारत के लोकतंत्र का संपूर्ण चित्र प्रस्तुत करती थी। अध्यात्म के प्रतिनिधित्व में ब्रह्मचारी ब्रह्मस्वरूप जी, न्यायपालिका की ओर से जस्टिस मित्तल और तीन अन्य न्यायाधीश, विधायिका की ओर से कम्बोज जी और असीम गोयल जी, पत्रकारों का विशाल समूह, सशस्त्र सैन्य बल, व्यापारी समूह, अध्यापक वृन्द, विद्यार्थी, कर्मचारी और कवियों में पद्मश्री सुरेन्द्र शर्मा, कर्नल वीपी सिंह, शम्भू शिखर, गजेंद्र प्रियांशु और चिराग़ जैन। 
राजनैतिक व्यंग्य, ठहाके, श्रृंगार के मधुर गीत तथा भारत के शौर्य का यशगान। शहीदों की श्रद्धांजलि हेतु दो ढाई हज़ार श्रोताओं का समूह शौर्य की हुंकार के साथ खड़ा हो गया। कवि सम्मेलन में आँसू और मुस्कान का सुयोग देखने को मिला।

Sunday, April 22, 2018

प्रश्न संस्कृति

अंधियारे में चलते रहने से जग का उत्थान न होगा
प्रश्नों से परहेज किया तो कोई अनुसंधान न होगा

भगवद्गीता उत्तर ही तो है अर्जुन की जिज्ञासा का
यम तक ने सम्मान किया है नचिकेता की अभिलाषा का
समवशरण में प्रश्न न हों तो आगम ज्ञान कहाँ से आता
प्रश्न गरुड़ यदि पूछ न पाते गरुड़ पुराण कहाँ से आता
ज्ञानपिपासा तृप्त हुई तो ईश्वर का अपमान न होगा
प्रश्नों से परहेज किया तो कोई अनुसंधान न होगा

यक्षों की अनदेखी करके प्यास बुझाना सम्भव है क्या
शंकाओं का उत्तर देना सचमुच एक पराभव है क्या
कनक, कसौटी से कतराए ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है
जिज्ञासा से आँख चुराए, वह मेरा आराध्य नहीं है
प्रश्न सुने तो आपा खो दे, वह मानुष विद्वान न होगा
प्रश्नों से परहेज किया तो कोई अनुसंधान न होगा

सावित्री की हठ ने चाहा उसके पति के प्राण न जाएँ
तब तक प्रश्न उठाते रहिए जब तक विधिना मान न जाएँ
प्रश्नों के ही ताड़पत्र पर हर इक ग्रंथ लिखा होता है
प्रश्नों की आधारशिला पर ही गणतंत्र टिका होता है
जो प्रश्नों को द्रोह कहे उस शासक का यशगान न होगा
प्रश्नों से परहेज किया तो कोई अनुसंधान न होगा

दम्भी राजा की मनमानी का प्रतिकार गुनाह नहीं है
अभिमानी की पूजा करना प्रह्लादों की चाह नहीं है
मृत्यु प्रकट होती खम्भे से अहम् अगर सिर चढ़ आता है
वरदानों का दंभ किया तो विधि का लेखा मिट जाता है
राम अमर होंगे युग-युग तक, रावण का अभिमान न होगा
प्रश्नों से परहेज किया तो कोई अनुसंधान न होगा

© चिराग़ जैन

Thursday, April 19, 2018

पुनर्समीक्षा

किस पर्वत से पत्थर आया, कैसे रूप धरा पत्थर ने
बस इतने भर से मूरत की, प्राण प्रतिष्ठा करनी होगी
पूछ लिया यदि उत्सुक होकर, शिल्पी की घायल उंगली से
तो फिर इस पूरे मंदिर की पुनः समीक्षा करनी होगी

रामकथा लिखना चाहो तो, केवट का किस्सा सुन लेना
कैसे त्याग गए पल भर में, शासन का हिस्सा सुन लेना
सागर से सुनना यश गाथा, जिसको क्रोध दिखा राघव का
शबरी और निषाद कहेंगे, जिनको शोध दिखा राघव का
वह पत्थर गाथा गाएगा परस जिसे इंसान किया था
उन ऋषियों के दल से पूछो जिन सबका कल्याण किया था
लिखना, कैसा युद्ध हुआ था राघव का दम्भी रावण से
पूछ नहीं लेना भूले से, परित्यक्ता सीता के मन से
अगर सिया ने मन खोला तो बहुत प्रतीक्षा करनी होगी
तो फिर इस पूरे मन्दिर की पुनः समीक्षा करनी होगी

बस यह लिखना कैसे निर्धन ब्राह्मण से संबंध निभाया
बस यह लिखना किस कौशल से कालयवन का अंत कराया
बस यह लिखना उस नटवर का रणकौशल में यश कितना था
बस यह लिखना पूरे युग पर मधुसूदन का वश कितना था
गौवर्द्धन पर्वत बोलेगा जिसको उंगली पर रखा था
भीष्म-धनंजय की सुन लेना, जिनने रूप विराट लखा था
गीता के श्लोकों को पढ़कर, श्रद्धा का लेखा भर देना
राधा के बिरही यौवन को, बिल्कुल अनदेखा कर देना
राधा से उद्धव उलझे तो विस्मृत शिक्षा करनी होगी
फिर इस पूरे ही मंदिर की पुनः समीक्षा करनी होगी

बोधगया के वन बोलेंगे कितने थे विद्वान तथागत
नालंदा जगकर बोलेगा क्या थे दिव्य महान तथागत
ईश्वर का अवतार वही था, नगरवधू का मन बोलेगा
शांति-अहिंसा का गायक था, धरती का कण-कण बोलेगा
मुख पर कैसी दिव्य प्रभा थी, शिष्यों की टोली बोलेगी
इक दिन यह सारी मानवता उनकी ही बोली बोलेगी
तप की इक अनुपम शैली से युग के पन्ने मोड़ गए थे
राहुल से मत चर्चा करना, उसको सोता छोड़ गए थे
परित्यक्ता के अधर खुले तो खंडित निष्ठा करनी होगी
फिर इस पूरे ही मन्दिर की पुनः समीक्षा करनी होगी

जो तरु जग को फल देता है उसकी जड़ें उमस सहती है
जो घाटों की प्यास बुझा दे, वह नदिया प्यासी रहती है
अक्सर दीपक के भीतर ही गहन अंधेरा छुप जाता है
तेज दुपहरी की आभा में, मौन सवेरा छुप जाता है
जिस पर्वत में करुणा जागी उसके जल को बहना होगा
अमृत घट उपजाकर भी सागर को खारा रहना होगा
जग की भूख मिटानी है तो हल की चुभन सहन कर लेना
उजियारा फैलाना है तो निज को पूर्ण दहन कर लेना
हर पूजित को दायित्वों की कठिन परीक्षा करनी होगी
इतिहासों को हर मन्दिर की पुनः समीक्षा करनी होगी

© चिराग़ जैन

Wednesday, April 18, 2018

पराजित विजेता

धर्मराज स्वीकार करोगे? रण से जीते इस शासन में
कुछ अनबोले वृक्षों के शव भी शामिल हैं सिंहासन में
धर्मराज स्वीकार करोगे?

लाक्षागृह की कालनिशा में जिस भिलनी को दमित किया था
जिनके शव की भस्म बनाकर दुर्योधन को भ्रमित किया था
उन बच्चों की दग्ध अस्थियां चुभती होंगी सिंहासन में
धर्मराज स्वीकार करोगे?

अर्जुन के जीवन की रक्षा हेतु भतीजा भेंट चढ़ा था
बर्बरीक की छल-हत्या पर सारा मजमा मौन खड़ा था
क्या इनका बलिदान पढ़ोगे शपथ ग्रहण के अभिभाषण में
धर्मराज स्वीकार करोगे?

अर्जुन, भीम सदा आगे थे हर अवसर पर गौण रहे तुम
द्रोणप्रवर के विश्वासों की हत्या करके मौन रहे तुम
भ्रम को पोषित करना भी क्या पाप नहीं है अनुशासन में
धर्मराज स्वीकार करोगे?

मेघों से गठबंधन करके अर्जुन के प्रण पूर्ण कराए
एक नपुंसक के पीछे छिपकर पौरुष पर तीर चलाए
कोई भेद नहीं था उस क्षण तुम सबमें और दुःशासन में
धर्मराज स्वीकार करोगे?

भूल गए वह ब्राह्मण का घर; झूठ जहाँ कहकर ठहरे थे
द्रुपदसुता के बँटवारे पर तुम कितने गूंगे-बहरे थे
कैसे बाँट सके तुम पाँचो इक जीवित नारी राशन में
धर्मराज स्वीकार करोगे?

© चिराग़ जैन

पूरी राजनीति हो गई मवाली

इस सप्ताह ख़बर पढ़ने वालों के दिल पर घाव हुआ
एक तरफ़ कठुआ घायल है, एक तरफ़ उन्नाव हुआ
एनकाउंटर से बच जाने का खुल्लमखुल्ला भाव हुआ
तोगड़िया की गद्दी छिन गई, ऐसा गुपचुप दांव हुआ
फिर से भागवत ने रामधुन गा ली, मंदिर की याद आ ली
वही पुराना ढंग भाइयो
पूरी राजनीति हो गई मवाली, सभी के सब ठाली
ज़माना हुआ तंग भाइयो

सारे बाबा संसद में तीर्थाटन करने पहुँचेंगे
छोड़ त्याग का पथ संन्यासी शासन करने पहुँचेंगे
मंत्र जाप को भूल वियोगी भाषण करने पहुँचेंगे
मंत्री बन नाइट क्लब का उद्घाटन करने पहुँचेंगे
एक कुर्सी ने भंग कर डाली, तपस्या निराली
चिमटे में है उमंग भाइयो
पूरी राजनीति हो गई मवाली, सभी के सब ठाली
ज़माना हुआ तंग भाइयो

मक्का मस्जिद के निर्णय ने काम सनसनीखेज किया
मुक्त असीमानंद हो गया, मुद्दे को निस्तेज किया
सच बोलो क्या न्यायतंत्र को प्रेशर से लबरेज किया
निर्णय देकर जज साहब ने इस्तीफ़ा क्यों भेज दिया
ऐसी कौन सी विवशता निभा ली, जो नौकरी गँवा ली
कैसा है ये प्रसंग भाइयो
पूरी राजनीति हो गई मवाली, सभी के सब ठाली
ज़माना हुआ तंग भाइयो

हार दिखा देती है सत्ताधारी को दिन में तारे
ढीले हो जाते हैं केवल दो दिन में नखरे सारे
पहले हारा जाता है फिर बहते हैं आँसू खारे
लेकिन अपने तोगड़िया जी, पहले रोए फिर हारे
भाईसाहब से दुश्मनी बना ली, सज़ा तुरंत पा ली
फीका पड़ा है रंग भाइयो
पूरी राजनीति हो गई मवाली, सभी के सब ठाली
ज़माना हुआ तंग भाइयो

किसे पता था लालू जी पर ऐसी आफ़त आएगी
दोस्त दग़ा देगा फिर जेलें बाँहें खोल बुलाएंगी
जननायक कहलाने की सारी खुजली मिट जाएगी
बीस दिनों में लालू जी की लालटेन बुझ जाएगी
अब तो ईसी ने त्यौरियाँ चढ़ा लीं, पूरी बही मंगा ली
लालू जी हुए दंग भाइयो
पूरी राजनीति हो गई मवाली, सभी के सब ठाली
ज़माना हुआ तंग भाइयो

सल्लू छूटे लालू घिरे बवाल बनाना ठीक नहीं
जाँच की धमकी देकर अपनी दाल गलाना ठीक नहीं
आयोगों में अभियोगों की चाल बनाना ठीक नहीं
न्यायपालिका को शासन की ढाल बनाना ठीक नहीं
जो करेगा सरकार की जुगाली, वही बचेगा ख़ाली
बाक़ी सभी से जंग भाइयो
पूरी राजनीति हो गई मवाली, सभी के सब ठाली
ज़माना हुआ तंग भाइयो

पर्स उदास हुआ बेचारा, एटीएम खल्लास हुआ
वित्त सुधारों के जुमलों का ये कैसा उपहास हुआ
ना बैंकों में बचा रहा ना मुद्रा पर विश्वास हुआ
बैन पुराने, नए नदारद, कैसा सत्यानाश हुआ
हर एटीएम की हेकड़ी निकाली, सभी हैं ख़ाली-ख़ाली
नोटों के उड़े रंग भाइयो
पूरी राजनीति हो गई मवाली, सभी के सब ठाली
ज़माना हुआ तंग भाइयो

रथयात्रा से शुरू हुआ था ये सारा गड़बड़झाला
रामलला के वरदानों से पा ली सत्ता की हाला
मंदिर के मुद्दे का तुमने रायता फैला डाला
जनका को बरसों से तुमने क्या कुछ नहीं बना डाला
राममंदिर की खिचड़ी पका ली, सरकारें बनवा लीं
घर में बही है गंग भाइयो
पूरी राजनीति हो गई मवाली, सभी के सब ठाली
ज़माना हुआ तंग भाइयो

© चिराग़ जैन

Saturday, April 14, 2018

कबीलाई समाज की ओर

हम एक सुदृढ़ लोकतंत्र से वापस कबीलाई समाज व्यवस्था की ओर अग्रसर हैं। और सही कहें तो अग्रसर भी नहीं ‘उग्रसर’ हैं।
हर कबीले में लड़ाकों की और अपराधियों की प्रचुर मात्रा उपलब्ध है। लेकिन हर क़बीले के अपने नियम हैं। हिन्दू क़बीले का कोई बलात्कारी यदि मुस्लिम क़बीले की किसी लड़की को दबोच लेता है, तो यह गुनाह नहीं है लेकिन यदि हिन्दू क़बीले का कोई लड़का हिन्दू क़बीले की ही किसी लड़की का बलात्कार करता है तो क़बीले को सवर्ण-दलित, कांग्रेस-भाजपा या शैव-वैष्णव के आधार पर विभक्त होकर आपस में लड़ना होगा। जिस वर्ग में लड़की आएगी, उस वर्ग के लोग अपनी क्षमता के अनुरूप दंगा, धरना, प्रदर्शन, रैली, तोड़फोड़, मारपीट, बदले की कार्रवाई, क्रिया की प्रतिक्रिया अथवा कैंडल मार्च करेंगे। ठीक इसी तरह जिस वर्ग में बलात्कारी आएगा उस वर्ग के लोग विपरीत पक्ष के किसी बलात्कारी की पुरानी फाइल को सनद बनाकर अपने प्रत्याशी के पक्ष में तर्क देगा या फिर लड़की को चरित्रहीन सिद्ध करके अपने प्रत्याशी को कर्मफलदायक घोषित कर देगा।
स्त्री-पुरुष के विभाजन से प्रारम्भ हुआ यह क्रम अमीर-ग़रीब, अगड़ा-पिछड़ा, कांग्रेसी-भाजपाई, हिंदी-मराठी-तमिल, राष्ट्रवादी-वामपंथी-सेक्युलर, मोदी खेमा-आडवाणी खेमा और साक्षर-निरक्षर तक विकसित हो चुका है। विभाजन के इस क्रम के विकास की कोई सीमा नहीं है। यह तब तक ज़ारी रह सकता है जब तक मनुष्य नितांत एकाकी न हो जाए। हर व्यक्ति स्वयं में कबीला होगा। हर व्यक्ति का निजी संविधान होगा जिसकी धाराएँ प्रतिदिन उसके अनुसार बदलती रहेंगी।
राम, कृष्ण, पैग़म्बर, ईसा, नानक, महावीर, बुद्ध, गांधी, नेहरू, अम्बेडकर और पटेल जैसे कुछ लोग कबीलाई संस्कृति के इस विकास क्रम को भंग करके मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने की फालतू बातें करने लगे तो हमने उनकी बातें अनसुनी करके उनके चित्र को ध्वजा बनाकर नए क़बीले बना लिए।
न्याय, कानून, मनुष्यता और करुणा को नपुंसक करके हम अनवरत विभक्त हो रहे इस स्वर्णयुग की आभा बढ़ा रहे हैं। बहुत जल्दी हम प्रति व्यक्ति एक क़बीले तक की व्यवस्था देख पाएंगे; लेकिन इस बीच हमें यह सावधानी बरतनी होगी कि तर्क, चिंतवन, निष्पक्षता, मनुष्यता और सहृदयता के शब्द लेकर कोई इस राह में अड़चन बनना चाहे तो उसे हर प्लेटफॉर्म पर गालियाँ बकनी आवश्यक है अन्यथा एकाकी खड़े रह जाने का सपना कभी पूरा न हो सकेगा।

© चिराग़ जैन

अपराधी सब हैं

किस राजा ने दांव लगाया
किस शकुनि ने फेंके पासे
किस देवर ने चीर उघाड़ा
कौन ससुर हैं आज रुआँसे
इन प्रश्नों में मत उलझाओ, चीरहरण के वादी सब हैं
लड़ते रहना युद्ध भले तुम, पर सचमुच अपराधी सब हैं

दुर्योधन के कान कहेंगे, हमने इक उपहास सहा था
जाति बताकर रश्मिरथी ने, इक दहता संत्रास सहा था
भीष्म बंधे हैं सिंहासन से, दुःशासन मद में ऐंठे हैं
द्रोण द्रुपद से अपमानित हैं, पाण्डव दास हुए बैठे हैं
कुल की लज्जा से इस पल में, मौन-मुखर संवादी सब हैं
लड़ते रहना युद्ध भले तुम, पर सचमुच अपराधी सब हैं

शांतनु-से कामुक पुरखे का कोई पिछला पाप फला हो
सम्भव है गांगेय तुम्हीं कोे, अम्बा का अभिशाप फला हो
जाने कब किस दुःशासन ने, किसके कुल की लाज घसीटी
जाने कब किस राजभवन में, किस कामी ने जंघा पीटी
अवसर मिलने पर अपराधी हो जाने के आदी सब हैं
लड़ते रहना युद्ध भले तुम, पर सच में अपराधी सब हैं

© चिराग़ जैन

Friday, April 13, 2018

व्हाट्सएप्प और फेसबुक

बचपन से देखते आए हैं। घर के एक कोने में दो झाडुएँ रखी होती थीं। एक फूलबुहारी और एक सींक वाली झाडू। कमरों के भीतर का फ़र्श बुहारना होता था तो फूलबुहारी प्रयोग की जाती थी। और आंगन या चौबारा झाड़ना होता था तो सींकों वाली झाड़ू काम आती थी। यही सिद्धांत सीख लें तो सोशल मीडिया का प्रयोग करना आ जाए। घर के भीतर कुछ गन्दगी हो तो उसे ऐसे उपकरण से साफ किया जाता है जो शोर भी न करे और कचरा भी साफ हो जाए। और घर के बाहर का कचरा पूरे ज़ोर शोर से धूम धड़ाके से रगड़ रगड़ कर साफ किया जाना चाहिए। हर समस्या पर विमर्श और चर्चा आवश्यक है लेकिन हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि व्हाट्सएप्प फूलबुहारी है और फेसबुक सींकों वाली झाड़ू। 

© चिराग़ जैन

Wednesday, April 11, 2018

वो भी तो तन्हा होगा

आपस का ये झगड़ा कुछ तो उसको भी खलता होगा
बस मैं ही तन्हा थोड़ी हूँ, वो भी तो तन्हा होगा

मैं तो हर मिलने वाले से मिलने से कतराता हूँ
वो भी सबसे मन की बातें करने से बचता होगा

शाम ढले मजबूरी में मैं बेमन से घर जाता हूँ
क्या वो भी घर के रस्ते पर रुक-रुक कर चलता होगा

अपने गम में रो लेने की फुरसत किस कमबख्त को है
मैं यूँ रोता हूँ वो मेरी यादों में रोता होगा

© चिराग़ जैन

Tuesday, April 10, 2018

बर्ताव बदल जाता है

कौम को लूट के खाना नहीं सीखा हमने
इतनी शिद्दत से कमाना नहीं सीखा हमने

वक्त के साथ ही बर्ताव बदल जाता है
बस यही तौर-ए-जमाना नहीं सीखा हमने

कोई कश्ती ही पलट जाए तो मर्जी उसकी
बीच में छोड़ के जाना नहीं सीखा हमने

जिन चिरागों से हुआ एक भी लम्हा रौशन
उन चिरागों को बुझाना नहीं सीखा हमने

एक वो हैं कि गिनाए चले जाएँ अहसान
एक हम हैं कि जताना नहीं सीखा हमने

© चिराग़ जैन

Monday, April 9, 2018

परिवर्तन

तुम
लिपि से
चित्र बनती जा रही हो
पढ़ने को कुछ नहीं मिलता
समझने को
बहुत कुछ

© चिराग़ जैन

Sunday, April 8, 2018

खुद मान जाना है मुझे

बस इसी सूरत हर इक रिश्ता निभाना है मुझे
जब कभी वे रूठ जाएं, तो मनाना है मुझे
वो मनाने आएंगे मुझको न ये उम्मीद हो
हर दफा खुद रूठकर खुद मान जाना है मुझे

© चिराग़ जैन

अल्बम

छुपी है याद की कितनी बड़ी जागीर अल्बम में
रखे हैं फूल, आंसू और कितने तीर अल्बम में
तुम्हारी याद की अल्बम उठाई तो हुआ मालूम
बहुत बतिया रही है आज हर तस्वीर अल्बम में

© चिराग़ जैन

Saturday, April 7, 2018

साहित्य सृजन

दीवानेपन में दुनिया के सफहे मोड़ गए हैं यार
आशिक अपने नाख़ूनों से पर्वत तोड़ गए हैं यार
ख़ाक़ कहेगा कोई अब इस महफ़िल में कुछ बात नई
तुलसी, मीर, कबीर सभी कुछ लिख कर छोड़ गए हैं यार

© चिराग़ जैन

Friday, April 6, 2018

मुद्दा मैनेजमेंट

कई बार ऐसा लगता है कि इस देश की स्थिति किसी कम्प्यूटर जैसी है। आप जो फाइल खोलते हो, पूरी स्क्रीन पर वही दिखाई देती है। फिर आप उसे क्लोज़ या मिनिमाइज़ करके दूसरी फाइल खोल लेते हो, तो पिछली फाइल की छाया तक नहीं बचती स्क्रीन पर।
इस कम्प्यूटर का ऑपरेटर दलित आंदोलन की फाइल खोल के बैठ गया तो पूरा देश फूंक दिया गया। कम्प्यूटर का प्रोसेसर जवाब दे गया। देश की रैम जाम हो गई। देश के हर राजनेता को दलितों की बेचारगी दिखने लगी। दो दिन तक यही फाइल खुली रही। जब फाइल में काम करने को कुछ न बचा, तो अगली फाइल खुलने के इंतज़ार में उसे खोले रखा गया।
तभी अचानक एक फिल्म अभिनेता को जेल हो गई। कम्प्यूटर स्क्रीन अभिनेता के वॉलपेपर्स से भर गई। जमानत याचिका पर सुनवाई न हो सकने के कारण बेचारे अभिनेता को कम से कम एक रात तो जेल में काटनी ही पड़ेगी। अब देश को लगा फिल्मस्टार का दर्द दलितों के दर्द से बड़ा है। हमने जोधपुर जेल का चप्पा-चप्पा छान मारा। इस अनुसंधान में वहाँ पहले से बंद एक बाबाजी मिल गए। हमने फिल्मस्टार और बाबाजी पर सेमी अश्लील चुटकुले गढ़े और अभिनेता के ज़ख़्मों पर मरहम लगाया।
यदि अभिनेता को जमानत मिल गई तो यही फाइल लम्बी चलेगी और जमानत नहीं मिली तो और लम्बी चलेगी।
नीरव मोदी, डाटा लीक, बुलेट ट्रेन, लिंगायत, पद्मावत, करणी सेना, पटेल आंदोलन, गुर्जर आंदोलन, जाट आंदोलन, श्रीदेवी की मृत्यु, बॉल टेम्परिंग, विजय माल्या, केजरीवाल की माफी, रोमियो स्क्वेड, राम मंदिर, तोगड़िया, राज्यसभा चुनाव, नरेश अग्रवाल, शमी की हसीना और मणिशंकर की गाली जैसी हज़ारों फाइलें हैं जो स्क्रीन कैप्चर करती रहीं और फिर अचानक ग़ायब हो गईं। कुछ फाइलें अपनी क्षमता से स्क्रीन पर छा जाती हैं तो कुछ को ऑपरेटर जान-बूझकर देर तक खोले रखता है।
ऑपरेटर जानता है कि यदि ये सारी फाइलें बन्द या मिनिमाइज़ कर दी गईं तो डेस्कटॉप का वॉलपेपर दिखने लगेगा जिस पर ‘प्रियोरिटीज़’ लिखी हुई हैं- रोटी.... कपड़ा... मकान... स्वास्थ्य... शिक्षा.... न्याय.... यातायात.... क़ानून.... सुरक्षा.... साफ़ हवा.... साफ पानी...!

© चिराग़ जैन

प्रपंचतंत्र की कहानियाँ

हाथी ने पेड़ के नीचे सो रहे चार चूहों को अपनी ताकत के मद में कुचल दिया। जंगल की पुलिस ने अदालत में हाथी पर मुक़द्दमा दायर किया। चूहों की औकात के मुताबिक़ मुक़द्दमा धीमी गति से चलता रहा और हाथी आराम से जंगल में ज़िन्दगी बसर करता रहा। इस बीच जंगल में चुनाव हुए और राजा के सिंहासन पर लकड़बग्गा बैठ गया।
हाथी ने मौक़ा देखते ही लकड़बग्गे से दोस्ती गाँठनी शुरू कर दी। वह एक शिष्ट नागरिक की तरह नवनिर्वाचित राजा के शपथग्रहण में समय से पूर्व खड़ा मिला। राजा ने जब भी कोई योजना या अभियान चलाया तो हाथी कार्यकर्ता की तरह ज़मीन पर लेट-लेटकर राजा के अभियान में भाग लेने लगा। इस बीच चूहोंवाले मुक़द्दमे के फैसले की घड़ी आ गई। सारे जंगल में चर्चा थी कि हाथी को फाँसी होगी। भयभीत हाथी ने राजा से अपनी वफ़ादारी का फल मांगा।
राजा ने चूहों की वोटिंग वेल्यू, हाथी की फेस टीआरपी और अपनी लोकप्रियता के ग्राफ़ का हिसाब लगाया और न्यायालय ने जादुई तरीके से सबूतों के अभाव में हाथी को निर्दाेष साबित कर दिया।
सारा जंगल देखता रह गया। अदालत की काफ़ी थू-थू हुई। दबे स्वरों में कुछ जानवरों ने राजा की भी निंदा की। राजा को महसूस हुआ कि इस मामले में हस्तक्षेप करके, उसने अपनी लोकप्रियता को हानि पहुँचाई है। राजा ने हाथी को बोला अब मुझसे मिलना-जुलना कुछ कम करो। अहसानमंद हाथी ने राजा की बात मान ली। अब हाथी राजा के किसी अभियान में दिखाई नहीं देता था। 
इसी बीच हाथी का एक और पुराना पाप उघड़ आया। उसने सालों पहले खरगोशों के दो बच्चे मनोरंजन के लिए मार दिए थे। यह मुक़द्दमा भी अपनी कछुआ चाल से धीरे-धीरे टल रहा था। अब इसके फ़ैसले की घड़ी आ गई। हाथी ने पहले की तरह लकड़बग्गे से मिलने की कोशिश की लेकिन राजा के निर्देश की वजह से मुलाक़ात संभव न हो सकी। हाथी इस उम्मीद में बैठा रहा कि राजा अपने वफ़ादार को दोबारा वफ़ादारी का इनाम देगा।
उधर राजा ने फिर हिसाब लगाया। सबसे पहली बात तो यह कि तीन महीने बाद खरगोशिस्थान में चुनाव हैं। वहाँ खरगोशों के काफ़ी वोट हैं। खरगोश समुदाय वैसे ही लकड़बग्गे की सरकार से नाराज़ है। अगर हाथी को सज़ा हो गई तो खरगोशों की वोट लकड़बग्गे की पार्टी को मिल जाएंगी। फिर पिछली बार चूहोंवाले केस में हुए फैसले से जो इमेज डैमेज हुई थी, वह भी बैलेंस हो जाएगी। सारा गणित लगाकर लकड़बग्गा सो गया।
सुबह अदालत का फैसला आया। पूरे जंगल को उम्मीद थी कि हाथी को अधिकतम तीन साल की सज़ा होगी लेकिन अदालत ने हाथी को पाँच साल की सज़ा सुनाई।
इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जंगल में न्याय उसे कहा जाता है जिसके होने से लकड़बग्गे को ज़्यादा वोट मिल जाएँ। बाकी सब अन्याय है।

© चिराग़ जैन

Wednesday, April 4, 2018

सोशल मीडिया पर चरित्र हत्या

हम जिस चीज़ को श्रम करके अर्जित करते हैं, उसका सम्मान करते हैं। यदि हमने संघर्ष किया हो, तो हम दूसरे के संघर्ष का भी सम्मान करते हैं। यदि हमने साधना करके प्रसिद्धि अर्जित की है तो, हम दूसरे की प्रसिद्धि का आदर करते हैं। यह तथ्य विश्व की प्रत्येक उपलब्धि पर लागू होता है। किंतु यदि हम प्रयास करने के बावजूद किसी वैभव से वंचित हैं तो हम उस वैभव के सिद्ध व्यक्ति का उपहास करके अपनी कुंठा निकालते हैं।
धनवान होने की लालसा रखनेवाला निर्धन व्यक्ति, सम्पन्न लोगों की जीवन पद्धति का उपहास करता है। सामाजिक सम्मान से हीन व्यक्ति, सम्मानित व्यक्तित्वों को ढोंगी कहने लगता है। क्रिकेट में विफल हुआ खिलाड़ी टीम इलेवन के हर सदस्य को भ्रष्टाचारी कहने लगता है। यही स्थिति राजनीति, फ़िल्म, साहित्य, पत्रकारिता, व्यापार, व्यवसाय और अन्य क्षेत्रों की है।
इन वंचित लोगों को यदि कोई अस्त्र मिल जाए तो ये उससे अपनी कुंठा निकालने का काम करते हैं। सोशल मीडिया ऐसा ही एक अस्त्र है जिस पर लोगों की चरित्र हत्या के अनगिनत उदाहरण देख चुका हूँ। भारत सरकार भी दोष सिद्ध होने तक आरोपी को अपराधी नहीं मानती किंतु फेसबुक के स्वयंभू न्यायाधीश किसी पर भी आक्षेप लगाकर उसे अपराधी सिद्ध कर देते हैं। चूँकि उसकी प्रोफाइल पर उसके जैसे ही लोगों का जुड़ाव होता है इसलिए समान वेवलेंथ के लोग उसे व्हिसलब्लोअर समझकर उसके शिकार को नोच-नोचकर खाने लगते हैं।
इन लोगों का एक ही सिद्धांत है कि किसी खटारा कार और मर्सिडीज़ की टक्कर होगी तो खटारा की प्रसिद्धि बढ़ेगी। मर्सिडीज़ के साथ उसका फ़ोटो भी अख़बार में छपेगा। इन लोगों को इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि इस टक्कर में मर्सिडीज़ का कितना नुक़सान होगा। क्योंकि इनके पास खोने के लिए कुछ है ही नहीं।
किसी के चरित्र पर प्रश्न उठा देना। किसी के निजी जीवन की कुछ अफ़वाह उड़ा देना, किसी की मौलिकता पर सवाल खड़े करना, किसी की ईमानदारी को कठघरे में घसीटना और किसी की नीयत पर शंका ज़ाहिर करना इस प्रवृत्ति के लोगों का विशेष शौक़ है। और इसमें विशेष बात यह है कि ऐसा करनेवाले लोगों को न तो चरित्र का अर्थ पता, न निजता का, न मौलिकता का, न ईमानदारी का और न ही नीयत का। कुछ भी करके तीन चीजें हासिल करना इनका लक्ष्य होता है - 1) लोगों की संवेदना; 2) बुद्धिमान और निडर होने का भ्रम और 3) प्रसिद्धि। इस प्रयास में विवाद से हासिल होनेवाले कमेंट्स और लाइक्स इनके लिए थर्मामीटर का काम करते हैं।
किसी से इनबॉक्स में चैट करना, फिर उसके रिप्लाई को क्रॉप करके सीधे यह आक्षेप लगाना की अमुक आदमी मेरे इनबॉक्स में अश्लील बातें करता है। इस स्क्रीनशॉट में चाहे बेचारे ने सामान्य शिष्टाचार में आपके अभिवादन का उत्तर मात्र दिया हो किन्तु उसके टेक्स्ट को इनबॉक्स में संपर्क करने का प्रयास सिद्ध कर ही दिया जाता है। और कमेंट करनेवाले भी ‘बेचारी लड़की को दुःखी करने’ के आरोप में गालियों का पिटारा लिए पहुँच जाते हैं।
सत्य जाने बिना सत्य के मसीहा बननेवाले लोग ऐसे प्रकरणों में कमेंट करने में रत्ती भर भी समय नहीं गँवाते। किसी के चरित्र की रक्षा करनी हो तो सोचना भी पड़े, हत्या करने में कैसा सोचना। किसी के ज़ख़्म पर मरहम लगानेवाला ज़ख्म का अध्ययन करेगा, उसके मुताबिक दवा जुटाएगा, उसकी पीड़ा का स्तर देखते हुए दवा लगाएगा ...इस सबमें समय लगना स्वाभाविक है। लेकिन जिसका ध्येय किसी को चोट पहुँचाना हो वह तो पत्थर उठाकर मार देगा। उसे यह क्यों सोचना कि सामनेवाले का सिर फूटेगा या पैर। ध्वंस आसान है और सृजन कठिन। सम्मान अर्जित करने में युग व्यतीत हो जाते हैं, अपमानित होने को तो एक क्षण ही पर्याप्त है।
सोशल मीडिया पर बढ़ रही इन प्रवृत्तियों का और कोई उपाय हो न हो किन्तु इनकी अनदेखी से इनके हौसले ज़रूर पस्त हो सकते हैं। जिसकी फ्रेंडलिस्ट में किसी क्षेत्र के सिद्ध लोग उपस्थित होंगे वह उनका ध्यानाकर्षण करने के लिए उस क्षेत्र के ही किसी व्यक्ति को निशाना बनाएगा।
हमें चाहिए कि इस प्रवृत्ति के लोगों को; चाहे वे किसी की भी चरित्र हत्या का प्रयास करें; उन्हें तुरंत ब्लॉक किया जाना चाहिए। बच्चा तभी इतराता है जब उसे देखने के लिए कोई उपस्थित हो। यदि उनकी श्रोतादीर्घा में कोई बड़ा आदमी होगा ही नहीं तो वे किसको दिखाने के लिए उछल-कूद करेंगे।
कोई भी व्यक्ति किसी भी कारण से किसी भी व्यक्ति के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग करे; उसकी निजता में प्रवेश करे; उसे अपमानित करने का कुचक्र रचे; उसके चरित्र की हत्या का प्रयास करे तो ऐसे व्यक्ति की प्रोफाइल पर जाकर तुरंत उसे ब्लॉक किया जाना चाहिए। इससे हमारी ऊर्जा ऐसे नकारात्मक कुकर्मों से अछूती रह पाएगी।

© चिराग़ जैन

Tuesday, April 3, 2018

न्याय की आँखों पर विशेषाधिकारों की पट्टी

न्याय का सामान्य अर्थ है, परिस्थितियों के सम्यक आकलन के बाद पीड़ित को मरहम देना और अपराधी को दंडित करना। इस प्रक्रिया में किसी की जाति, लिंग, धर्म या आयु का प्रश्न कहाँ से जुड़ गया?
हमने विशेष-अधिकारों, वर्ग आधारित विशेष प्रकोष्ठों और इस तरह की अन्य व्यवस्थाओं से न्याय प्रक्रिया को अपाहिज बनाने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया है। इन प्रावधानों ने उस वर्ग को सर्वाधिक हानि पहुँचाई है, जिसके पक्ष में ये कानून बनाए गए हैं।
महिलाओं के पक्ष में दहेज कानूनों का प्रावधान हुआ तो उसकी गाज पारिवारिक जीवन की सहिष्णुता पर गिरी। जब घरेलू हिंसा और प्रताड़ना के अपराधी को दंडित करने के लिये न्याय व्यवस्था सुसज्जित थी तो इस विशेष प्रावधान की आवश्यकता क्यों पड़ी। स्त्रियों के साथ ससुराल में होनेवाले दुर्व्यवहार की चिंता व्यक्त करते हुए ‘दहेज कानून’ बन तो गए लेकिन इस हथियार के दुरुपयोग के हज़ारों मुआमले अदालतों में ज़ाहिर होने लगे। दाम्पत्य जीवन की ज़रा-सी खटपट सीधे दहेज और घरेलू हिंसा के आक्षेपों तक जा पहुँची। लड़कियों ने परिवार बसाने के लिए प्रयास करने की बजाय थाने पहुँचना आसान समझ लिया। सास-ससुर, नंद-ननदोई, जेठ-जेठानी, देवर-देवरानी, भानजे-भानजी, भतीजे-भतीजी और यहाँ तक कि दोस्तों तक के नाम प्रताड़ना में लिखवाए; स्त्री सुरक्षा को कटिबद्ध पुलिस ने सबको लॉक अप में डाल दिया। परिवार के परिवार तबाह हो गए।
एक दिन अचानक अदालत को महसूस हुआ कि इस कानून का दुरुपयोग हो रहा है। अब लड़की की शिकायत पर प्रमाण मांगे जाने लगे। अब ससुरालवाले डरते तो थे लेकिन त्वरित गिरफ्तारी की प्रक्रिया बन्द हो गई। किन्तु परिवार में सौहार्द कायम नहीं हो सका क्योंकि लड़कियों को बता दिया गया है कि कानून लड़की के पक्ष में झुका हुआ है।
‘चार बर्तन होंगे तो आवाज़ होगी ही’ -यह कहावत हम सबने सुनी है। लेकिन दाम्पत्य में साथ रहनेवाले बर्तनों को यह बताया गया कि यदि थाली और गिलास में टकराहट हो तो गिलास को आवाज़ करने की इजाज़त नहीं है क्योंकि कानून थाली के पक्ष में झुका हुआ है।
क्यों जी, जिन लड़कियों ने दहेज कानूनों का दुरुपयोग करके अपने ससुराल पक्ष के सभी लोगों का जीवन नर्क कर दिया है, उनको किस अदालत ने दंडित किया है। पारिवारिक कलह को आधार बनाकर कन्यापक्ष, वरपक्ष से मोटी रकम वसूलता है और हमारे न्यायालय इसे सेटलमेंट का नाम देकर उस पर ठप्पा लगा देते हैं।
ग़ज़ब का न्याय है! पत्नी ने अपने पति पर बलात्कार का आरोप लगाया, पत्नी ने पति पर प्रताड़ना का आरोप लगाया, पत्नी ने पति पर हिंसा का आरोप लगाया। इन तीनों आरोपों में अपराधी को जेल भेजने की बजाय पैसे से पत्नी का मुँह बंद करने की सुविधा दे दी गई। अगर अदालत पति को अपराधी मानती है, तो उसे कारावास क्यों नहीं दिया जाता। और अगर अदालत जानती है कि पत्नी केवल क्रोध में उक्त आरोप लगा रही है तो किस अपराध में पति को आर्थिक मुआवजा देने के लिए बाध्य किया जाता है। कितने ही निर्दाेष लोग इस कानूनी व्यवस्था में असहाय होकर आत्मघात तक पहुँच गए।
इन प्रश्नों पर विचार करेंगे तो हम पाएंगे कि इस प्रकार की हर सेटलमेंट हमारी न्याय प्रक्रिया की विफलता को प्रमाणित करती है।
ठीक यही स्थिति एससी/एसटी कानून की भी है। दो व्यक्तियों के सामान्य से झगड़े को भी जातीय अपमान का मुद्दा बनाकर कानून की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं। हज़ारों निर्दाेष इस प्रावधान की भेंट चढ़ गए। एक दिन अचानक माननीय न्यायालय को लगा कि इस कानून का दुरुपयोग हो रहा है। इसमें शिकायत दर्ज होते ही तुरंत गिरफ्तारी की बजाय पहले शिकायत की वास्तविकता की पड़ताल कर लेनी चाहिए। इतना सुनते ही झूठी शिकायतों को हथियार बनाकर ब्लैकमेल करनेवाले तथाकथित दलित भड़क गए और उन्होंने देश भर में उत्पात मचाकर न्यायलय को धमकी दी कि यदि हमारी शिकायत की वास्तविकता जाँचने की कोशिश की तो हम पूरा देश जला डालेंगे। सरकार ने इन बेचारे ब्लैकमेलर्स की बात सुनी और सुप्रीम कोर्ट को कहा कि तुमने बिना सोचे-समझे बेचारे दलितों के फटे कानून में टांग अड़ाई है, चलो दोबारा अपने निर्णय की पड़ताल करो, वरना ये बेचारे देश जला डालेंगे।
समझ नहीं आता कि संसद में बैठे विधिनिर्माताओं के पास वास्तव में दूरदर्शिता है ही नहीं या फिर वे जानबूझकर अगले इलेक्शन से आगे देखना नहीं चाहते। न्याय व्यवस्था में निष्पक्षता समाज का विश्वास जीतने की प्रथम सीढ़ी है। दहेज कानूनों से बर्बाद हुए परिवार और जातीय कानूनों से त्रस्त हुए लोग आज भी देश की संसद और न्यायालय की ओर इस आशा से देखते हैं कि हम तो शहीद हो गए साहब लेकिन अयोग्य योद्धा के हाथ से इन घातक अस्त्रों को वापस ले लो। इन अस्त्रों से ये अपने आसपास के लोगों को ज़ख्मी कर रहे हैं और अंततः अपनी भी जान के दुश्मन बन चुके हैं।

© चिराग़ जैन

Monday, April 2, 2018

आरक्षण के आंदोलन

प्रधानमंत्री ने विश्व भर में घूम-घूमकर देश की छवि सुधारी है। और छवि वास्तव में सुधरी भी है, लेकिन देश नहीं सुधरा। हम आज भी किसी देवता की तस्वीर को चप्पल से पीटकर अपने दलित होने की कुंठा निकाल रहे हैं। हम भगवान की तस्वीर पर जूते फेंककर सरकार से आरक्षण बहाल रखने की फिरौती मांग रहे हैं। यह सब देखकर बाबा भीमराव अंबेडकर फूले नहीं समा रहे होंगे। रेलगाड़ियाँ रोक दी गई हैं। बाज़ार बन्द पड़े हैं। सड़कों पर हथियारबंद गुंडे गुंडई कर रहे हैं। इन सबको गुंडागर्दी का आरक्षण चाहिए। ये सब बाबा अम्बेडकर के संविधान की धज्जियाँ उड़ाने की स्वतंत्रता चाहते हैं। ये चाहते हैं कि जब पुलिस इन्हें हायतौबा करने से रोके तो संविधान पुलिस के हाथ बांध दे, लेकिन संविधान इन्हें हिंसा करने से रोके तो ये संविधान का बोरिया बांध दें।
सरकार इन्हें नहीं रोकेगी। वह माननीय न्यायालय से कहेगी कि अगले चुनाव में हमें इन लड़कों से विजय की पालकी उठवानी है इसलिए हम इन्हें बहन-बेटियों की इज़्ज़त लूटने से नहीं रोकेंगे सो तुम्हारे पास दो ही उपाय हैं या तो अपनी बहू-बेटियों को घर में घोंट दो या फिर इन लड़कों को आरक्षण की रिश्वत देकर विदा कर दो। न्यायालय सरकार को फटकारता है। सरकार आँसू बहाते हुए आरक्षण मांगनेवाली भीड़ को बताती है कि हमने तुम्हारी बात रखी तो हमें न्यायालय ने डाँट दिया। सुनकर हथियारबंद गुंडों का मन पिघल जाता है। वे न्यायालय की ज़्यादतियों से टूट जाते हैं और जिलाधीश का दफ्तर फूँक देते हैं। वे बेबस होकर बसें जलाने पर मजबूर हो जाते हैं। न्यायालय से न्याय न मिलने की पीड़ा से त्रस्त होकर वे बेचारे, आम लोगों से मारपीट करते हैं।
वे ब्राह्मणों के आराध्य को चप्पल से पीटते हैं। वे हिन्दू-देवी देवताओं को अपमानित करते हैं। इससे क्रुद्ध होकर हिंदुओं का खून खौल जाता है। उनके भीतर परशुराम उतर आते हैं। वे भीमराव अंबेडकर और कांशीराम की मूर्तियों पर कीचड़ उछालते हैं। 
उधर पटेल, जाट, गुर्जर समुदाय इन सब घटनाक्रमों का महीन अध्ययन करते हुए अपने लिए आरक्षण की रणनीति बनाते हैं। माननीय न्यायालय सरकार की ओर देखता है और सरकारें वोटबैंक की ओर। आंदोलन के बैनरतले होनेवाले फसादात का धुआँ आकाश में छाने लगता है और विश्व में भारत की छवि सुधरने का परचम धूसर हो जाता है।
हाँ, इस सबके बीच स्कूल गए बच्चों की, दफ़्तर के लिए निकले बेटे की, टूर पर गए पति की और गश्त पर गए पिता की चिंता में कुछ आँखें राह देखती रह जाती हैं। इस सबके बीच कोई नन्हा फरिश्ता दुनिया में आने से पहले ही आँखे मूंद जाता है। इस सबके बीच किसी चायवाले के घर चूल्हा नहीं जल पाता। इस सबके बीच किसी गोलगप्पेवाले का ठेला उदास खड़ा रह जाता है। इस सबके बीच कोई दर्द दवा तक नहीं पहुँच पाता है। इस सबके बीच कुछ मेहनतकशों की मजूरी नहीं हो पाती। इस सबके बीच कुछ अहम ज़रूरतें पूरी नहीं हो पातीं। 

© चिराग़ जैन