न्याय का सामान्य अर्थ है, परिस्थितियों के सम्यक आकलन के बाद पीड़ित को मरहम देना और अपराधी को दंडित करना। इस प्रक्रिया में किसी की जाति, लिंग, धर्म या आयु का प्रश्न कहाँ से जुड़ गया?
हमने विशेष-अधिकारों, वर्ग आधारित विशेष प्रकोष्ठों और इस तरह की अन्य व्यवस्थाओं से न्याय प्रक्रिया को अपाहिज बनाने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया है। इन प्रावधानों ने उस वर्ग को सर्वाधिक हानि पहुँचाई है, जिसके पक्ष में ये कानून बनाए गए हैं।
महिलाओं के पक्ष में दहेज कानूनों का प्रावधान हुआ तो उसकी गाज पारिवारिक जीवन की सहिष्णुता पर गिरी। जब घरेलू हिंसा और प्रताड़ना के अपराधी को दंडित करने के लिये न्याय व्यवस्था सुसज्जित थी तो इस विशेष प्रावधान की आवश्यकता क्यों पड़ी। स्त्रियों के साथ ससुराल में होनेवाले दुर्व्यवहार की चिंता व्यक्त करते हुए ‘दहेज कानून’ बन तो गए लेकिन इस हथियार के दुरुपयोग के हज़ारों मुआमले अदालतों में ज़ाहिर होने लगे। दाम्पत्य जीवन की ज़रा-सी खटपट सीधे दहेज और घरेलू हिंसा के आक्षेपों तक जा पहुँची। लड़कियों ने परिवार बसाने के लिए प्रयास करने की बजाय थाने पहुँचना आसान समझ लिया। सास-ससुर, नंद-ननदोई, जेठ-जेठानी, देवर-देवरानी, भानजे-भानजी, भतीजे-भतीजी और यहाँ तक कि दोस्तों तक के नाम प्रताड़ना में लिखवाए; स्त्री सुरक्षा को कटिबद्ध पुलिस ने सबको लॉक अप में डाल दिया। परिवार के परिवार तबाह हो गए।
एक दिन अचानक अदालत को महसूस हुआ कि इस कानून का दुरुपयोग हो रहा है। अब लड़की की शिकायत पर प्रमाण मांगे जाने लगे। अब ससुरालवाले डरते तो थे लेकिन त्वरित गिरफ्तारी की प्रक्रिया बन्द हो गई। किन्तु परिवार में सौहार्द कायम नहीं हो सका क्योंकि लड़कियों को बता दिया गया है कि कानून लड़की के पक्ष में झुका हुआ है।
‘चार बर्तन होंगे तो आवाज़ होगी ही’ -यह कहावत हम सबने सुनी है। लेकिन दाम्पत्य में साथ रहनेवाले बर्तनों को यह बताया गया कि यदि थाली और गिलास में टकराहट हो तो गिलास को आवाज़ करने की इजाज़त नहीं है क्योंकि कानून थाली के पक्ष में झुका हुआ है।
क्यों जी, जिन लड़कियों ने दहेज कानूनों का दुरुपयोग करके अपने ससुराल पक्ष के सभी लोगों का जीवन नर्क कर दिया है, उनको किस अदालत ने दंडित किया है। पारिवारिक कलह को आधार बनाकर कन्यापक्ष, वरपक्ष से मोटी रकम वसूलता है और हमारे न्यायालय इसे सेटलमेंट का नाम देकर उस पर ठप्पा लगा देते हैं।
ग़ज़ब का न्याय है! पत्नी ने अपने पति पर बलात्कार का आरोप लगाया, पत्नी ने पति पर प्रताड़ना का आरोप लगाया, पत्नी ने पति पर हिंसा का आरोप लगाया। इन तीनों आरोपों में अपराधी को जेल भेजने की बजाय पैसे से पत्नी का मुँह बंद करने की सुविधा दे दी गई। अगर अदालत पति को अपराधी मानती है, तो उसे कारावास क्यों नहीं दिया जाता। और अगर अदालत जानती है कि पत्नी केवल क्रोध में उक्त आरोप लगा रही है तो किस अपराध में पति को आर्थिक मुआवजा देने के लिए बाध्य किया जाता है। कितने ही निर्दाेष लोग इस कानूनी व्यवस्था में असहाय होकर आत्मघात तक पहुँच गए।
इन प्रश्नों पर विचार करेंगे तो हम पाएंगे कि इस प्रकार की हर सेटलमेंट हमारी न्याय प्रक्रिया की विफलता को प्रमाणित करती है।
ठीक यही स्थिति एससी/एसटी कानून की भी है। दो व्यक्तियों के सामान्य से झगड़े को भी जातीय अपमान का मुद्दा बनाकर कानून की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं। हज़ारों निर्दाेष इस प्रावधान की भेंट चढ़ गए। एक दिन अचानक माननीय न्यायालय को लगा कि इस कानून का दुरुपयोग हो रहा है। इसमें शिकायत दर्ज होते ही तुरंत गिरफ्तारी की बजाय पहले शिकायत की वास्तविकता की पड़ताल कर लेनी चाहिए। इतना सुनते ही झूठी शिकायतों को हथियार बनाकर ब्लैकमेल करनेवाले तथाकथित दलित भड़क गए और उन्होंने देश भर में उत्पात मचाकर न्यायलय को धमकी दी कि यदि हमारी शिकायत की वास्तविकता जाँचने की कोशिश की तो हम पूरा देश जला डालेंगे। सरकार ने इन बेचारे ब्लैकमेलर्स की बात सुनी और सुप्रीम कोर्ट को कहा कि तुमने बिना सोचे-समझे बेचारे दलितों के फटे कानून में टांग अड़ाई है, चलो दोबारा अपने निर्णय की पड़ताल करो, वरना ये बेचारे देश जला डालेंगे।
समझ नहीं आता कि संसद में बैठे विधिनिर्माताओं के पास वास्तव में दूरदर्शिता है ही नहीं या फिर वे जानबूझकर अगले इलेक्शन से आगे देखना नहीं चाहते। न्याय व्यवस्था में निष्पक्षता समाज का विश्वास जीतने की प्रथम सीढ़ी है। दहेज कानूनों से बर्बाद हुए परिवार और जातीय कानूनों से त्रस्त हुए लोग आज भी देश की संसद और न्यायालय की ओर इस आशा से देखते हैं कि हम तो शहीद हो गए साहब लेकिन अयोग्य योद्धा के हाथ से इन घातक अस्त्रों को वापस ले लो। इन अस्त्रों से ये अपने आसपास के लोगों को ज़ख्मी कर रहे हैं और अंततः अपनी भी जान के दुश्मन बन चुके हैं।
© चिराग़ जैन
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