Monday, April 2, 2018

आरक्षण के आंदोलन

प्रधानमंत्री ने विश्व भर में घूम-घूमकर देश की छवि सुधारी है। और छवि वास्तव में सुधरी भी है, लेकिन देश नहीं सुधरा। हम आज भी किसी देवता की तस्वीर को चप्पल से पीटकर अपने दलित होने की कुंठा निकाल रहे हैं। हम भगवान की तस्वीर पर जूते फेंककर सरकार से आरक्षण बहाल रखने की फिरौती मांग रहे हैं। यह सब देखकर बाबा भीमराव अंबेडकर फूले नहीं समा रहे होंगे। रेलगाड़ियाँ रोक दी गई हैं। बाज़ार बन्द पड़े हैं। सड़कों पर हथियारबंद गुंडे गुंडई कर रहे हैं। इन सबको गुंडागर्दी का आरक्षण चाहिए। ये सब बाबा अम्बेडकर के संविधान की धज्जियाँ उड़ाने की स्वतंत्रता चाहते हैं। ये चाहते हैं कि जब पुलिस इन्हें हायतौबा करने से रोके तो संविधान पुलिस के हाथ बांध दे, लेकिन संविधान इन्हें हिंसा करने से रोके तो ये संविधान का बोरिया बांध दें।
सरकार इन्हें नहीं रोकेगी। वह माननीय न्यायालय से कहेगी कि अगले चुनाव में हमें इन लड़कों से विजय की पालकी उठवानी है इसलिए हम इन्हें बहन-बेटियों की इज़्ज़त लूटने से नहीं रोकेंगे सो तुम्हारे पास दो ही उपाय हैं या तो अपनी बहू-बेटियों को घर में घोंट दो या फिर इन लड़कों को आरक्षण की रिश्वत देकर विदा कर दो। न्यायालय सरकार को फटकारता है। सरकार आँसू बहाते हुए आरक्षण मांगनेवाली भीड़ को बताती है कि हमने तुम्हारी बात रखी तो हमें न्यायालय ने डाँट दिया। सुनकर हथियारबंद गुंडों का मन पिघल जाता है। वे न्यायालय की ज़्यादतियों से टूट जाते हैं और जिलाधीश का दफ्तर फूँक देते हैं। वे बेबस होकर बसें जलाने पर मजबूर हो जाते हैं। न्यायालय से न्याय न मिलने की पीड़ा से त्रस्त होकर वे बेचारे, आम लोगों से मारपीट करते हैं।
वे ब्राह्मणों के आराध्य को चप्पल से पीटते हैं। वे हिन्दू-देवी देवताओं को अपमानित करते हैं। इससे क्रुद्ध होकर हिंदुओं का खून खौल जाता है। उनके भीतर परशुराम उतर आते हैं। वे भीमराव अंबेडकर और कांशीराम की मूर्तियों पर कीचड़ उछालते हैं। 
उधर पटेल, जाट, गुर्जर समुदाय इन सब घटनाक्रमों का महीन अध्ययन करते हुए अपने लिए आरक्षण की रणनीति बनाते हैं। माननीय न्यायालय सरकार की ओर देखता है और सरकारें वोटबैंक की ओर। आंदोलन के बैनरतले होनेवाले फसादात का धुआँ आकाश में छाने लगता है और विश्व में भारत की छवि सुधरने का परचम धूसर हो जाता है।
हाँ, इस सबके बीच स्कूल गए बच्चों की, दफ़्तर के लिए निकले बेटे की, टूर पर गए पति की और गश्त पर गए पिता की चिंता में कुछ आँखें राह देखती रह जाती हैं। इस सबके बीच कोई नन्हा फरिश्ता दुनिया में आने से पहले ही आँखे मूंद जाता है। इस सबके बीच किसी चायवाले के घर चूल्हा नहीं जल पाता। इस सबके बीच किसी गोलगप्पेवाले का ठेला उदास खड़ा रह जाता है। इस सबके बीच कोई दर्द दवा तक नहीं पहुँच पाता है। इस सबके बीच कुछ मेहनतकशों की मजूरी नहीं हो पाती। इस सबके बीच कुछ अहम ज़रूरतें पूरी नहीं हो पातीं। 

© चिराग़ जैन

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